विनाशपर्व – अंग्रेजों ने नष्ट की भारत की उन्नत चिकित्सा व्यवस्था / 2

विनाशपर्व - अंग्रेजों ने नष्ट की भारत की उन्नत चिकित्सा व्यवस्था / 2

प्रशांत पोळ  

विनाशपर्व - अंग्रेजों ने नष्ट की भारत की उन्नत चिकित्सा व्यवस्था / 2

पिछले एक वर्ष से पूरा विश्वकोरोनाकी महामारी से जूझ रहा है। इस महामारी पर वैक्सीन बनाना कितना कठिन है, यह हम सब देख रहे हैं। पश्चिमी जगत ने तो अभी 200 वर्ष पहले ही महामारी पर वैक्सीन का इलाज खोजा है। किन्तु हमारी भारतीय चिकित्सा पद्धति में यह सैकड़ों वर्षों से है। अंग्रेज़ों के यहां आने से पहले, हम ऐसी अनेक महामारियों का सफलता पूर्वक सामना कर चुके हैं। 

भारतीय पुराणों मेंशीतला माताका अलग महत्व है। स्कंद पुराण में शीतला माता का उल्लेख है। माता के अर्चना का का स्तोत्र, ‘शीतलाष्टकके रूप में दिया गया है। इस में का एक मंत्र है – 

_वन्देऽहं शीतलांदेवीं_ _रासभस्थांदिगम्बराम्I_

_मार्जनीकलशोपेतां_ _सूर्पालंकृतमस्तकाम्II_

इसमें कहा गया है, कि देवी का वाहन गदर्भ है और ये दोनों हाथों में कलश, सूप, मार्जन (झाड़ू) तथा नीम के पत्ते धारण करती हैं, अर्थात इस वंदना मंत्र से यह पूर्णतः स्पष्ट हो जाता है कि ये स्वच्छता की अधिष्ठात्री देवी हैं। 

हजारों वर्षों से भारतीय जनमानस की धारणा है, कि यह महामारी को नष्ट करने वाली देवी हैं। प्राचीन काल से, हमारे समाज के पुरोधाओं ने इस देवी के व्रत को, महामारी से निपटने के लिए टीकाकरण के रूप में प्रस्थापित किया था। संसर्गजन्य रोग, महामारी आदि से बचने का एक पूरा पारतंत्र (इको सिस्टम) ‘शीतला माता व्रतके रूप में निर्मित किया गया था। गांवगांव शीतला माता के मंदिर स्थापित किए गए और महामारियों से बचने के लिए इसे देवी के व्रत से जोड़कर, जिसमें नीम के पत्ते से स्नान करने से लेकर सब कुछ है, एक पूरी व्यवस्था बनाई गई।

दसवीं शताब्दी के आयुर्वेद केसाक्तीय ग्रंथममें इस टीकाकरण विधि का उल्लेख है। खुद अंग्रेजों ने ही इस संपूर्ण पारतंत्र की खूबियों का वर्णन किया है। प्रख्यात गांधीवादी चिंतक, धरमपाल जी ने अपनी ’18 वीं शताब्दी में भारत में विज्ञान एवं तंत्रज्ञानपुस्तक में अंग्रेजों के दो उद्धरण दिये हैं। इन में से पहला है, ‘आर. कोल्ट का ओलिवर कोल्ट को, 10 फरवरी 1731 को लिखा पत्र इस पत्र में कोल्ट महाशय ने बंगाल में चेचक के टीकाकरण का विवरण दिया है। 

दूसरा उल्लेख एक विस्तृत भाषण का है। यह भाषण डॉ. जॉन झेड. हालवेल ने, लंदन के कॉलेज ऑफ फिजीशियन के पदाधिकारी और सदस्यों के सम्मुख, वर्ष 1767 में दिया है। भाषण का विषय है, ‘भारत में चेचक की परंपरागत टीकाकरण पद्धति।

