वंचितों और पीड़ितों के मसीहा ठक्कर बापा

वंचितों और पीड़ितों के मसीहा ठक्कर बापा

वंचितों और पीड़ितों के मसीहा ठक्कर बापावंचितों और पीड़ितों के मसीहा ठक्कर बापा

सम्पूर्ण काठियावाड़ पर उस समय अकाल की काली छाया मंडरा रही थी। पेट भरने के लिए पेड़ों के पत्ते भी समाप्त हो चुके थे। जहाँ-तहाँ भूख से मृत लोगों की लाशें पड़ी दिखायी देती थीं। पोरबन्दर में नियुक्त अमृतलाल ने दो दिन पूर्व ही इन बच्चों के श्रमिक माता-पिता को अकाल की भूख से तड़प कर मरते हुए देखा था। पीछे बच रहे थे दो किशोर और एक दो महीने का उनका नन्हा भाई। भला, बच्चे कैसे इस शिशु को सम्भाल पाते। उन्होंने शिशु को जिन्दा ही जमीन में गाड़कर अपना सिरदर्द समाप्त किया। अमृतलाल पर इस हृदयस्पर्शी घटना का गम्भीर प्रभाव पड़ा। उन्होंने अपनी डायरी में लिखा, “जिस देश की सन्तानें भूख और अकाल की पीड़ा से दम तोड़ रही हों, नन्हें बालक नालियों से अन्न कण बटोर रहे हों, इस विश्वास का लाभ उठाकर यदि विधर्मी तत्व सेवा भाव से नहीं धर्म परिवर्तन की भावना से उन्हें फुसला रहे हों तो आश्चर्य ही क्या है?” उनकी व्यथा घनीभूत हो उठी। उसमें एक संकल्प उभरा, “करोड़ों दीन-दुखी अभावग्रस्त बन्धुओं के लिए मुझे अपनी सीमाएं तोड़नी होंगी। परिवार की परिधि में बंधे रह कर यह सेवा कार्य असम्भव है।” अमृतलाल ठक्कर ने सारे बन्धन तोड़कर आजीवन सेवा का संकल्प धारण कर लिया। देश के कोने-कोने में दीन-दुखी लोगों की सेवा के लिये घूमने वाले ठक्कर सबके बापा बन गए। उस दिन अकाल पीड़ितों को अन्न वस्त्र बाँटते वे शक्करपुर ग्राम पहुँचे कि महिला ने झट से घास-फूस का वह द्वार बन्द कर लिया। बापा ने चकित स्वर में पूछा, क्यों बहन, तुम्हें कुछ अन्न वस्त्र नहीं चाहिये? हम तुम्हारी सहायता के लिए आये हैं।”

“घर के बाहर द्वार तक कैसे आ सकती हूं? स्त्री ने दरवाजे की ओट से ही उत्तर दिया। मेरे पास तन की लाज ढंकने को एक वस्त्र है- निर्वस्त्र झोपड़ी की ओट में बैठी हूँ।”

बापा यह सुनकर करुणाभिभूत हो उठे। उन्होंने कुछ वस्त्र दिए, उन्हें पहन कर वह द्वार तक आ सकी।

एक बार एक सहयोगी ने उन्हें जयपुर के रमणीक दृश्य दिखाते हुए कहा, “बापा, खुसरो ने कश्मीर को देखकर कहा था, यदि धरती पर स्वर्ग है तो यहीं है, यहीं है, यहीं है। क्या जयपुर को देख कर आपको नहीं लगता कि स्वर्ग यहीं है? बापा बोले “मुझे वंचितों की बस्ती में ले चलो तब मैं निर्णय करूँगा।”

बापा ने बस्ती का नारकीय दृश्य देखा तो उनका हृदय भर आया। बोले, “इसे कहते हो तुम स्वर्ग?” उनकी आँखों में असीम वेदना छलक उठी, रुंधे कंठ से बोले, “अगर मुझसे पूछते हो, तो मैं कहूँगा कि अगर पृथ्वी पर नरक है तो यहीं है, यहीं है, यहीं है।” प्रकृतिस्थ होने पर बापा ने सहयोगियों से कहा, “मेरे लिए सुन्दर-असुन्दर की एक ही कसौटी है और वह यह कि वहाँ कमजोर और गिरि जनों को कितना सुख प्राप्त है।”

वंचितों और पीड़ितों के इस मसीहा ने सेवा का वह पथ प्रशस्त किया कि उसके बाद में इस सेवा पथ पर हजारों लोग बढ़ चले। बापा के जन्म दिवस समारोह पर बाबू जगजीवनराम ने सत्य ही कहा था, “देवताओं के कल्याण हेतु महर्षि दधिचि ने अपनी अस्थियां दी थीं और बापा ने वंचितों के उद्धार के लिए अपनी प्रत्येक श्वाँस अर्पित की है।”

Print Friendly, PDF & Email
Share on

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *