विट्ठल भक्त संत नामदेव

विट्ठल भक्त संत नामदेव

विट्ठल भक्त संत नामदेवविट्ठल भक्त संत नामदेव

विट्ठल भक्त संत नामदेव का जन्म ग्राम नरसी बामनी जिला परभनी (महाराष्ट्र) में हुआ था। महाराष्ट्र में नामदेव नाम के छह संत हुए हैं। जिनमें सर्वाधिक लोकप्रिय वे नामदेव हैं, जिन्होंने उत्तर भारत में, विशेष रूप से पंजाब में, भागवत धर्म का प्रचार किया और मराठी तथा हिन्दी में काव्य-रचना की।

संत नामदेव के पिता का नाम दयाशेठ तथा माता का नाम गोणाई था। संत नामदेव के परिवार में व्यापार होता था, किन्तु नामदेव का मन व्यापार में नहीं लगा। मन तो विट्ठल भक्ति में ही लगा रहता था। बीस वर्ष की आयु में संत नामदेव की भेंट संत ज्ञानेश्वर से हो गयी। संत ज्ञानेश्वर स्वयं नामदेव से भेंट करने पण्ढरपुर आये। दोनों ऐसे रमे कि फिर साथ-साथ ही रहने लगे। दोनों ने मिलकर पूरे देश की यात्रा कर डाली।

बिसोवा खेचर को गुरु माना- संत ज्ञानेश्वर ने कहा, नामदेव! अब आप बिसोवा खेचर को अपना गुरु बना लो। संत ज्ञानेश्वर की बात मानकर नामदेव, संत बिसोवा के पास पहुंच गए। संत बिसोवा ने नामदेव से कहा – ‘दुनिया को भगवन्नाम से भर दो।’ इसके पश्चात नामदेव का अहंकार दूर हआ। उन्होंने बिसोवा को अपना गुरु स्वीकार कर लिया।

पंजाब का प्रवास- देशभर की तीर्थयात्रा के पश्चात् संत नामदेव पंजाब आ गए और यहीं भागवत धर्म का प्रचार करते रहे। करताल और एकतारा बजाकर मधुर स्वर में अभंग गाते थे। वे बीस वर्षों तक पंजाब में रहे तथा यहीं इनकी मृत्यु हुई। पंजाब के घुमाण नामक स्थान पर बाबा नामदेव के नाम पर एक गुरुद्वारा आज भी है। इनके शिष्यों को नामदेवियाँ कहा जाता है। श्री गुरुग्रन्थ साहिब में संत नामदेव के साठ शबद (भजन) सम्मिलित किए गए हैं। संत नामदेव का मन भक्तिभाव से भजन करने में ही लगा रहता था। उनके लिए, विट्ठल, शिव, विष्णु, पाण्डुरंग सब एक ही थे। वे मानते थे कि सभी प्राणियों के अन्दर एक ही आत्मा है और जाति का भेद बिल्कुल झूठा है।
सर्वभूतों में हरि यही एक सत्य। सर्व नारायण देखते हरि॥
अर्थात् ‘सभी जीवों में ईश्वर ही सत्य है। प्रभु सभी को देख रहे हैं।’

पंजाब की संत परम्परा में नामदेव प्रथम संत कहे जाते हैं। वे छीपी या दर्जी जाति के थे। एक बार वे पण्ढरपर में प्रभु के दर्शन के लिए गए तो वहाँ के पुजारियों ने उन्हें मन्दिर से बाहर निकाल दिया। संत नामदेव ने दुःखी होकर प्रभु से अपनी व्यथा कही। उनके इस पद को ‘श्री गुरुग्रन्थ साहिब’ में श्रद्धा के साथ संजोया गया है :

हसत खेलत तेरे देहरे आइया। भगति करत नामा पकरि उठाइया॥
हिनड़ी जाति मेरी जादिम राइया॥ छीपे के जनमि काहे कउ आइया॥
लै कमली चलिओ पलटाइ॥ देहुरै पाछै बैठा जाइ।
जिउ जिउ नामा हरि गुण उचरै ।। भगत जनां कउ देहुरा फिरै ।। 6॥ (श्री गुरु ग्रन्थ साहिब, पृ. 1164)