_(संयोग से डॉ. जॉन हॉलवेल 1756 की कुप्रसिद्धब्लैक होल घटनामें जीवित अत्यंत कम भाग्यशाली लोगों में से एक थे। प्लासी के युद्ध के एक वर्ष पहले, अर्थात 1756 में बंगाल के नवाब सिराजुद्दौल्ला ने कलकत्ता में अंग्रेजों की किलेनुमा गढ़ी पर धावा बोल दिया था और 146 अंग्रेज़ बंदियों को, जिनमें स्त्रियाँ और बच्चे भी शामिल थे, एक 18 फीट X 14 फीट के कमरे में बंद कर दिया। 20 जून, 1756 की रात को उन्हें बंद किया और 23 जून की प्रातः जब कोठरी को खोला गया, तब उस में मात्र 23 व्यक्ति ही जीवित बचे थे। इन में से जॉन हॉलवेल भी एक थे। हालांकि जे. एच. लिटल जैसे आधुनिक इतिहासकारों ने इस घटना को झूठ और मनगढ़ंत बताया है। उनके अनुसार, अगले वर्ष, 1757 में अंग्रेजों ने, बंगाल के नवाब के विरोध में आक्रामक युद्ध छेडने के लिए इस झूठी घटना का कारण दिया)_  

इसके अलावा भी इस परंपरागत, और इसीलिए प्रभावी, टीकाकरण पद्धति पर अनेकों ने पुस्तकें लिखी हैं। इनमें डेविड अर्नोल्ड कीकोलोनाइजिंग बॉडीनामक पुस्तक प्रमुख है अर्थात यह स्पष्ट है कि विश्व में टीकाकरण की कल्पना और पद्धति, हम भारतियों ने ही हजारों वर्ष पहले खोज निकाली। उस पद्धति को पौराणिक श्रद्धा से जोड़ा, जिसके करण वह सहज स्वीकार्य और प्रभावी बन गई।

किन्तु दुर्भाग्य से टीकाकरण (वैक्सीनेशन) का श्रेय दिया जाता है एडवर्ड जेनर को, जिन्होंने बहुत बाद, अर्थात वर्ष 1796 में टीके (वैक्सीन) की खोज की।  

श्रीमती लीना मेहंदले वरिष्ठ आई एस एस अफसर रह चुकी हैं, महाराष्ट्र सरकार मेंअतिरिक्त प्रमुख सचिवइस पद से उन्होंने सेवा निवृत्ति ली थी। बाद में वे गोवा में सूचना आयुक्त रहीं और सेंट्रल ट्रिब्यूनल में सदस्य भी रही हैं। उन्होंने एक सुंदर लेख लिखा है, जिसमें चेचक जैसी महामारी से लड़ने की हमारी व्यवस्था क्या थी और अंग्रेजों ने उसे कैसे ध्वस्त किया, यह विस्तार से बताया गया है।  

उन्हीं की लेखनी से

सन्‌ 1802 में इंग्लैंड के श्री एडवर्ड जेनर (Edward Jenner)  ने चेचक के लिए वैक्सीनेशन खोजा। यह गाय पर आए चेचक के दानों से बनाया जाता था। लेकिन इससे दो सौ वर्ष पहले भी भारत में बच्चों पर आए चेचक के दानों से वैक्सीन बनाकर दूसरे बच्चों का बचाव करने की विधि थी। इस संदर्भ में ब्रिटेन के ही प्रोफे. ओर्नोल्ड ने काफी काम किया है। 

कुछ वर्षों पहले मुझे पुणे से डॉ. देवधर जी का फोन आया, यह बताने के लिए कि वे American Journal for Health Sciences के लिए एक पुस्तक की समीक्षा कर रहे हैं। पुस्तक थी लंदन यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर आरनॉल्ड लिखित Colonizing Body, पुस्तक का विषय है, प्लासी की लड़ाई अर्थात्‌ 1756 से लेकर भारत की स्वतन्त्रता, अर्थात 1947 तक, अपने शासन काल में अंग्रेजी शासकों ने भारत में प्रचलित कतिपय महामारियों को रोकने के लिए क्याक्या किया। इसे लिखने के लिए ओर्नोल्ड ने अंग्रेजी अफसरों के द्वारा दो सौ वर्षों के दौरान लिखे गये कई सौ डिस्ट्रिक्ट गझेटियर और सरकारी फाइलों की पढ़ाई की और जो जो पढ़ा उसे ईमानदारी से इस पुस्तक में लिखा। पुस्तक के तीन अध्यायों में चेचक, प्लेग और कॉलरा जैसी तीन महामारियों के विषय में विस्तार से लिखा गया है। अन्य अध्याय विश्लेषणात्मक हैं।

