वीरता व शौर्य के प्रतीक महाराजा सूरजमल: जिन्होंने 80 युद्ध लड़े, लेकिन कोई राजा नहीं हरा पाया
तोप चले बंदूक चले, जाके रायफल चले इशारे ते।
अबकै जाने बचाइले अल्लाह, या जाट भरतपुर वारे ते।।
इतिहास गवाह है कि भरतपुर की स्थापना रक्त एवं खडग़ों के सृजन से हुई है। राजा बदन सिंह की रानी देवकी के गर्भ से सूरजमल जैसा योद्धा 13 जनवरी 1707 को डीग के राज प्रसादों में पैदा हुआ। 1721 ईस्वी में मात्र 14 वर्ष की आयु में जब सूरजमल पिता राजा बदन सिंह के दूत के रूप में सवाई जयसिंह से मिलने उसके दिल्ली स्थित मुकाम पर पहुंचा, तब उसके राजनैतिक जीवन का प्रारंभ हुआ था। भारतीय राज्य व्यवस्था में सूरजमल का योगदान सैद्धांतिक या बौद्धिक नहीं अपितु रचनात्मक तथा व्यावहारिक था। मुसलमानों, मराठों, राजपूतों से गठबंधन का शिकार हुए बिना ही उसने अपने युग पर एक जादू सा फेर दिया था। राजनैतिक तथा सैनिक दृष्टि से वह कभी पथभ्रांत नहीं हुआ। कई बार उसके हाथ में बहुत काम के पत्ते नहीं होते थे, फिर भी वह कभी गलत या कमजोर चाल नहीं चलता थे। सैयद गुलाम अली नकबी अपने ग्रंथ इमाद उस सादात में लिखता है कि… नीतिज्ञता और राजस्व तथा दीवानी मामलों के प्रबंध की निपुणता तथा योग्यता में हिंदुस्तान के उच्च पदस्थ लोगों में से… आसफजाह बहादुर, निजाम के सिवाय कोई भी उसकी बराबरी नहीं कर सकता था। उसमें अपनी जाति के सभी श्रेष्ठ गुण, ऊर्जा, साहस, चतुराई, निष्ठा और कभी पराजय स्वीकार न करने वाली अदम्य भावना सबसे बढक़र विद्यमान थे, लेकिन यह सब सूरजमल ने कर दिखाया। वह एक ऐसा होशियर पंछी था, जो हर एक जाल में से दाना तो चुग लेता था पर उसमें फंसता नहीं था।
महाराजा सूरजमल के शासनकाल में धर्म के नाम पर भेदभाव व उत्पीडऩ का कोई उदाहरण नहीं मिलता है। इसके विपरीत अहमद शाह अब्दाली की मुस्लिम सेनाओं ने धर्म के नाम पर जब उनके राज्य में मथुरा, वृंदावन व गोकुल में अत्याचार व विनाश का नग्न प्रदर्शन किया। तब भी सूरजमल ने धैर्य नहीं खोया। उसके राज्य में मस्जिदों की पवित्रता यथावत बनी रही। व्यक्तिगत रूप से सूरजमल हिंदू धर्म के वैष्णव संप्रदाय का अनुयायी था, लेकिन राज्य की नीति एवं सार्वजनिक मामलों में उसने उदार सामंजस्य की नीति का पालन किया। उसके सेवकों में करीम मुल्लाह खान और मीर पतासा प्रमुख थे। उसकी सेना में मुसलमान बहुत बड़ी संख्या में मेव थे। मीर मुम्मद पनाह उसकी सेना में अति महत्वपूर्ण पद पर था। उसने घसेरा के दुर्ग पर सर्व प्रथम विजयी झंडा फहराते हुए अपने प्राणों की आहूति दी थी। सेना व प्रशासन में बिना किसी भेदभाव के जाट, मुसलमानों के अलावा ब्राह्मण, राजपूत, गूजर सहित सभी वर्गों के लोग थे। खजाने की देखरेख जाटव खजांची करता था।
वरिष्ठ साहित्यकार रामवीर सिंह वर्मा बताते हैं कि किसान संस्कृति पर आधारित भरतपुर राज्य के संस्थापक महाराजा सूरजमल ने मुगल वजीर मंसूर अली सफदरजंग को अपने डीग के किले में शरण देकर पानीपत युद्ध से जान बचाकर, लुटे-पिटे मराठा सैनिक व सेना नायक सदाशिव राव भाऊ की पत्नी पार्वती देवी को शरण देकर शरणागत रक्षक का अनुपम उदाहरण प्रस्तुत किया। पानीपत युद्ध में विजयी अहमदशाह अब्दाली ने सूरजमल को संदेश भेजा कि यदि पराजित मराठों को उसने नहीं सौंपा और अपने राज्य में शरण दी तो वह भरतपुर राज्य पर आक्रमण कर देगा। अब्दाली की धमकी व आसन्न आक्रमण की चिंता किए बिना उसने मराठा सेना को अपने डीग, कुम्हेर, भरतपुर के किलों में शरण दी। छह माह तक घायलों का इलाज व अन्न, वस्त्र, भोजन देकर आश्रय दिया और अपनी सेना की ओर से ग्वालियर तक सुरक्षित पहुंचाया। मीर वख्सी सलामत खां को पराजित किया। रूहेला सरदार अहमद शाह वंगश के हिमालय की तराइयों तक खदेड़ा, मल्हार राव हाल्कर, बजीर गाजिउद्दीन तथा जयपुर नरेश माधो सिंह की गठबंधित सेना को 1754 के युद्ध में पराजित किया। डासना अलीगढ़ के युद्ध में नजीब खां को हार का मुंह दिखाकर भारत से लौटने पर विवश कर और भारत की पश्चिमोत्तर सीमा पर छोटे-छोटे राज्य तथा नबाबों से राज्य छीनकर एक संगठित राज्य की स्थापना की।
मराठा सेनापति भाऊ यदि महाराजा सूरजमल के परामर्श को मान लेते तो पानीपत युद्ध में उनकी पराजय नहीं होती और न अंग्रेजों को भारत में प्रवेश करने का अवसर मिल पाता। यह देश का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि इस युद्ध के बाद देश में विदेशी शक्तियों ने अधिकार जमा लिया। सूरजमल ने अपने जीवन में अस्सी युद्ध लड़े और सभी में विजयी रहे, उन्हें कोई राजा-महाराजा हरा नहीं पाया। इमाद के लेखक ने सत्य ही उसे जाटों का प्लेटो कहा है। भारतीय संस्कृति की रक्षा के लिए दिल्ली में इमाद से लड़े गए युद्ध में धोखे से महाराजा सूरजमल 25 दिसंबर 1763 को वीरगति को प्राप्त हो गए। 25 दिसंबर ईशा का बलिदान दिवस विश्व का महान पर्व बन गया। उनके 256वें बलिदान दिवस पर समूचा देश उन्हें नमन करता है।