विवेक और प्रेम का साथ

विवेक और प्रेम का साथ

कमलेश कमल

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जुड़ने की मानवीय लालसा संबंधों के बनने का कारण है। इस जुड़ाव अथवा संबद्धता से सुख मिले, यह कौन नहीं चाहता? विचारणीय तो यह है कि इस सार्वभौम इच्छा के उपरांत भी क्या संबंध सुख देते हैं? निर्भ्रान्त सत्य यह है कि संबंध सुख नहीं देते; न ही दुःख देते हैं। हाँ, हम इनसे सुख अथवा दुःख पाते हैं, यह पृथक् बात है।

वस्तुतः, हमारे संबंध वैसे नहीं होते, जैसे होने की हम कामना करते हैं, ये वैसे होते हैं– जैसे के हम योग्य होते हैं। उदाहरण के लिए, एक व्यक्ति बैंक में एक हज़ार रुपया जमा कर अगर यह कामना करे कि यह एक लाख अथवा दस लाख हो जाए; तो इसे दिवा-स्वप्न कहते हैं। पुनश्च, किसी संबंध में थोड़ा निवेश कर बहुत की कामना करना क्या दिवा-स्वप्न नहीं है? वैसे, यह भी संभव है कि कोई व्यक्ति भावनात्मक बैंक की जगह किसी भावनात्मक-लॉटरी में निवेश कर दे और ‘ड्रॉ’ न निकलने पर भाग्य को अथवा लॉटरी को कोसने लगे। वैसे यह देखा जाता है कि लोग लॉटरी में कम निवेश कर अधिक मिलने की आशा करते हैं; नहीं मिलने पर दुःखी होते हैं और मिल जाने पर उसकी कद्र नहीं करते। ऐसे में, कुछ ही समय में सारा पैसा हाथ से निकल जाता है। यही हाल भावनात्मक लॉटरी का भी होता है।

कहने का आशय बस इतना कि अशांत चित्त से किसी संबंध में होना और उससे दिव्य और उदात्त प्रेम की कामना करना ‘भावनात्मक-बचकानापन’ है। ऐसे लोग अच्छे से अच्छे संबंधों में खटास ले आने की कला में माहिर अथवा पारंगत हो जाते हैं और कदाचित् यह संबंध पति-पत्नी का हो; तो नित्य का महाभारत घटित होने लगता है। ऐसे लोगों के बारे में ग्रीक नाटककार युरिपीडिस ने सटीक लिखा है–”शादी करें और जीवन अच्छा अथवा शुभमय जा सकता है; लेकिन जब शादी असफल हो, तब जो शादी करते हैं, वे घर में ही जेल की तरह रहते हैं।”

अगर बार-बार अथवा हर बार किसी को संबंध में दुःख मिले; तो उसे इतना तो समझ ही जाना चाहिए कि  मुश्किल संबंध में अथवा दूसरों में नहीं, अपितु स्वयं के व्यक्तित्व अथवा दृष्टिकोण में है। देखा गया है कि भावुक व्यक्तियों के लिए यह मानना कि किसी संबंध में मिलने वाले दुःख के लिए वे ही ज़िम्मेदार हैं, अत्यंत कठिन होता है, दुस्सह होता है। ऐसे, अपनी ग़लती मानना इसलिए भी कष्टप्रद होता है, क्योंकि यह अपरिमित अपराध बोध उत्पन्न करता है। इसकी तुलना में, प्रेम में प्राप्त असफलता का ठीकरा नियति अथवा किसी अन्य पर फोड़ना एक आसान विकल्प होता है और यह तो एक तथ्य है कि मनुष्य आसान विकल्प ही चुनता है। पुनश्च, यह भी है कि आप दूसरे को जो देंगे, वही आपको भी मिलेगा। यदि आप जिससे संबंध में हैं अथवा संबंधित हैं, उसे दुःख देंगे; तो उससे भी आपको अंततोगत्वा दुःख ही मिलेगा।

प्रेम और घृणा के इस अंतर्सम्बन्ध पर एक मनोवैज्ञानिक ने एक महत्त्वपूर्ण और श्रेयात्मक शोध किया। उसने किसी विश्वविद्यालय की एक कक्षा के कुछ विद्यार्थियों से कहा कि कक्षा के बाक़ी विद्यार्थियों में से वे जिन्हें भी घृणित पाते हों, तीस सेकेंड के अंदर उसका नाम लिखें। सभी विद्यार्थियों ने जो लिखा, वह एक-दूसरे को नहीं दिखाया गया। एक विद्यार्थी ने किसी को भी घृणित नहीं पाया; तो एक अन्य विद्यार्थी ने तेरह विद्यार्थियों के नाम लिखे, जिन्हें वह घृणित मानता था। शोध के निष्कर्ष में एक अहम बात यह आई कि जिस विद्यार्थी ने किसी को घृणित नहीं पाया, उसे भी किसी ने घृणित नहीं पाया– एक ने भी उसका नाम नहीं लिखा। दूसरी तरफ़, जिस विद्यार्थी ने तेरह अन्य को घृणित पाया, सबसे ज़्यादा विद्यार्थियों ने उसे ही घृणित पाया। इससे यह निष्कर्ष निकला कि हम लोगों को जैसा समझते हैं, वे भी हमें वैसा ही समझते हैं। हमें यदि दुःख मिल रहा है; तो यह अवश्य विचार करना चाहिए कि हमसे भी लोगों को दुःख ही मिल रहा होगा।