सत्रहवीं, अठारवीं और उन्नीसवीं सदी में, या शायद उससे कुछ सदियों पहले भी, चेचक की महामारी से बचने के लिए हमारे समाज में एक खास व्यवस्था थी। उसका विवरण देते हुए ओर्नोल्ड ने काशी और बंगाल की सामाजिक व्यवस्थाओं के विषय में अधिक जानकारी दी है। चेचक को शीतला माता के नाम से जाना जाता था और यह माना जाता था कि शीतला माता का प्रकोप होने से बीमारी होती है। लेकिन इससे जूझने के लिए जो समाज व्यवस्था बनाई गई थी उसमें धार्मिक भावनाओं का अच्छा खासा उपयोग किया गया था। शीतला माता को प्रेम और सम्मान से आमंत्रित किया जाता था, उसकी पूजा का विधि विधान भी किया गया था। चैत्र के महीने में शीतला उत्सव भी मनाया जाता था। यही महीना है जब नई कोंपलें और फूल खिलते हैं, और यही महीना है जब शीतला बीमारी अर्थात्‌ चेचक का प्रकोप शुरू होने लगता है। शीतला माता को बंगालमें बसन्तीचण्डी के नाम से भी जाना जाता है।

इन्हीं दिनों काशी के गुरुकुलों से गुरु का आशीर्वाद लेकर शिष्य निकलते थे और अपनेअपने सौंपे गये गाँवों में इस पूजा विधान के लिये जाते थे। चारपांच शिष्यों की टोली बनाकर उन्हें तीसचालीस गांव सौंपे जाते थे। गुरु के आशीर्वाद के साथसाथ वे अन्य कुछ वस्तुएं भी ले जाते थेचाँदी या लोहे के धारदार ब्लेड और सुईयाँ, और रुई के फाहों में लिपटी हुईकोई वस्तु

इन शिष्यों का गांव में अच्छा सम्मान होता था और उनकी बातें ध्यान से सुनी मानी जाती थीं। वे तीन से पन्द्रह वर्ष की आयु के उन सभी बच्चों और बच्चियों को इकट्ठा करते थे, जिन्हें तब तक शीतला माता का आशीर्वाद मिला हो (यानि चेचक की बीमारी हुई हो) उनके हाथ में अपने ब्लेड से धीमे धीमे कुरेदकर रक्त की मात्र एकाध बूंद निकलने जितनी एक छोटी सी जख्म करते थे। फिर रुई का फाहा खोलकर उसमें लिपटी वस्तु को जख्म पर रगड़ते थे। थोड़ी ही देर में दर्द खत्म होने पर बच्चा खेलने कूदने को तैयार हो जाता, फिर उन बच्चों पर निगरानी रखी जाती। उनके माँबाप के साथ अलग मीटिंग करके उन्हें समझाया जाता कि बच्चे के शरीर में शीतला माता आने वाली है, उनकी आवभगत के लिये बच्चे को क्या क्या खिलाया जाये। यह वास्तव में पथ्य विचार के आधार पर तय किया जाता होगा।

एक दो दिनों में बच्चों को चेचक के दाने निकलते थे और थोड़ा बुखार भी चढ़ता था। इस समय बच्चे को प्यार से रखा जाता और इच्छाएं पूरी की जातीं। ब्राम्हण शिष्यों की जिम्मेदारी होती थी कि वह पूजा पाठ करता रहे ताकि जो देवी आशीर्वाद के रूप में पधारी हैं, वह प्रकोप में बदल पाये। दाने बड़े होकर पकते थे और फिर सूख जाते थेयह सारा चक्र आठदस दिनों में सम्पन्न होता था। फिर हर बच्चे को नीम के पत्तों से नहलाकर उसकी पूजा की जाती और उसे मिष्ठान दिये जाते। इस प्रकार दसेक दिनों के निवास के बाद शीतला माता उस बच्चे के शरीर से विदा होती थीं और बच्चे कोआशीर्वादमिल जाता कि जीवन पर्यंत उस पर शीतला का प्रकोप कभी नहीं होगा।