अर्थात ‘हे प्रभु ! मैं तो हँसता-खेलता तेरे मन्दिर में दर्शन करने आया था। परन्तु मुझ भक्ति करते हुए को लोगों ने पकड़ कर उठा दिया। मेरी जाति हीन है, मैंने भला छीपी के रूप में जन्म क्यों लिया है? नामदेव अपना कम्बल लेकर पलट कर मन्दिर से बाहर आ गए और मन्दिर के पिछवाड़े जाकर बैठ गए। जैसे जैसे नामदेव प्रभु के गुणों का उच्चारण करते जाते, वैसे-वैसे भक्तजनों का देहरा (मन्दिर) घूमता जाता।

पण्ढरपुर में विट्ठल मन्दिर के प्रवेश द्वार की प्रथम सीढ़ी आज भी नामदेव जी की पायरी के नाम से जानी जाती है। संत-नामदेव ने पंजाब में श्रीगुरु नानकदेव जी से लगभग दो सौ वर्ष पहले निर्गुण उपासना का प्रतिपादन किया। उत्तर भारत में भक्ति-भाव की संत परम्परा वाले वे आदिपुरुष थे। उनकी दृष्टि बहुत व्यापक थी। वे कहते थे कि सभी प्राणियों के अन्दर एक ही राम हैं :
एकल माटी कुंजर चींटी भाजन हैं बहु नाना रे॥
असथावर जंगम कीट पतंगम घटि घटि रामु समाना रे॥
एकल चिंता राखु अनंता अउर तजह सभ आसा रे॥
प्रणवै नामा भए निहकामा को ठाकुरु को दासा रे॥ (श्री गुरु ग्रन्थसाहिब, पृ. 98

अर्थात् ‘हाथी और चींटी दोनों एक ही मिट्टी के वैसे ही बने हैं जैसे (एक ही मिट्टी के) बर्तन अनेक प्रकार के होते हैं। एक स्थान पर स्थित पेड़ों में, दो पैरों पर चलने वालों में तथा कीड़े-पतंगों के घट-घट में वह प्रभु ही समाया है। उस एक अनन्त प्रभु पर ही आशा लगाए रखो तथा अन्य सभी आशाओं का त्याग कर दो। नामदेव विनती करते हैं कि हे प्रभु! अब मैं निष्काम हो गया हूँ, इसलिए अब मेरे लिए न तो कोई मालिक है और न कोई दास है अर्थात् स्वामी और दास अब एक रूप हो गए हैं। संत नामदेव जाति-पाँति का पूर्णतया निषेध करते हैं तथा भक्तिभाव का जागरण करते हुए राम का नाम भजने को कहते हैं :

कहा करउ जाति कहा करउ पाति॥ राम को नामु जपउ दिन राति॥
रांगनि रांगउ सीवनि सीवउ ॥ राम नाम बिनु घरीअ न जीवउ॥ (श्री गुरु ग्रन्थसाहिब, पृ. 485)

अर्थात् ‘मुझे अब किसी ऊँची-नीची जाति-पांति की चिंता नहीं रही क्योंकि, अब मैं दिन-रात परमात्मा का सुमिरन करता हूँ। मैं रंगाई और सिलाई का काम करता हूँ, परन्तु अब प्रभु-नाम के बिना घड़ी भर भी जीवित नहीं रह सकता।’

संत नामदेव, सामाजिक कुरीतियों एवं जातिगत भेदभाव के विरुद्ध थे। प्रभु स्मरण को ही वे जीवन का आधार मानते थे। राम का स्नेह ही उनके लिए सब कुछ था। वे लिखते हैं ‘अरे मन! क्यों भटक रहा है?’:
काहे रे मन भूला फिरई।
चेतनि राम चरन चित धरई॥टेक॥
नरहरि नरहरि जपि रे जियरा। अवधि काल दिन आवै नियरा।
पुत्र कलित्र (स्त्री) धन चित्त विसासा। छाड़ि मनां रे झूठी आसा॥ (संत साहित्य की समझ, पृ० 31)

