विश्व में बढ़ती भारत की धमक
बलबीर पुंज
विवादों से घिरे बोरिस जॉनसन के त्यागपत्र के बाद इंग्लैंड का अगला प्रधानमंत्री कौन होगा? इस दौड़ में अभी तक भारतीय मूल के पूर्व चांसलर ऋषि सुनक और ब्रिटिश विदेश सचिव लिज ट्रस आगे हैं। अब सुनक प्रधानमंत्री बनेंगे या नहीं, इसका उत्तर भविष्य के गर्भ में है। परंतु उनका ब्रितानी राजनीति के शीर्ष पर लगभग पहुंच जाना, अपने आप में एक बड़ी घटना है, जो कई निहितार्थों को रेखांकित करती है।
आज पूरी दुनिया में भारतीय मूल के सवा तीन करोड़ प्रवासी अमेरिका, यूरोप और अरब-मध्यपूर्व सहित 30-35 देशों में बसते हैं। इनमें से कई ने अपने अथक परिश्रम, बौद्धिक दक्षता और कौशल के बल पर विशेष पहचान बनाई है। यह विश्व की अधिकांश बड़ी कंपनियों की बागडोर भारतीय मूल के सीईओ के हाथों में होने से भी स्पष्ट है, जिसमें गूगल, ट्विटर, माइक्रोसॉफ्ट, आईबीएम, अडोब, मास्टरकार्ड इत्यादि शामिल हैं। परंतु यह विस्तृत परिप्रेक्ष्य का एक छोटा अंश मात्र है।
यदि मुझे आंकलन करना हो, तो मैं विदेशों में बसे इन प्रवासियों को मोटा-मोटा तीन श्रेणियों में वर्गीकृत करूंगा। भारतीय मूल के इन लोगों में एक वर्ग उन ‘भारतीयों’ का है, जिनमें ‘भारत’ केवल उतना ही जीवित है कि उनके पूर्वज किसी समय भारत से आए थे। ऐसे लोग पीढ़ी दर पीढ़ी संबंधित नई संस्कृति और जीवनशैली में पल-बढ़कर अपनी मूल पहचान के प्रति न केवल हीन-भावना का शिकार हो जाते हैं, अपितु अपनी नए अभिज्ञान के प्रति वफादारी को सिद्ध करने हेतु अपनी मूल सनातन संस्कृति से भी चरमसीमा तक घृणा करने लगते हैं और सदैव भारत-विरोधी रवैया अपनाते हैं। इनमें राजनीतिक-राजनयिक वर्ग से लेकर स्वयंभू मानवाधिकारवादी-उदारवादी तक शामिल होते हैं। अमेरिकी उप-राष्ट्रपति कमला हैरिस भी इसी वर्ग का प्रतिनिधित्व करती हैं।
पाठकों को दिसंबर 2013 का देवयानी खोब्रागड़े प्रकरण स्मरण होगा, जिसमें अमेरिका स्थित बतौर भारतीय उप-महावाणिज्यदूत देवयानी पर अपनी नौकरानी के अमेरिका में प्रवेश हेतु वीजा फर्जीवाड़ा करने और उसे निर्धारित न्यूनतम मजदूरी नहीं देने का आरोप लगा था। तब न्यूयॉर्क में भारतीय मूल के तत्कालीन अटॉर्नी प्रीत भरारा के प्रत्यक्ष-परोक्ष दिशा-निर्देशों पर देवयानी को किसी पेशेवर अपराधी या आतंकवादी की भांति सरेआम न केवल गिरफ्तार किया गया था, अपितु निर्वस्त्र करके उनकी तलाशी तक ली गई थी। पंजाब स्थित फिरोजपुर में जन्मे प्रीत का यह आचरण विकृत अमेरिकी संस्कृति के अनुरूप ही था।
भारतीय प्रवासियों की दूसरी श्रेणी उन लोगों की है, जो अपने काम से मतलब रखते हैं और इनमें से कई अपनी कमाई का एक हिस्सा स्वदेश में परिजनों- विशेषकर दंपत्ति-बच्चों या माता-पिता और दोनों को भेजते हैं। इस मामले में प्रवासी भारतीयों ने वर्ष 2021 में विश्व में सर्वाधिक 87 अरब अमेरिकी डॉलर की राशि भारत भेजी थी। यह परिवार नामक महत्वपूर्ण सामाजिक संस्था के प्रति भारतीयों के विश्वास और दायित्व को प्रदर्शित करता है। विदेशों में इन मूल्यों का ह्रास भयावह रूप ले चुका है। इसका प्रमाण इन आंकड़ों में मिलता है कि लग्जमबर्ग में 87 प्रतिशत, स्पेन में 65 प्रतिशत, फ्रांस में 55 प्रतिशत, रूस में 51 प्रतिशत और अमेरिका में 46 प्रतिशत शादियां टूट जाती हैं। विडंबना है कि पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव में भारत में भी पारिवारिक विकृतियां बढ़ती जा रही हैं।
