विपक्षी एकता के सूत्रधार, अपराध और भ्रष्टाचार

विपक्षी एकता के सूत्रधार, अपराध और भ्रष्टाचार

बलबीर पुंज

विपक्षी एकता के सूत्रधार, अपराध और भ्रष्टाचार विपक्षी एकता के सूत्रधार, अपराध और भ्रष्टाचार 

अधिकांश विपक्षी दल वर्षों से एक मंच पर इकट्ठा नहीं हो पा रहे थे। इस ‘उलझन भरे’ कार्य को उत्तरप्रदेश में 101 आपराधिक मामलों में नामज़द माफिया अतीक-अशरफ की हत्या, उसके अन्य गुर्गों की धर-पकड़ और पुलिसिया मुठभेड़ में उनकी मौत के साथ मोदी सरकार की भ्रष्टाचार विरोधी अभियानों ने संभव कर दिया है। जहां विपक्षी दलों ने एक स्वर में दुर्दांत अतीक-अशरफ-असद की मौत और उनके काले साम्राज्य के विरुद्ध हो रही कार्रवाई को राजनीति से प्रेरित बता दिया, वही केंद्रीय जांच एजेंसियों की भ्रष्टाचार-रोधी कार्रवाइयों को रोकने हेतु देश के 14 विपक्षी दल बीते दिनों सर्वोच्च न्यायालय पहुंच गए। यह अलग बात है कि अदालत ने उनकी याचिका को सुनने से इनकार कर दिया।

सोचिए, जो माफिया अपराध की दुनिया में सक्रिय रहते हुए पांच बार विधायक और एक बार लोकसभा सांसद बना, जिसके विरुद्ध पिछले चार दशकों में हत्या, फिरौती, अपहरण जैसे गंभीर आपराधिक मामले दर्ज थे और 28 मार्च 2023 से पहले उसे किसी भी एक अपराध में सजा नहीं मिल पाई थी— उसकी पुलिस हिरासत में हत्या ने भिन्न-भिन्न स्वरों में बोलने वाले मोदी-योगी विरोधियों को एकजुट कर दिया और इसमें भी उन्हें केवल अपराधियों का मजहब याद आया। कितनी विडंबना है कि कई दल आज भी मुस्लिम समाज की पहचान को अतीक-अशरफ-असद जैसे अपराधियों से जोड़कर देखते हैं। यही मानसिकता स्वतंत्र भारत के लोकतंत्र और ‘सेकुलरवाद’ की सबसे बड़ी त्रासदी है, जिसमें परिवारवाद प्रेरित राजनीति और उसमें दीमक रूपी भ्रष्टाचार का संगठित उपक्रम स्थिति को और अधिक विकराल बना रहा है।

जो विरोधी दल अपनी बैठकों को ‘ऐतिहासिक’ बता रहे हैं, उन्हें एकजुट करने में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रति उनका अंधविरोध और भ्रष्टाचार-रोधी कार्रवाइयों ने भी निर्णायक भूमिका निभाई है। ऐसे ढेरों उदाहरणों में से एक— दिल्ली का आबकारी घोटाला है। जो कांग्रेस लगभग एक माह पहले तक इस मामले में केजरीवाल सरकार के विरुद्ध आरोपों को गंभीर बताकर इसकी जांच कराने की मांग उठा रही थी— उसने 18 अप्रैल को अपना सुर बदलते हुए इसे विपक्षी दलों के विरुद्ध जांच एजेंसियों के ‘दुरुपयोग’ का मामला बता दिया। क्या इस राजनीतिक जुगलबंदी से ‘चोर चोर मौसेरे भाई’ मुहावरा चरितार्थ नहीं होता है। आज अधिकांश विरोधी दलों का दामन भ्रष्टाचार के आरोपों से दागदार है। उदाहरणस्वरूप, तृणमूल कांग्रेस का शिक्षक भर्ती सहित सारधा-रोजवैली चिटफंड आदि घोटालों में घिरा होना, राष्ट्रीय जनता दल के शीर्ष नेतृत्व पर बेनामी संपत्ति, रेलवे परियोजना आवंटन में वित्तीय गड़बड़ी और आईआरसीटीसी घोटाले का आरोप, और राहुल-सोनिया पर हजारों करोड़ का नेशनल हेराल्ड का वित्तीय कदाचार आदि के मामले शामिल हैं। राहुल-सोनिया जमानत पर बाहर हैं। गत दिनों ही दिल्ली आबकारी घोटाला मामले में मुख्यमंत्री केजरीवाल से सीबीआई ने पूछताछ की है, उनके दो पूर्व मंत्री जेल में बंद हैं।

