लोकतंत्र और संवैधानिक अधिकारों के नाम पर अराजकता कब तक?
कहने को भारत एक ऐसा देश है जो संविधान से चलता है, लेकिन जब देश के सुप्रीम कोर्ट को यह कहना पड़ता है कि वो जांच करेगा कि “क्या विरोध करने का अधिकार एक पूर्ण अधिकार है” तो लगता है कि हम आज भी ग़ुलाम हैं। गुलाम हैं उस सत्तालोलुप वोटबैंक की राजनीति के जिसे अपने स्वार्थ के आगे कुछ नहीं दिखता। गुलाम हैं उस स्वार्थी सोच के जो संविधान द्वारा दिए गए हमारे अधिकारों के बारे में हमें समय समय पर जागरूक करती है, लेकिन देश के प्रति हमारे दायित्वों का कर्तव्यबोध हमें होने नहीं देती। गुलाम हैं उन विपक्षी दलों की महत्वाकांक्षा के, जो उन्हें संसद की हारी लड़ाई सड़क पर जीतने का मार्ग दिखा देती है। यह विषय इसलिए गम्भीर हो जाता है कि हमारी यह गुलामी कभी 26 जनवरी जैसे राष्ट्रीय गौरव के दिन देश को हिंसा की आग में झोंक देती है तो कभी लखीमपुर जैसे घटनाओं को अंजाम देती है। अतः निश्चित रूप से यह चिंता और चिंतन दोनों का ही विषय होना चाहिए। क्योंकि लखीमपुर जैसी घटनाएं इस बात की गवाह हैं कि आज की राजनीति में येन केन प्रकारेण सत्ता हासिल करने और अपनी राजनैतिक रोटियां सेंकने के लिए किसी बेगुनाह के परिवार के घर का चूल्हा बुझाने से भी परहेज नहीं किया जाता। विडंबना की पराकाष्ठा यह है कि संविधान की दुहाई देकर उन कृषि कानूनों का विरोध किया जा रहा है जो संसद के दोनों सदनों से पारित हो कर आए हैं।
लोकतंत्र और संवैधानिक अधिकारों के नाम पर इस प्रकार की घटनाएं इस देश के लिए नई नहीं हैं, इसलिए अब समय आ गया है कि अधिकारों की भी सीमा तय की जाए। दरअसल हमें यह समझना होगा कि कोई भी शक्ति असीमित नहीं होती। सृष्टि की हर चीज़ में ऊर्जा होती है चाहे वो एक निर्जीव वस्तु हो या फिर कोई सजीव प्राणी लेकिन वो रचनात्मक तभी होती है जब उसकी एक सीमा होती है। किंतु यदि इन शक्तियों की कोई सीमा न हो तो वो विनाशकारी सिद्ध होती हैं। उदाहरण के तौर पर, जो भोजन हम खाते हैं उसका हर अंश एक निश्चित मात्रा में हमें ऊर्जा देता है तब ही वो हमें पोषित कर पाता है । इसी प्रकार एक स्कूटर या एक बाइक या एक कार या प्लेन या ट्रेन सभी की स्पीड की भी एक सीमा है तभी हम इन्हें नियंत्रित कर पाते हैं। अगर इनकी स्पीड की सीमा न हो तो चलाने वाला इन पर नियंत्रण नहीं रख पाएगा और दुर्घटना हो जाएगी। ऐसे ही सीमाओं में प्रकृति भी बंधी है। जब तक नदी अपनी सीमा में रहती है वो जीवनदायिनी होती है लेकिन जैसे ही वो अपनी सीमा को लाँघ देती है वो प्रलयकारी बन जाती है। स्पष्ट है कोई भी शक्ति सीमा में ही रचनात्मक होती है, असीमित शक्ति विध्वंस का ही कारण होती है। इसलिए शक्तियों की सीमा निर्धारित करना अत्यंत आवश्यक है। आज मोबाइल और इंटरनेट का जमाना है। विभिन्न कम्पनियां अनलिमिटेड फोन और डेटा के अनेक ऑफर निकालती हैं लेकिन क्या वो वाकई में अनलिमिटेड होते हैं? नहीं उन सब की एक सीमा होती है। तो फिर हमारे अधिकार असीमित कैसे हो सकते हैं?
लेकिन इसे क्या कहा जाए कि संवैधानिक अधिकारों के नाम पर दूसरी बार इस देश की राजधानी की सड़कें बाधित हैं। विगत लगभग 10 माह से देश की राजधानी दिल्ली की सड़कें अवरुद्ध हैं और सड़क खोलने का यह मामला अब सुप्रीम कोर्ट पहुंच गया है। सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि किसी सड़क पर हमेशा के लिए कब्ज़ा नहीं किया जा सकता। लोकतंत्र और संविधान द्वारा प्रदत्त विरोध के अधिकार के नाम पर इतने लम्बे समय से विरोध प्रदर्शन कर रहे किसान संगठनों से सुप्रीम कोर्ट ने कई सवाल भी पूछे हैं। दरअसल किसानों के एक संगठन किसान महापंचायत ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर दिल्ली के जंतर मंतर पर “सत्याग्रह” करने की अनुमति मांगी थी। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि कृषि कानूनों की वैधता को चुनौती देने के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाए जाने के बाद विरोध प्रदर्शन का सवाल ही कहाँ उठता है। जब किसान संगठन पहले ही विवादित कृषि कानूनों के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का रुख कर चुके हैं तो आंदोलन जारी रखने और सत्याग्रह करने का क्या तुक है। जब आपने कोर्ट का रुख किया है तो अदालत पर भरोसा रखिए। अदालत पहुंचने के बाद प्रोटेस्ट का क्या मतलब है? क्या आप ज्यूडिशियल सिस्टम के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे हैं?शीर्ष अदालत ने जब तीनों कानूनों पर रोक लगा दी है और ये अधिनियम लागू नहीं हुए हैं तो आप किस चीज़ के लिए प्रदर्शन कर रहे हैं? सर्वोच्च अदालत ने किसान संगठनों से एक महत्वपूर्ण बात भी कही कि अब आप एक रास्ता चुनें, कोर्ट का, संसद का, या सड़क पर प्रदर्शन का। आशा है कि कृषि कानूनों के इस तथाकथित विरोध प्रदर्शन से देश में एक महत्वपूर्ण विमर्श को गति मिले ताकि देशहित में अधिकारों की सीमा को इस प्रकार निर्धारित किया जा सके जो देश के प्रति कर्तव्यबोध के प्रति भी जागरूक करे।
(लेखिका वरिष्ठ स्तंभकार हैं)