तीसरी श्रेणी में पूर्व ब्रितानी वित्तमंत्री ऋषि सुनक जैसे भारतवंशी आते हैं, जो विदेशों में शीर्ष पद पर पहुंचने या दूसरी-तीसरी पीढ़ी होने के बाद भी न केवल अपनी पहचान पर स्पष्ट रहते हैं, साथ ही उसपर मुखर रूप से गर्व भी करते हैं। दिसंबर 2020 में जब हाउस ऑफ कॉमंस (संसद) के नए सदस्य बतौर सांसद शपथ ले रहे थे, तब ऋषि और एक अन्य भारतीय मूल के आलोक शर्मा ने ईसाइयों के पवित्र ग्रंथ बाइबल के बजाय पवित्र वैदिक ग्रंथ श्रीमद्भगवद्गीता को हाथ में रखकर शपथ ली थी। एक साक्षात्कार में जब इस पर सवाल पूछा गया, तो ऋषि ने कहा था- “मैं जनगणना के समय सदैव ब्रिटिश भारतीय श्रेणी पर निशान लगाता हूं। मैं पूरी तरह से ब्रिटिश हूं, यह मेरा घर और मेरा देश है। किंतु मेरी धार्मिक और सांस्कृतिक विरासत भारतीय है। मेरी पत्नी अक्षता (इंफोसिस के सह-संस्थापक नारायण मूर्ति की सुपुत्री) भी भारतीय है। मैं अपनी हिंदू पहचान पर मुखर हूं। मैं ब्रिटेन में रहते हुए भी गोमांस का सेवन नहीं करता हूं, जो मेरे लिए कभी समस्या भी नहीं बना।” अपनी हिंदू पहचान पर गर्व करने वाले ऋषि की विकास यात्रा को वैदिक संस्कृति से मार्गदर्शन मिलना स्वाभाविक है।
सुनक का यह व्यक्तित्व उनके परिवार-घर के उस ‘इको-सिस्टम’ और संस्कार से जनित है, जिसे प्राणवायु वैदिक सनातन संस्कृति और उसकी बहुलतावादी परंपराओं से तब भी मिल रही थी, जब उनका परिवार दशकों पहले अपनी मातृभूमि- भारत से मीलों दूर हो गया था। 1960 के दशक में ब्रिटेन जाने से पहले सुनक का परिवार पूर्वी अफ्रीका में बसा हुआ था। इसका अर्थ यह हुआ कि भारत से दूर रहने के बाद भी सुनक का परिवार अपनी संस्कृति और परंपराओं से जुड़ा रहा। इस पृष्ठभूमि में भारत की स्थिति विडंबना से भरी हुई है। यहां मैकॉले-मार्क्स मानसपुत्रों के कुटिल षड्यंत्रों (नैरेटिव सहित) ने भारतीय समाज के एक वर्ग को न केवल अपनी मूल जड़ों से दूर कर दिया है, अपितु उन्हें अपनी मूल संस्कृति के प्रति घृणा के भाव से भी भर दिया है। क्या यह सत्य नहीं कि इस संबंध में भारतीय समाज के उसी वर्ग को विदेशों में बसे भारतीय प्रवासियों से सीखने की आवश्यकता है?
बहुलतावादी-समावेशी भारतीय सनातन संस्कृति का विस्तार कभी तलवार के बल पर नहीं हुआ है। भारतीय उपमहाद्वीप पर संकीर्ण एकेश्वरवादी चिंतन के आगमन (आठवीं शताब्दी) से पहले तक, वैदिक संस्कृति का फैलाव अफगानिस्तान से लेकर सुदूर पश्चिमी एशिया तक था। कोई आश्चर्य नहीं कि आज भारत के साथ उसकी मूल संस्कृति के वाहकों का परचम समस्त विश्व के अलग-अलग कोने में भव्यता के साथ लहरा रहा है। ब्रिटेन में भारतवंशी ऋषि सुनक का उभार- इसका एक अन्य बड़ा मूर्त रूप है।