वामपंथी नारीवादियों ने महिलाओं में उनके अपने प्रति ही घृणा का भाव जगाने का कुत्सित प्रयास किया है
मीनाक्षी दीक्षित
एक वामपंथी नारीवादी मित्र ने एक कविता साझा की। पितृसत्तात्मक समाज और परंपराओं से विद्रोह का बिगुल बजाती कविता को प्रशंसा के सभी इमोजी प्राप्त होने के साथ-साथ, पितृसत्तात्मक समाज की पीड़ित स्त्रियों का पर्याप्त समर्थन मिल रहा था।
कविता लंबी और बोझिल थी। यहां दोहराना संभव नहीं है किंतु कविता का मूल भाव था, ‘मैं बहुत कर चुकी तुम्हारे घर का काम, आज से मैं इंकार करती हूं यह चाय नाश्ता खाना बनाने से, यह घर देखने से, मुझे लिखनी है कविता, बनानी है पेंटिंग, पढ़नी है किताब, करना है नृत्य इत्यादि इत्यादि और अंत में- घृणा पितृसत्तात्मक समाज से और उसे नष्ट कर देने का प्रण।’
कविता में कोई नई बात नहीं थी। ये वामपंथी नारीवादियों के, एक सामान्य गृहिणी और पितृसत्तात्मक (सिर्फ हिंदू समाज क्योंकि मुस्लिम और ईसाई समाज में तो पुरुष महिलाओं की उंगलियों पर नाचते हैं) समाज के विषय में सामान्य विचार हैं।
एक तो गृहिणी और गृहसेविका में अंतर कर पाना वामपंथियों के लिए संभव नहीं है और दूसरे अपनी समझ का ये दोष, स्त्रियों की दुर्दशा पर भावुक कविताओं के साथ, पितृसत्तात्मक (हिन्दू) समाज और परम्पराओं पर डालकर हिन्दू समाज की नयी पीढ़ी के मन में उनकी अपनी ही सामाजिक संरचना के प्रति ग्लानि जगाना सरल है।
यह सत्य है कि पराधीनता के लंबे कालखंड में मूल भारतीय जीवन पद्धतियों, परंपराओं और सामाजिक मानदंडों जिनमें स्त्री-पुरुष के व्यक्तिगत अधिकार और पारस्परिक संबंध भी निहित थे, में व्यापक नकारात्मक परिवर्तन आए, किंतु आज उन्हें तेजी से बदला जा रहा है। आज के समाज के पास दो विकल्प हैं पहला, पराधीनता की परिस्थिति में स्त्रियों के प्रति जन्मे नकारात्मक सामाजिक व्यवहार को बदल कर, स्त्री और पुरुष दोनों के लिए ऐसे समाज का निर्माण करे, जिसमें दोनों ही अपनी सर्वोच्च क्षमताओं का प्रदर्शन कर स्वाभिमान और परस्पर आदर के साथ रहें। दूसरा, इन परिस्थितियों का संपूर्ण दोष, अपने समाज की व्यवस्था पर डालकर उसे पितृसत्तात्मक, पिछड़ा, रूढ़िवादी कहकर स्वयं को अनावश्यक ग्लानि के भार से दबा ले और इससे मुक्ति के नाम पर, सामान्य जीवन के कर्तव्यों से मुख मोड़ने की पक्षधारिता करे।
वामपंथी नारीवादी दूसरा विकल्प अपनाते हैं। इसमें कुछ करना नहीं है। स्त्रियों के मन में उनके प्रति ही घृणा भर दो। वे जो कुछ भी करती हैं वह सब व्यर्थ है क्योंकि वे यह सब पितृसत्तात्मक समाज के कारण करती हैं। कुछ सरल प्रश्न हैं जिनका उत्तर वामपंथी नारीवादी कभी नहीं देते। सीता की अग्नि परीक्षा हुई, यह तो जोर-जोर से कहेंगे (हालांकि यह झूठ भी उन्हीं के द्वारा गढ़ा गया है, मूल वाल्मीकि रामायण में उत्तरकांड ही नहीं है) किंतु कोई प्रश्न कर दे कि सीताराम या सियाराम में सिया पहले क्यों तो बगलें झाँकने लगेंगे। यदि समाज इतना ही पितृसत्तात्मक था तो ब्रह्मवादिनी स्त्रियां कहां से आई? यदि समाज इतना ही पितृसत्तात्मक था तो शंकराचार्य और मंडल मिश्र के शास्त्रार्थ का निर्णायक भारती को क्यों बनाया गया? वर्तमान परिस्थिति को देखें, तो संपूर्ण पितृसत्तात्मक रचना से घृणा करने वाली इन आधुनिक वामपंथी नारीवादियों को पति की पैतृक संपत्ति पर पूरा अधिकार चाहिए। तब ध्यान नहीं आता कि यह उसकी पितृ संपत्ति है।
आज के समय में अधिकांश युवा मानसिक रूप से परिपक्व होने के बाद ही विवाह करते हैं और अन्यान्य कारणों से परिवार भी एकल ही रहते हैं। ऐसे में समान अवसरों और पारस्पारिक आदरयुक्त समाज बनाने का साझा उत्तरदायित्व समाज के प्रत्येक स्त्री और पुरुष का है। कल ही एक बलिदानी पिता की सत्रह- अट्ठारह वर्ष की बेटी ने अपने पिता की अर्थी को कन्धा ही नहीं दिया, मुखाग्नि भी दी। यह समाज में बड़े बदलाव का संकेत है। जिस दिन के लिए बेटे की कामना सर्वाधिक थी, उस दिन का दायित्व बेटी ने सहजता से उठा लिया, बिना किसी शोर के।