विश्व स्वास्थ्य संगठन पर क्यों उठ रहे हैं सवाल?
विश्व स्वास्थ्य संगठन और अमेरिकी संबंध
प्रीति शर्मा
इस समय पूरी दुनिया कोविड जैसी एक भयावह महामारी के संकट से जूझ रही है। दूसरी ओर विश्व स्वास्थ्य संगठन पर चीन के दबाव में काम करने के आरोप लग रहे हैं। ऐसे में अमेरिका जैसे विकसित देश द्वारा इस संगठन की सदस्यता त्याग देना भविष्य की अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के लिए क्या कोई बड़ा संदेश है?
पिछले दिनों संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा विश्व स्वास्थ्य संगठन पर चीन की कठपुतली बने होने का आरोप लगाते हुए इसकी सदस्यता त्यागने की घोषणा की गई। इस घोषणा के नेपथ्य में यदि अन्वेषण किया जाए तो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर संबंधों की एक नई राजनीति के दर्शन होते हैं।
हाल ही में संयुक्त राष्ट्र द्वारा उन्हें स्मरण कराया गया कि अमेरिका 6 जुलाई 2021 को विश्व स्वास्थ्य संगठन की सदस्यता त्याग देगा। इसके लिए 1948 के संयुक्त घोषणा पत्र के अनुसार किसी देश को सदस्यता छोड़ने से पूर्व संगठन के सारे वित्तीय बकाया चुकाने होंगे तथा एक वर्ष पूर्व सदस्यता छोड़ने संबंधी सूचना संगठन को देनी होगी। ध्यातव्य है कि संयुक्त राज्य अमेरिका का विश्व स्वास्थ्य संगठन में 200 मिलियन डॉलर का आर्थिक सहयोग है।
यदि इस संदर्भ में संपूर्ण समीकरण की जांच की जाए तो ज्ञात होता है कि अमेरिका का यह निर्णय अमेरिकी चीन व्यापार युद्ध का परिणाम है। हालांकि अमेरिकी प्रतिनिधि सभा की स्पीकर नैंसी पेलोसी ने राष्ट्रपति ट्रंप के इस निर्णय की आलोचना की है। क्योंकि रूटर्स टैली के अनुसार संपूर्ण विश्व के संक्रमित एवं मृत्यु के मामलों में से 25 प्रतिशत मामले अकेले अमेरिका में है।
अमेरिका ने सर्वप्रथम अप्रैल में विश्व स्वास्थ्य संगठन की वित्तीय सहायता रोकी। तत्पश्चात मई माह में संगठन में सुधार हेतु विश्व स्वास्थ्य संगठन को 30 दिन का समय दिया और दो ही सप्ताह के बाद विश्व स्वास्थ्य संगठन की सदस्यता छोड़ने की घोषणा कर दी। दूसरी और अमेरिका की आंतरिक राजनीति के समीकरण बदलने लगे हैं। ट्रंप की नीतियों के विरोध में विपक्षी दल मुखर हो कर सामने आ रहा है। हालांकि अमरीका में ऐसे लोगों का बहुमत है जो ट्रम्प के निर्णय के साथ हैं। इस मामले में ट्रंप ने राष्ट्रवाद का कार्ड चलने की कोशिश की है।अमरीकी राष्ट्रपति के चुनाव पर इसका क्या असर होगा, यह देखने वाली बात होगी।
यह सच है कि किसी देश की आंतरिक राजनीति वैश्विक अंतरराष्ट्रीय संबंधों के निर्धारण में एक प्रभावशाली सहयोग प्रदान करती है। वर्तमान में अमेरिका के आर्थिक हितों को नुकसान पहुंचने के कारण चीन के विरोध में अमेरिका कठोर निर्णय ले रहा है।
भारत की नीतियां ऐसे संदर्भों में मध्यम मार्ग की रही हैं। भारत सर्वप्रथम वार्तालाप एवं विचार विमर्श के शांतिपूर्ण मार्ग का पोषक है। ऐसे शांतिपूर्ण सिद्धांत अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में किसी देश की संवहनीयता का मार्ग प्रशस्त करते हैं। भारत जैसे सात दशक पूर्व स्वतंत्र हुए विकासशील राष्ट्र की वर्तमान वैश्विक छवि इसकी संवहनीयता की स्पष्ट साक्षी है। भारत की यह नीति गुट निरपेक्षता, शांति एवं सौहार्द के प्रति आग्रह तथा वसुधैव कुटुंबकम के उच्च कोटि के सिद्धांतों से संभव हो सकी है। भारत कभी भी किसी देश के लिए कठोर निर्णय तब तक नहीं लेता जब तक की वह देश शांति एवं सौहार्द के साथ-साथ मानवता के समस्त सीमाओं का उल्लंघन नहीं कर देता।
विश्व स्वास्थ्य संगठन से अलग होने के अमेरिका के निर्णय से कहीं न कहीं विश्व स्वास्थ्य संगठन की प्रतिष्ठा को धक्का पहुंचा है। अमेरिका के विश्व स्वास्थ्य संगठन पर चीन का पक्ष लेने का आरोप जांच का विषय है, फिर भी इस निर्णय ने विश्व स्वास्थ्य संगठन को सवालों के घेरे में खड़ा कर दिया है। हालांकि सवाल यह भी उठता है कि क्या अमेरिका के पास इसका उपाय केवल विश्व स्वास्थ्य संगठन की सदस्यता त्याग देना ही था?
(लेखिका राजनीति विज्ञान की सहायक आचार्य हैं)