वामपंथ का मूल चरित्र और उसकी विसंगतियाँ (भाग-2 )

4 जून 2020

प्रणय कुमार

जो चिंतन और मान्यताएँ देश को बाँट और कमज़ोर कर सकती हैं, वामपंथी उसे ही प्रचारित-प्रसारित करते हैं क्योंकि प्रोपेगेंडा और झूठ फ़ैलाने में इन्हें विशेषज्ञता हासिल है। ये इतने कमजोर हैं कि सामान्य-सा वैचारिक प्रतिरोध भी नहीं झेल सकते। हां, हिंसा इनका सुरक्षा-कवच है।

भारत के विकास की गाथा जब भी लिखी जाएगी उसमें सबसे बड़े अवरोधक के रूप में वामपंथ आंदोलन का नाम स्पष्ट अक्षरों में लिखा जाएगा। बंगाल को इन्होंने एक विकसित राज्य से बीमारू राज्य में तब्दील कर दिया। केरल को अपने राजनीतिक विरोधियों की हत्या का अखाड़ा बनाकर रख दिया। त्रिपुरा को मतांतरण की प्रयोगशाला बनाने में इन्होंने कोई कसर बाकी नहीं रखी थी। इन्होंने कभी पर्यावरण तो कभी मानवाधिकार के नाम पर विकास के कार्यक्रमों में केवल अड़ंगे लगाए हैं और आम करदाताओं के पैसे से चलने वाली समयबद्ध योजनाओं को अधर में लटकाया है या उसकी प्रस्तावित लागत में वृद्धि करवाई है।

इनके मजदूर संगठनों ने अनेक फैक्ट्रियों पर ताले जड़वा दिए। रातों-रात लोगों को पलायन करने पर मजबूर कर दिया। भोले आदिवासियों, वनवासियों और वंचितों को बरगलाकर उनके हाथों में बंदूकें थमा दी और फ़िरौती की दुकानें खोल लीं। अपने प्रभाव-क्षेत्र में स्कूल, शिक्षा, चिकित्सा, सेवा के विभिन्न योजनाओं और प्रकल्पों के लाभ से स्थानीय लोगों को वंचित कर दिया! और  ज़रा देखिए कि ये अपनी घृणा का शिकार किसे बनाते हैं – साधारण पुलिसवाले को, सेना के कर्तव्यपरायण जवानों को, शिक्षकों को, निरीह साधु-संतों को…..।

शिक्षा और पाठ्यक्रम में इन्होंने ऐसे-ऐसे वैचारिक प्रयोग किए कि आज तक उससे उबरना कठिन हो रहा है। आधुनिक शिक्षित व्यक्ति अपनी ही परंपराओं, जीवन-मूल्यों, आदर्शों और मान-बिंदुओं से बुरी तरह कटा है। उदासीन है। कुंठित है। वह अपने ही देश और मान्य मान्यताओं के प्रति विद्रोही हो चुका है। इन्होंने उन्हें ऐसे विदेशी रंग में रंग दिया है कि वे आक्रमणकारियों के प्रति गौरव-बोध और अपने प्रति हीनता-ग्रन्थि से भर उठे हैं।

इन लोगों को भारत माता की जय बोलने पर आपत्ति है। वंदे मातरम् बोलने से इनकी धर्मनिरपेक्षता ख़तरे में पड़ जाती है। गेरुआ तो इन्हें ढोंगी-बलात्कारी ही नज़र आता है। सनातन संस्कृति इन्हें मिथ्याडंबरों और अंधविश्वासों का पर्याय जान पड़ता है। शिष्टाचार और विनम्रता इनके लिए ओढ़ा हुआ व्यवहार है। छत्रपति शिवाजी, महाराणा प्रताप, गुरु गोविंद सिंह, वीर सावरकर जैसे महापुरुष इनके लिए अस्पृश्य हैं। राम-कृष्ण मिथक हैं। पूजा-प्रार्थना बाह्याडंबर हैं। देशभक्ति क्षणिक आवेग या उन्माद है। सांस्कृतिक अखण्डता कपोल-कल्पना है। वेद गड़रियों द्वारा गाया जाने वाला गीत है। पुराण गल्प हैं। उपनिषद जटिल दर्शन भर हैं। परंपराएँ रूढ़ियाँ हैं। परिवार शोषण का अड्डा है। सभी धनी अपराधी हैं। भारतीय शौर्य गाथाएँ चारणों और भाटों की गाईं विरुदावलियाँ हैं। सदियों से रचा-बसा बहुसंख्यक समाज इनकी दृष्टि में असली आक्रांता है। देश भिन्न-भिन्न अस्मिताओं का गठजोड़ है। गरीबी भी इनके यहाँ जातियों के साँचे में ढली है। हिंदू दर्शन, कला, स्थापत्य इनके लिए कोई महत्त्व नहीं रखता। उन्हें ये पिछड़ेपन का प्रतीक मानते हैं। जबकि इस्लाम को अमन और भाईचारे का पैगाम। हिंदू स्त्रियाँ इन्हें भयानक शोषण की शिकार नज़र आती हैं पर मुस्लिम स्त्रियाँ स्वतंत्रता की देवियाँ। इनके लिए प्रगतिशीलता मतलब अपने शास्त्रों-पुरखों को गरियाना है वगैरह-वग़ैरह। यानि जो-जो चिंतन और मान्यताएँ देश को बाँट और कमज़ोर कर सकती हैं, ये उसे ही प्रचारित-प्रसारित करेंगे। प्रोपेगेंडा और झूठ फ़ैलाने में इन्हें महारत हासिल है।

ये सामान्य-सा वैचारिक प्रतिरोध नहीं झेल सकते। हिंसा इनका सुरक्षा-कवच है। मेहनतकश लोगों के पसीने से इन्हें बू आती है। उनके साथ खड़े होकर उनकी भाषा में बात करना इन्हें पिछड़ापन लगता है। येन-केन-प्रकारेण सत्ता से चिपककर सुविधाएँ लपक लेने की लोलुप मनोवृत्ति ने इनकी रही-सही धार भी कुंद कर दी है। वर्ग-विहीन समाज की स्थापना एक यूटोपिया है, जिसके आसान शिकार भोले-भाले युवा बनते हैं, जो जीवन की वास्तविकताओं से अनभिज्ञ होते हैं।

(ये लेखक के निजी विचार हैं)

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