जोसफ गोएबल्स हैं जिनके प्रेरणा पुरुष
आशीष कुमार ‘अंशु’
‘‘भारत में सांस्कृतिक, आध्यात्मिक आदि चेतनायुक्त राष्ट्र की पहचान के अनुकूल राष्ट्रवाद लंबे समय से जोर मार रहा है, जगह बना रहा है। राष्ट्र राज्य की दृष्टि से इसे देखेंगे तो भारत में चार धाराएं हैं। पहली यह कि भारत एक बहुराष्ट्रवाद प्रायद्वीप है। इस धारा का पोषण वामपंथ करता है। दूसरी धारा यह मानती है कि भारत नया राष्ट्र है जिसका जन्म 1947 में हुआ है, जिसके राष्ट्रपिता गांधी जी हैं। तीसरी धारा मानती है कि भारत राष्ट्र बन रहा है, अभी बना नहीं है। चौथी धारा का कहना है कि भारत एक प्राचीन राष्ट्र है, पूरा भारत एक राष्ट्र और एक संस्कृति को धारण करता है और उस राष्ट्रवाद की स्मृति की निरंतरता हजारों बरसों से है। यह मानता है कि राजनीतिक सीमाएं घटती-बढ़ती रही हैं और हिमालय की शाखाओं-प्रशाखाओं से आवेष्टित समुद्र से घिरे हुए और उसमें उपस्थित द्वीपों समेत पूरे भूभाग की राष्ट्रवादी पहचान एक है। स्मृति की इस निरंतरता को भारतीयता और इस पहचान को हिंदू विचार कहते हैं। शायद इसलिए 1858 में सर सैयद अहमद खान को यह कहते हिचक नहीं हुई कि उनका मजहब भले ही इस्लाम है लेकिन उनकी राष्ट्रीय पहचान हिंदू है।’’
राष्ट्र और राष्ट्रवाद को समझने में चिन्तक गोविन्दाचार्य की उपरोक्त टिप्पणी से अनुमान करता हूं कि आपको इसे समझने में आसान हुई होगी। गोविन्दाचार्य ने अपनी टिप्पणी में चार तरह के राष्ट्रवाद का जिक्र किया है। मीडिया में वर्ष 2014 से जिस राष्ट्रवाद का उभार देखने को मिल रहा है, वास्तव में यह एक पांचवें तरह का राष्ट्रवाद है। इसे समझना जटिल नहीं है, लेकिन इसे समझने के लिए एक-दो दशक पहले जाना होगा। उन पत्रकारों की पहचान करनी होगी, जिनका नाम और रुतबा बड़ा था।
और अधिक स्पष्ट शब्दों में समझने के लिए कुछ बड़े पत्रकारों को देखिए, जिनकी धूम दस साल पहले रही हो। आप करण थापर, बरखा दत्त, राजदीप सरदेसाई का नाम ले सकते हैं। इस बात को समझने के लिए किसी राॅकेट साइंस की आवश्यकता नहीं है कि ये पत्रकार अपनी पत्रकारिता के कारण कम और उस दौरान केन्द्र की सत्ता के केन्द्र में मौजूद गांधी परिवार से अपनी निकटता के कारण बड़े पत्रकार रहे। यह निकटता ही है जिसके कारण राजदीप ने दस साल पहले सोनिया गांधी का साक्षात्कार किया था। दस साल बाद जब सोनिया गांधी को साक्षात्कार देने के लिए एक पत्रकार का नाम याद आया तो वह नाम भी राजदीप का था। राजदीप ने इस साक्षात्कार में अपने ‘गुडी-गुडी’ सवालों से साबित किया कि समय के साथ सत्ता बदल सकती है, वफादारी नहीं। वे कल भी गांधी परिवार के वफादार थे और आज भी गांधी परिवार के ही वफादार हैं।
आज के समय में जिसे राष्ट्रवाद बताया जा रहा है, इसके कथित संदेशवाहकों के लिए भक्त शब्द चलन में है। ‘गुनाहगार मंटो’ में सआदत हसन मंटो ने लिखा है- ‘‘मैं चीजों के नाम रखने को बुरा नहीं समझता। मेरा अपना नाम अगर न होता तो वो गालियां किसे दी जातीं जो अब तक लाखों और हजारों की संख्या में मैं अपने नक्कादों से वसूल कर चुका हूं- नाम हो तो गालियां और शाबाशियां लेने और देने में बहुत सहूलियत पैदा हो जाती है।’’
यहां मंटो को उद्धृत करने का उद्देश्य इतना भर था कि आप समझ पाएं कि ‘राष्ट्रवाद’, ‘भक्त’, ‘संघी’ जैसे शब्द जो इन दिनों सोशल मीडिया पर चलन में हैं, वे किनकी सहूलियत के लिए बने हैं। ये सब वे लोग हैं जो जोसफ गोएबल्स को भक्त, संघी, राष्ट्रवादियों का प्रेरणा पुरुष बताते हैं। जोसफ गोएबल्स नाजी तानाशाह एडोल्फ हिटलर का प्रोपेगंडा मिनिस्टर था। उसका सबसे प्रसिद्ध बयान ‘झूठ’ को लेकर है कि एक झूठ को सौ बार बोलों तो वह सच हो जाता है। इस बयान को उन्हीं लोगों ने बार बार उद्धृत करके प्रसिद्ध बनाया है, जिन्होंने 2014 के बाद भक्त, राष्ट्रवाद शब्द को बार बार उद्धृत करके प्रसिद्ध बनाया। दिलचस्प है, यह खेमा जोसफ स्टालिन, माओत्से तुंग का जिक्र कभी नहीं करता। उनके हत्याकांड को छुपाने का प्रयास करता है और अपनी सारी बौद्धिक ताकत लगाकर उनके द्वारा की गई हत्याओं को सही ठहराने का प्रयास करता है। हाल में क्यूबा के तानाशाह फिदेल कास्त्रो की मौत को इसी खेमे ने भारत में इस तरह प्रचाारित किया जैसे कोई तानाशाह नहीं बल्कि किसी महात्मा की मौत हुई हो।
वास्तव में जोसफ गोएबल्स को फाॅलो करने वाला खेमा वही है, जिसने भक्त जैसे शब्द को एक विशेष अर्थ में कुछ ही दिनों में लोकप्रिय बना दिया। इस तरह अफवाह फैलाने में यह पूरा खेमा विशेषज्ञता रखता है।
मृणाल वल्लरी नाम की एक युवा पत्रकार ने अपने फेसबुक वाॅल पर 05 दिसम्बर को एक सवाल पूछा-‘‘ऐसी कितनी लड़कियां हैं जो भगवान से नरेन्द्र मोदी जैसा पति मिलने का वरदान मांगेंगी।’’ उस फेसबुक स्टेटस पर वयोवृद्ध चिन्तक लेखक, पत्रकार काॅमरेड राजकिशोर की टिप्पणी थी- ‘‘अमित शाह और राजनाथ सिंह की पुत्रियां शायद।’’
इस तरह की टिप्पणी किस मानसिकता की उपज है, यह बताने की आवश्यकता है। लेकिन जोसफ गोएबल्स द्वारा दिए मंत्र की ताकत है, जिसके दम पर काॅमरेड रवीश कुमार जैसे पत्रकार सारा दोष कथित भक्तों पर मढ़ देते हैं। वे नहीं देख पाते कि जिस मानसिकता का आज वे विरोध कर रहे हैं, उससे कोई पक्ष अछूता नहीं है।
वैसे यह जानना आपके लिए दिलचस्प होगा कि कुछ साल पहले तक रवीश कुमार और उनके मित्र गाली-गलौच के पक्ष में लगातार लिख रहे थे। उनका मानना था कि जिस भाषा में समाज संवाद करता है, वह हमारे लिखने की भाषा क्यों ना हो? रवीश कुमार को क्या पता था कि कुछ ही सालों में जिस ‘कह कर लेंगे’ भाषा की वे पैरवी कर रहे हैं, उसी भाषा में समाज उनसे संवाद करने लगेगा और उन्हें पब्लिक डिबेट में आकर कहना पड़ेगा कि ‘‘मेरी मां भारत मां नहीं है तो किसी की मां भारत मां नहीं है।’’
भक्त शब्द जिन लोगों ने गढ़ा है, उनका कब्जा देश की अकादमिक गतिविधियों से लेकर मीडिया तक रहा है। वे इन क्षेत्रों में इतने प्रभावी थे कि जिसके अंदर कथित भक्त तत्व होने का उन्हें अनुमान भी हो जाता था, उसे अपनी विशेषज्ञता के दायरे अर्थात अकादमिक क्षेत्र से लेकर मीडिया तक में दाखिल नहीं होने देते थे और कहने की आजादी के इतने बड़े विरोधी होने के बावजूद वे जोसफ गोएबल्स की प्रेरणा से सड़कों पर कहने की आजादी के लिए संघर्ष करते हुए दिखते थे। अब समय बदला है और सोशल मीडिया ने वास्तव में समाज को कहने की आजादी दी है और ‘भक्त’ शब्द गढ़ने वाले एक्सपोज हुए हैं।