अतीक प्रकरण और भ्रष्टाचार के विरुद्ध जांच ने अधिकांश विरोधी दलों को एक मंच पर तो ला दिया, किंतु उनमें राजनीतिक सामंजस्य कितना है और विभिन्न मुद्दों पर उनकी साझा समझ कितनी है? यह दो मामलों से स्पष्ट है। नेहरू-गांधी वंश के वंशज राहुल गांधी, प्रधानमंत्री मोदी को भ्रष्ट बताने के लिए बार-बार अडानी-अंबानी जुमलों का उपयोग कर रहे हैं। इसके साथ, राहुल अपने वैचारिक विरोधाभास के कारण देश-विदेश में सच्चे देशभक्त वीर सावरकर को ‘ब्रिटिश एजेंट’ बताकर स्वतंत्रता आंदोलन में उनके अभूतपूर्व योगदान को तिरस्कृत भी कर चुके हैं। राहुल की यह स्थिति तब है, जब उनकी दिवंगत दादी श्रीमती इंदिरा गांधी ने प्रधानमंत्री रहते हुए वीर सावरकर को ‘भारत का महान सपूत’ तक बताया था।

राहुल द्वारा प्रदत्त सावरकर-अडाणी संबंधित विवेकहीन उपक्रम को, मोदी-विरोधी गठबंधन के प्रमुख सूत्रधार और राकंपा अध्यक्ष शरद पवार ध्वस्त कर चुके हैं। पवार ने जहां अडाणी-विरोधी अभियान और इसे लेकर संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) की जांच करने संबंधित कांग्रेस आदि अन्य विपक्षी दलों की मांग को बेतुका बता दिया, तो उन्होंने राहुल को सावरकर के विरुद्ध अपनी हीनभावना को छोड़ने का परामर्श दे दिया। यही नहीं, कांग्रेस के अन्य सहयोगी उद्धव ठाकरे भी राहुल को हिंदुत्व विचारक विनायक सावरकर का अपमान नहीं करने पर चेता चुके हैं।

यदि अगले लोकसभा चुनाव से पहले कोई भाजपा विरोधी बड़ा गठबंधन मूर्त रूप ले भी लेता है, तो उसका प्रधानमंत्री पद का प्रमुख दावेदार कौन होगा? उस गठबंधन का संयोजन कौन करेगा? उनकी वैकल्पिक नीति क्या होगी? इस पर अकूत संशय है। विरोधियों की दृष्टि में मोदी सरकार ने ऐसा क्या नहीं किया है, जो उसे बीते 9 वर्षों में करना चाहिए था? या मोदी सरकार ने ऐसा क्या कर दिया है, जिसे ‘पूर्वस्थिति में लौटाना’ उनके लिए अत्यंत आवश्यक हो गया है? क्या यह सत्य नहीं कि मई 2014 के बाद देश आर्थिक, सामरिक और कूटनीतिक मोर्चों पर वांछनीय परिवर्तन के साथ सांस्कृतिक पुनरुद्धार (श्रीराम मंदिर के पुनर्निर्माण कार्य सहित) को अनुभव कर रहा है? अंतरराष्ट्रीय योग दिवस के रूप में विश्व में भारतीय सनातन संस्कृति का प्रचार, सफल ‘वैक्सीन मैत्री’ अभियान और रूस-यूक्रेन युद्ध रोकने हेतु भारत के प्रयासों को वैश्विक स्वीकार्यता मिलना आदि— इसके प्रमाण हैं।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का राजनीतिक विमर्श मुख्यत: चार बिंदुओं पर आधारित है। समेकित विकास पर बल, भ्रष्टाचार के खिलाफ आक्रमकता और सार्वजनिक जीवन में ईमानदारी पर जोर देना, विशुद्ध भारतीय संस्कृति प्रेरित राष्ट्रवाद को आगे बढ़ाना और करोड़ों गरीबों-वंचितों को बिना किसी पंथ, लिंग, जाति या मजहबी भेदभाव के ‘लीक-प्रूफ’ लाभ पहुंचाना है। भाजपा ने 2024 के लोकसभा चुनाव में यथास्थितिवादियों और राजनीतिक परिवारवादियों के खिलाफ अपनी लड़ाई को जारी रखने का आह्वान किया है, जो उसे 2014 और 2019 में मिले प्रचंड जनादेश के अनुरूप भी है।

भाजपा अपनी कार्ययोजनाओं के प्रति इसलिए भी आश्वस्त है, क्योंकि इन प्रतिबद्धताओं को पूरा करने हेतु उसके पास राजनीतिक इच्छाशक्ति से परिपूर्ण, साहसिक और निर्णायक नेतृत्व के साथ व्यापक जन-समर्थन भी है। इस पृष्ठभूमि में क्या विरोधी दल यह दावा करने का साहस कर सकते है कि वे सत्ता में लौटने में बीते एक दशक में किए गए सुधार-कार्यों (धारा 370-35ए के संवैधानिक क्षरण सहित) को पलट देंगे?

(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार, पूर्व राज्यसभा सांसद और भारतीय जनता पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय-उपाध्यक्ष हैं)

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