जब कोई व्यक्ति अहंकार से परिचालित होता है; तो सबसे पहले उसके निकट संबंधियों को इसका पता चल जाता है। अहंकार से ग्रस्त होने पर व्यक्ति सत्य और ख़ुशी से अधिक महत्त्व अपने दृष्टिकोण को देने लगता है और अपने दृष्टिकोण को सिद्ध करने के लिए आक्रामक तक हो जाता है। अपने समाज में जिनसे उस व्यक्ति का कम मिलना-जुलना होता है, उनके समक्ष तो वह एक सुंदर मुखौटा लगा लेता है, परंतु उसके अपने संबंध इससे प्रभावित होने लगते हैं। होना तो यह चाहिए कि जो ऊर्जा तर्क देकर अपने दृष्टिकोण को सच सिद्ध करने में व्यय होती है, वह मतभेद को दूर करने के लिए पहल करने में व्यय हो! साथ ही, जिससे मतभेद हो, उससे ऊपर दिखने की जगह तर्कशीलता का सकारात्मक उपयोग मतभेद को मिटाने में हो!

यह भी महत्त्वपूर्ण है कि हम संबंधों के निर्वहन को गंभीरता से लें और विवेकपूर्ण व्यवहार करें। अगर असंयम अथवा विवेकरहित होकर किसी परिजन से बात करेंगे अथवा उद्धत व्यवहार करेंगे; तो आपसी प्रेम और विश्वास का क्षरण होगा। भारवि ने कहा भी है– “बिना विचारे उतावलेपन में कोई काम कभी नहीं करना चाहिए। अविचार सब आपत्तियों का मूल है। विचारपूर्वक कार्य करने वाले की मनोवांछित कामनाएँ स्वयमेव ही पूर्ण हो जाती हैं।” ध्यातव्य है कि संबंध में अगर उतावलापन हो भी; तो केवल प्रशंसा के लिए; निंदा, गर्हणा, आलोचना अथवा अविनय के लिए कदापि नहीं। आलोचना एवं अविनय का ज़हर तेज़ी से फैलकर किसी भी संबंध को शीघ्र ही विनष्ट कर देता है। यह अनुभवजन्य सत्य है कि परिवार के लोगों से अथवा किसी स्वजन से दुःखी और व्यथित व्यक्ति उतावलेपन में कुछ भी मुखरित कर देता है, जिनका स्थायी महत्त्व नहीं होता। यह ऐसा ही है, जैसे अभिमादकता अथवा नशे में कही गई बातों का बाद में कोई महत्त्व नहीं होता। ऐसे, रिश्ते की भलाई के लिए आवश्यक है कि हम इस विवेक से काम लें और ऐसे व्यथित अथवा दुःखी रिश्तेदार की किसी बात को बाद में पकड़ कर न बैठे रहें और उससे भी आवश्यक है कि ताना तो बिलकुल ही न दें। लेकिन, क्या ऐसा हो पाता है?

तथ्य यह है कि हम नकारात्मक के प्रति अधिक संवेदनशील होते हैं। लोगों के बुरे व्यवहार को अच्छे व्यवहार की अपेक्षया अधिक याद रखते हैं। इसके अतिरिक्त, कभी-कभी हमारे व्यक्तित्व की कोई कमी हमारे व्यवहार में दिख जाती है, जिससे हमारे अपने आहत हो जाते हैं, उदाहरणार्थ– अपनी आदतों के ग़ुलाम होकर हम आपसी संबंधों में भी ग़लत प्रतिक्रिया दे देते हैं अथवा सही प्रतिक्रिया सही प्रकार से नहीं दे पाते हैं। यह अविनीत आचरण सामने वाले को आहत करता है और संबंध की मिठास और मज़बूती को कम करता है। अपेक्षित है कि हमें यह विस्मरण न हो कि संबंधित मित्र अथवा रिश्तेदार हमारे लिए पूर्व में कितना कुछ कर चुके हैं। केवल हमारे मुख से उच्चरित शब्द सही और शोभन हों, यह यथेष्ट नहीं; आवश्यक यह है कि शरीरिक भाव-भंगिमाएँ भी सम्मानदायिनी हों। हम जिस चीज़ का अनादर करेंगे, वह टिकती नहीं। अगर विवेकविरुद्ध कार्य अथवा आचरण करेंगे; तो विवेक की वृद्धि तक रुक जाएगी। इसी प्रकार, विवेकरहित और प्रेमरहित व्यवहार निभाने से संबंध में आपसी प्रेम और विश्वास खो देंगे। अगर संबंध को स्थायी रखना है; तो विवेक और प्रेमयुक्त व्यवहार को विषम परिस्थितियों में भी नहीं छोड़ना ही एकमात्र समाधान-विषयक व्यावहारिक उपाय है।

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1 thought on “विवेक और प्रेम का साथ

  1. प्रेम सही अर्थ यही हैं कि स्वयं की बुराई समाप्त कर सभी से अच्छा आचरण करना एवं प्रेमयुक्त जीवन जीना।

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