अपने काव्य में संत नामदेव, भक्तों को भाई कह कर सम्बोधित करते हैं और राम नाम की महिमा भी बतलाते हैं। राम नाम के समक्ष सारे जप-तप, यज्ञ, हवन, जोग, तीरथ, व्रत आदि तुच्छ हैं। राम नाम से इनकी तुलना नहीं की जा सकती:
भइया कोई तुलै रे रामाँय नाम।
जोग यज्ञ तप होम नेम व्रत। ए सब कौंने काम।।

संत नामदेव को कुछ लोग निर्गुण उपासक मानते हैं, किन्तु उनका तीर्थों में विश्वास भी कम नहीं है।
त्रिवेणी पिराग करौ मन मंजन । सेवौ राजा राम निरंजन ।|

संत नामदेव प्रारम्भ में सगुण-भक्ति वाले संत कहे जाते थे, किन्तु आगे चलकर सगुण एवं निर्गुण के मध्य की धारा प्रवाहित करने वाले संत के रूप में वे स्थापित हो गए। श्री कृष्ण के सुन्दर सगुण स्वरूप का वर्णन वे अपने भजन में करते हैं:
धनि-धनि ओ राम बेन बाजै। मधुर मधर धनि अनहत गाजै ।।
धनि-धनि मेघा रोमावली।। धनि-धनि क्रिसन ओढ़ें कांबली॥
धनि-धनि तू माता देवकी। जिह ग्रिह रमईआ कवलापती॥
धनि-धनि बनखण्ड बिंद्राबना। जह खेलै सी नाराइना॥
बेनु बजावै गोधनु चरै। नामे का सुआमी आनन्द करै। (श्री गुरु ग्रन्थसाहिब,पृ. 98)
अर्थात् ‘नामदेव कृष्ण के द्वारा मधुर स्वर से बजने वाली वंशी धन्य है। उससे प्रकट होने वाली अनहद धुन भी मधुर है। वह भेड़ भी धन्य है, जिसकी रोमावली (बालों) से कमली (कम्बल) बनी है, जिसे कृष्ण ओढ़े हुए हैं। देवकी माता भी धन्य है, जिनके घर स्वयं कमलापति (भगवान् विष्णु) अवतरित हुए हैं। वृन्दावन के वे जंगल भी धन्य हैं, जहाँ भगवान् श्री कृष्ण (नारायण) खेले हैं। संत नामदेव का ईश्वर वंशी बजाता है, गाय चराता है और आनन्द करता है।’

आगे चल कर श्री गुरु नानकदेव ने पंजाब की धरती पर जो उपदेश दिया, उसका महत्वपूर्ण अंश संत नामदेव के विचार-दर्शन से ही आता है। श्री गुरु नानक देव से दो सौ वर्ष पूर्व, संत नामदेव ने पंजाब में सिक्ख-गुरुओं के भक्ति-जागरण हेतु सामाजिक समन्वय की व्यापक भूमिका तैयार कर दी थी। आज भी देश भर में उनके लाखों अनुयायी हैं। वे अपने नाम के आगे नामदेव लगाते हैं। संत नामदेव ने मराठी में अभंग तथा हिन्दी में पदों की रचना की। संत कबीर तथा संत रैदास आदि सभी ने इनकी महिमा का गान किया है। भक्त रैदास कहते हैं:

नामदेव कबीरु तिलोचनु सधना सैनु तरे।
कहि रविदासु सुनहु रे संतहु हरि जीउ ते सभै सरै॥ (श्री गुरुग्रन्थ साहिब, पृ० 1106)

अर्थात नामदेव, कबीर, त्रिलोचन, साधना आदि सभी पार उतर गए हैं। संत जनो ध्यान से सुन लो कि वह प्रभु सब कुछ कर सकता है।

संत नामदेव उस ब्रह्मा की साधना में लगे रहे जो घट – घट वासी है। देश भ्रमण करते हुए पंजाब में घुमाण गाँव में उनकी मृत्यु हुई।

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