वैरागी बंदासिंह बहादुर ने बजाया विजयी सैन्य अभियानों का बिगुल
धर्मरक्षक वीरव्रती खालसा पंथ – भाग 12
नरेंद्र सहगल
वैरागी बंदासिंह बहादुर ने बजाया विजयी सैन्य अभियानों का बिगुल
अध्यात्म-शिरोमणि श्रीगुरु नानकदेव द्वारा प्रारंभ की गई भक्ति आधारित दस गुरु परंपरा के अंतिम ध्वजवाहक दशमेश पिता श्रीगुरु गोविंदसिंह महाराज ने अपने मात्र थोड़े से (42) जीवनकाल में ही सनातन भारतीय संस्कृति की रक्षा और स्वतंत्रता के लिए अनेक महत्वपूर्ण कार्यों को सफलतापूर्वक संपन्न कर दिया था। जिस तरह स्वामी विवेकानंद ने अपने मात्र 39 वर्ष के जीवनकाल में पूरे विश्व में हिंदू धर्म/संस्कृति की ध्वजा फहराने में सफलता प्राप्त की थी, उसी प्रकार दशम् गुरु ने हिंदू समाज में क्षात्र चेतना जाग्रत करने का अद्भुत एवं युग प्रवर्तक अनुष्ठान करके खालसा पंथ की सिरजना की थी।
धर्मयुद्ध शिरोमणि दशम् गुरु की अविस्मरणीय ऐतिहासिक उपलब्धियों को संक्षेप में सात भागों में बांटा जा सकता है।
प्रथम:- मात्र 8 वर्ष की आयु में ही उन्होंने अपने पूज्य पिता नवम् गुरु श्रीगुरु तेगबहादुर को धर्म एवं सत्य की रक्षा के लिए आत्म बलिदान की प्रेरणा दी। उनके बलिदान से पूरे भारत में मुगल साम्राज्य को उखाड़ फेंकने के लिए सशस्त्र क्रांति की अलख जग गई।
दूसरा:- दबे, कुचले, हीन भावना से ग्रस्त निहत्थे और विभाजित हिंदू समाज को जगाकर उसमें क्षात्र भाव भरने के लिए ‘खालसा पंथ’ की स्थापना की गई। जगद्गुरु शंकराचार्य द्वारा समस्त भारत को एक सूत्र में बांधने के लिए स्थापित किए गए चार मठों की भांति दशम् गुरु ने भी सारे देश और सभी जातियों से पांच प्यारे (सिंह) तैयार करके भारत की एकता का युग प्रारंभ कर दिया।
तीसरा:- खालसा पंथ की स्थापना के बाद श्रीगुरु ने एक विजयी सेनानायक के रूप में 14 छोटी-बड़ी लड़ाइयां लड़ीं। मुगलों के धर्म विरोधी शासन के विरुद्ध लड़ी गई इन लड़ाइयों में दशम् पातशाह ने अपने चारों युवा एवं बाल पुत्रों को बलिदान कर दिया। फलस्वरुप मुगलिया साम्राज्य के पांव उखड़ गए।
चौथा:- समूचे भारत को तलवार के जोर से इस्लाम में बदलने की इच्छा रखने वाले अधर्मी राक्षस औरंगजेब को एक पत्र (जफरनामा) लिखा। इस पत्र की भाषा से औरंगजेब की रूह कांप उठी। उसने श्रीगुरु से मिलने की इच्छा जताई। परंतु शीघ्र ही उसकी रूह ने उसके पापी शरीर को छोड़ दिया।
पांचवा:- श्रीगुरु ने अपने अति व्यस्त जीवनकाल में वीररस पर आधारित विशाल साहित्य की रचना की। वे योद्धा राष्ट्रीय कवि थे। वे एक अध्यात्मिक योद्धा थे। उन्होंने जहां अकाल स्तुति तथा ‘जापु’ जैसी भक्तिप्रधान रचनाएं लिखीं, वहीं उन्होंने ‘चंडी चरित्र’ तथा ‘चौबीस अवतार’ जैसे कालजयी साहित्य को भी रचा।
छटा:- दशम् गुरु ने अपने अंत समय में बहुत गहन विचार करने के पश्चात तत्कालीन परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए श्रीगुरु ग्रंथ साहिब को गुरुगद्दी पर शोभायमान कर दिया। उन्होंने घोषणा की-
आज्ञा मई अकाल की, तभी चलायो पंथ।
सब सिक्खन को हुकम है, गुरु मान्यो ग्रंथ।
गुरु ग्रंथ जी मान्यो, प्रगट गुरु की देह।
जो प्रेम को मिलवो चाहे, खोज शब्द में लेह।।
सातवां:- श्रीगुरु गोविंदसिंह ने अपने जीवनकाल में ही वैरागी साधु माधोदास को अमृत छका कर (अमृत-पान) सिंह सजाया और उसे अपना उत्तराधिकारी बनाकर पंजाब की ओर भेज दिया। यही वैरागी साधु बाद में महान योद्धा बंदासिंह बहादुर कहलाया। इस संत सिपाही को बंदा वीर वैरागी भी कहा जाता है।
जिस तरह पूर्व के नौ गुरुओं विशेषतया श्रीगुरु नानकदेव जी तथा नवम् गुरु श्रीगुरु तेगबहादुर ने पूरे अखंड भारत का प्रवास करके हिंदू समाज को एक सूत्र में बांधने का प्रयास किया था, इसी तरह दशम् गुरु ने भारतवर्ष को एक चैतन्यमय देवता के रूप में देखकर इसकी परिक्रमा करने का निश्चय किया था। इसी निमित्त वह दक्षिण भारत की ओर गए। वहां उन्होंने नांदेड़ नामक स्थान पर गोदावरी नदी के किनारे पर अपना डेरा बना कर आगे की गतिविधियों को संचालित किया।
