वामपंथ का मूल चरित्र और उसकी विसंगतियाँ (भाग-1)
29 मई 2020
-प्रणय कुमार
भारत में वामपंथियों का इतिहास अपने उद्भव-काल से ही देश और संस्कृति विरोधी रहा है। इसका प्रमुख कारण है भारत की सनातन समन्वयवादी जीवन-दृष्टि और दर्शन जो इनके फलने-फूलने के लिए कभी भी अनुकूल नहीं थे।
वामपंथ जिहादी मानसिकता और विचारधारा से भी अधिक घातक है। ये कुतर्क और अनर्गल प्रलाप के स्वयंभू ठेकेदार हैं। रक्तरंजित क्रांति के नाम पर इसने जितना खून बहाया है, मानवता का जितना गला घोंटा है, उतना शायद ही किसी अन्य विचारधारा ने किया हो। जिन-जिन देशों में वामपंथी शासन है, वहाँ गरीबों-वंचितों, सत्यान्वेषियों-विरोधियों आदि की आवाज़ को किस तरह दबाया-कुचला गया है, इसे सब जानते हैं। यह भी शोध का विषय है कि रूस और चीन पोषित इस विचारधारा ने अपनी विस्तारवादी नीति के अंतर्गत इसके प्रचार-प्रसार के लिए कितने घिनौने हथकंडे अपनाए हैं। वामपंथी शासन वाले देशों में न्यूनतम लोकतांत्रिक अधिकार भी जनसामान्य को नहीं दिए गए, परंतु दूसरे देशों में इनके पिछलग्गू लोकतांत्रिक मूल्यों की दुहाई देकर जनता को भ्रमित करने की कुचेष्टा करते रहते हैं।
भारत में तो वामपंथियों का इतिहास इसके उद्भव-काल से ही देश और संस्कृति विरोधी रहा है। क्योंकि भारत की सनातन समन्वयवादी जीवन-दृष्टि और दर्शन इनके फलने-फूलने के लिए अनुकूल नहीं थी। भारतीय संस्कृति और जीवन-दर्शन में परस्पर विरोधी विचारों में समन्वय और संतुलन साधने की अद्भुत शक्ति रही है। इसलिए इन्हें लगा कि भारतीय संस्कृति और जीवन-दर्शन के प्रभावी चलन के बीच इनकी विचारधारा के बीज प्रस्फुटित नहीं हो सकते हैं, इसलिए इन्होंने बड़ी योजनापूर्वक भारतीय संस्कृति और सनातन जीवन-मूल्यों पर हमले शुरू किए। जब तक राष्ट्रीय राजनीति में नेतृत्व गाँधी-सुभाष जैसे राष्ट्र पुरुषों के हाथ रहा, इनकी एक न चली, न ही जनसामान्य ने इन्हें समर्थन दिया।
गाँधी धर्म से प्रेरणा ग्रहण करते रहे। लेकिन ये लोग कहने को तो धर्म को अफीम मानते रहे, पर छद्म धर्मनिरपेक्षता के नाम पर मुसलमानों के तुष्टिकरण में कभी पीछे नहीं रहे। यहाँ तक कि राष्ट्र की इनकी अवधारणा और जिन्ना व मुस्लिम लीग की अवधारणा में कोई विशेष अंतर नहीं रहा। ये न केवल द्विराष्ट्रवाद अपितु बहुराष्ट्रवाद का समर्थन करते रहे और कालांतर में तो इन्होंने एक क़दम और बढ़ाते हुए इस सोच एवं प्रोपेगैंडा को बल दिया कि भारत अनेक संस्कृतियों और राष्ट्रों का अस्वाभाविक गठजोड़ है।
वामपंथ की राष्ट्र-विरोधी सोच के कारण ही नेताजी सुभाषचन्द्र बोस जैसे प्रखर देशभक्त राष्ट्रनेताओं ने इन्हें कभी कोई विशेष महत्त्व नहीं दिया। इनकी कुत्सित मानसिकता का सबसे बड़ा उदाहरण तो उनका वह घृणित वक्तव्य है जिसमें इन्होंने नेताजी जैसे देशभक्त को ‘तोजो का कुत्ता’ कहकर संबोधित किया था। इन्होंने कभी भगत सिंह को अपना आइकन बताने का अभियान चलाया तो कभी अन्य क्रांतिकारियों की राष्ट्रीय चेतना को वामपंथी प्रेरणा। सच तो यह है कि इन्हें भारत में अपना पाँव जमाने का मौका नेहरू के शासन-काल में मिला। नेहरू का वामपंथी झुकाव किसी से छुपा नहीं था। वे दुर्घटनावश स्वयं को हिंदू यानी भारतीय मानते थे। नेहरू की जड़ें भारत से कम और विदेशों से अधिक जुड़ी रहीं। उनकी परवरिश और शिक्षा-दीक्षा भी पश्चिमी परिवेश में अधिक हुई। भारत की जड़ों और संस्कारों से कटा-छँटा व्यक्ति, जो कि दुर्भाग्य से ताकतवर भी था, इन्हें अपने विचारों के वाहक के रूप में सर्वाधिक उपयुक्त लगा।
नेहरू की इन्हीं कमज़ोरी का फ़ायदा उठाकर इन्होंने सभी अकादमिक-साहित्यिक-सांस्कृतिक या अन्य प्रमुख संस्थाओं के शीर्ष पदों पर अपने लोगों को बिठाना शुरू कर दिया जो उनकी बेटी इंदिरा गांधी के कार्यकाल तक चलता रहा। यह अकारण नहीं है कि अधिकतर वामपंथी नेहरू और इंदिरा की प्रशंसा करते नज़र आते हैं और तो और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने तो इंदिरा द्वारा देश पर आपातकाल थोपे जाने का समर्थन तक किया था। वे तत्कालीन आपातकालीन सरकार के साझीदार थे। यह भी शोध का विषय है कि दो प्रखर राष्ट्रवादी नेताओं सुभाषचन्द्र बोस और लाल बहादुर शास्त्री की मृत्यु इनकी विचारधारा को पोषण देने वाले तात्कालिक देश रूस में ही क्यों हुई?
क्रमश: (अगला भाग वृहस्पतिवार को)
(ये लेखक के निजी विचार हैं)