उन्हीं आठदस दिनों में ब्राम्हण शिष्य चेचक के दानों की परीक्षा करके उनमें से कुछ मोटेमोटे, पके दाने चुनता था। उन्हें सुई चुभाकर फोड़ता था और निकलने वाले मवाद को साफ रुई के छोटेछोटे फाहों में भरकर रख लेता था। बाद में काशी जाने पर ऐसे सारे फाहे गुरु के पास जमा करवाये जाते। वे अगले वर्ष काम में लाये जाते थे।

यह सारा वर्णन पढ़कर मैं दंग रह गई। थोड़े शब्दों में कहा जाये तो यह सारापल्स इम्युनाइजेशन प्रोग्रामथा जो बगैर अस्पतालों के एक सामाजिक व्यवस्था के रूप में चलाया जा रहा था। ब्राह्मणों के द्वारा किये जाने वाले विधि विधान या पथ्य एक तरह से कण्ट्रोल के ही साधन थे, हालांकि पुस्तक में सारा ब्यौरा बंगाल काशी का है, लेकिन मैं जानती हूं कि महाराष्ट्र में, और देश के अन्य कई भागों मेंशीतला सप्तमीका व्रत मनाया जाता है और हर गांव के छोर पर कहीं एक शीतला माता का मंदिर भी होता है।

इससे अधिक चौंकाने वाली दो बातें इस अध्याय में लेखक अर्नोल्ड ने आगे लिखी हैं।

अंग्रेज जब यहाँ आये तो अंग्रेज अफसरों और सोल्जरों को देसी बीमारियों से बचाये रखने के लिए अलग से कैण्टोनमेंट बने जो शहर से थोड़ी दूर हटकर थे। लेकिन यदि महामारी फैली तो अलग कैण्टोंमेंट में रहने वाले सोल्जरों को भी खतरा होगा। अतः महामारी के साथ सख्ती से निपटने की नीति थी। महामारी के मरीजों को बस्तियों से अलग अस्पतालों में रखना पड़ता था। उन्हें वह दवाईयाँ देनी पड़ती थीं जो अंग्रेजी फार्मोकोपिया में लिखी हैं, क्योंकि देसी लोगोंकी दवाईयों का ज्ञान तो अंग्रेजों को था नहीं, और उन पर विश्र्वास भी नहीं था। अंग्रेजों के लिये यह भी जरूरी था कि कैन्टों के चारों ओर भी एक बफर जोन होअर्थात्‌ वहाँ रहने वाले भारतीय (प्रायः नौकर चाकर, धोबी, कर्मचारी इत्यादि) विदेशी टीके द्वारा संरक्षित हों।

वैसे देखा जाये तो ब्रिटानिका इनसाइक्लोपीडिया में जिक्र है कि अठारवीं सदी के आरंभ में चेचक से बचने के लिए टीका लगवाने की एक प्रथा भारत से आरंभ कर अफगानिस्तान तुर्किस्तान के रास्ते यूरोप मेंखास कर इंग्लैंड में पहुँची थी। जिसे Variolation का नाम दिया गया था। अक्सर डॉक्टर लोग इसे ढकोसला मानते थे फिर भी ऐसे कई गणमान्य लोग इसके प्रचार में जुटे थे जिन्हें इंग्लैंड के समाज में अच्छा सम्मान प्राप्त था। सन्‌ 1767 में हॉलवेल ने एक विस्तृत विवरण लिखकर इंग्लैण्ड की जनताको Variolation के संबंध में आश्वस्त कराने का प्रयास किया। स्मरण रहे कि तब तकजेनर विधिजैसी कोई बात नही थी।

क्रमश:

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