इन्हीं दिनों इसी दक्षिण क्षेत्र में मराठा हिंदू सम्राट छत्रपति शिवाजी महाराज सक्रिय जो अपनी सेना के साथ मुगल सूबेदारों से लोहा ले रहे थे। शिवाजी ने तो अपने जीवनकाल में ही ‘हिंदू पद पातशाही’ की स्थापना भी कर दी थी। कुछ इतिहासकार ऐसा मानते हैं कि दशम् गुरु दक्षिण में इसी उद्देश्य से गए थे कि शिवाजी से मिलकर पूरे भारत में एक शक्तिशाली भारतीय सेना तैयार करके मुगल शासन को समाप्त करके एक परम वैभवशाली राष्ट्र की पुनः स्थापना की जाए।
परंतु ऐसा संभव नहीं हो सका। शिवाजी महाराज इस संभावित भेंट से पहले ही अपनी जीवन लीला को समाप्त कर चुके थे। यदि उस समय यह ऐतिहासिक भेंट हो जाती तो उत्तर से लेकर दक्षिण तक समस्त हिंदू समाज दोनों महापुरुषों के नेतृत्व में हथियारबंद होकर ‘स्वतंत्रता संग्राम’ के लिए तैयार हो जाता। तो भी इन दोनों महान सेनापतियों ने मुगल शासन की जड़ें तो खोद ही दी थीं। आगे का कार्य दशम् गुरु के द्वारा सृजित खालसा पंथ के सेनापतियों ने संपन्न कर दिया।
इतिहास इसका भी साक्षी है कि एक समय पर शिवाजी के वंशज भाऊ पेशवा ने दिल्ली के लाल किले पर भगवा ध्वज लहरा दिया था और दशम् पिता के सिंहों जस्सासिंह अहलूवालिया और जत्थेदार बघेलसिंह ने 1787 में लाल किले पर केसरिया झंडा लहरा कर दिल्ली पर अधिकार कर लिया था।
उल्लेखनीय है कि दशम् गुरु के सैन्य उत्तराधिकारी बंदासिंह बहादुर ने पंजाब में पहुंचते ही सिंहों की सेना के साथ अपना विजयी सैन्य अभियान प्रारंभ कर दिया। एक के बाद एक मुगल सूबेदारों को मौत के घाट उतारकर उनके अधीन क्षेत्रों को स्वतंत्र करवाते हुए बंदा और उसके खालसे केसरी ध्वजा को फहराते चले गए। तुरंत ही उन्होंने सरहंद के सूबेदार वजीर खान और दीवान सुच्चानंद को और उनकी सेना को मौत के घाट उतार कर सरहंद पर कब्जा कर लिया। यह दोनों नरपिशाच दशम् गुरु के दो बाल पुत्रों को बलिदान करने के जिम्मेदार थे।
इसी विजय अभियान के साथ ही सतलुज नदी और यमुना नदी के मध्य का सारा क्षेत्र मुगल सूबेदारों से स्वतंत्र करवाकर बंदासिंह बहादुर ने सिक्ख राज्य की स्थापना कर दी। यह जीत दशम् गुरु के उद्देश्य ‘वैभवशाली राष्ट्र की पुनर्स्थापना के अनुरूप थी। बंदासिंह बहादुर ने दशमेश पिता द्वारा की गई घोषणा – ‘सकल जगत में खालसा पंथ गाजे, जगे धर्म हिंदू तुरक द्वंद भाजै।‘ को अपने पराक्रम से चरितार्थ कर दिया।
उल्लेखनीय है कि बंदासिंह बहादुर भी श्रीगुरु अर्जुनदेव, श्रीगुरु तेगबहादुर की तरह भयानक यातनाएं सहकर बलिदान हुए थे। गुरु पुत्रों के हत्यारों को मौत के घाट उतारने वाले इस धर्म योद्धा को मारते समय मुस्लिम काजियों ने मानवता को शर्मसार करने वाले ऐसे नृंशस हथकंडे अपनाए, जिन्हें जानकर रक्त खौलने लगता है।
मुगलों की विशाल सेना बंदासिंह बहादुर को गुरदास नंगल नामक किले से पकड़कर लोहे के पिंजरे में बंद करके दिल्ली ले आई। बंदासिंह को उसके लगभग एक हजार सिख सैनिकों को जंजीरों में बांधकर जुलूस निकाला गया। इसी जुलूस में सैकड़ों सैनिकों के कटे सिर भालों (बरछों) पर टांग कर लाए गए। दिल्ली में काजियों द्वारा वही पुरानी रट लगाई ‘इस्लाम कबूल करो या मौत।’ बंदासिंह ने इस्लाम कबूल नहीं किया। फिर शुरू हुए क्रूर अत्याचार..
बंदासिंह के 2 वर्षीय बेटे का उसके सामने कलेजा निकाला गया। इस रक्त रंजित लोथड़े को बंदा के मुंह में ठूंसा गया। गरम लोहे के चिमटों से इस वीर पुरुष के शरीर को नोचा गया। आंखें निकाल दी गईं। शरीर के सारे अंग खंजर से काटे गए। इस तरह इस्लाम के व्याख्याकारों ने इस सिख राष्ट्रपुरुष के प्राण लेकर अपनी वास्तविक जलालत का परिचय दिया।
इस अमर बलिदान के बाद सिख बहादुरों ने बलिदान के जज्बे को प्रज्वलित रखते हुए स्वाधीनता की लड़ाई को जारी रखा।
———— क्रमश: