कंगना ने तोड़ी खौफ की दीवार, दरका शिवसेना का विचार आधार
कुमार ऋत्विज
एक अभिनेता की मृत्यु से प्रारम्भ हुआ प्रकरण एक राजनीतिक दल के विचारों और उसके कदमों पर ही सवाल उठा देगा, ऐसा शायद जब यह दुखःद खबर पहली बार आई तब दूर-दूर तक कहीं नजर नहीं आ रहा था। अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की मृत्यु से प्रारम्भ विवाद ने मुंबई, महाराष्ट्र और फिल्म इंडस्ट्री के कई स्याह रंग उजागर किए। हालांकि उनकी मृत्यु का रहस्य अभी तक रहस्य ही है। लेकिन इस बीच इस विवाद में रिया चक्रवर्ती, ड्रग्स ने बॉलीवुड की कथित गंदगी को सामने ला दिया। फिर कंगना रनौत व संजय राउत के बीच हुई बयानबाजी और उसके बाद कंगना के ऑफिस पर बीएमसी की कार्रवाई के इस विवाद में शिवसेना ने बहुत कुछ गंवा दिया।
जिस शिवसेना की स्थापना करने के बाद से ही इसके संस्थापक बाल ठाकरे गर्व से इसे महाराज शिवाजी की सेना और मराठा अस्मिता का गौरव कहते थे। जिस सेना को वे शिवाजी महाराज के स्वराज के सैनिक के रूप में बतलाते थे। जो भगवा ध्वज और हिन्दूपन की बात करते हुए पूरी जिन्दगी अपनी अलग ठसक की राजनीति करते रहे, वह शिवसेना आज अपने उसी मूल विचार से परे खड़ी नजर आ रही है। यह सच है कि राजनीति अनंत संभावनाओं का खेल है और राजनीति में कभी कुछ भी स्थायी नहीं होता, किन्तु यह भी सच है कि किसी भी राजनीतिक दल का आधार विचारधारा ही होता है और किसी भी स्थिति में विचारों से यू टर्न उसकी समस्त राजनीति को बदल देता है।
महाराष्ट्र में सत्ता की चाह में शिवसेना ने वो असंभव सा लगने वाला गठबंधन किया। नतीजा यह दिख रहा है कि उसके अपने ही समर्थक अब उससे सवाल करने लगे हैं। उसके नेताओं का वह प्रभाव जिसके सामने अऩ्य सभी बौने दिखते थे अब तिरोहित होता नजर आ रहा है। सोशल मीडिया पर बाल ठाकरे के पुराने साक्षात्कारों की क्लिप्स तैर रही हैं, जिनमें वे अपने विचार को प्रमुख करार देते हुए शिवसेना को कांग्रेस नहीं बनने देने की बात करते हैं। शिवसेना ने अपनी स्थापना के बाद से हिन्दू हितों की आवाज उठाने वाली पार्टी के रूप में पहचान बनाई है और लगातार बिना किसी किन्तु परन्तु के सालों तक वह इस पर डटी रही है। विचार की समानता के ही चलते स्वाभाविक तौर पर शिवसेना ने केन्द्र में भारतीय जनता पार्टी को समर्थन देने का विकल्प ही हमेशा अपनाया। महाराष्ट्र में शिवसेना को भाजपा का समर्थन मिलता रहा था। किन्तु भारतीय जनता पार्टी की लोकप्रियता देश में बढ़ने के साथ ही महाराष्ट्र में भी बढ़ी और वह वहां शिवसेना से अलग अपना कद बड़ा करने में सफल रही। सत्ता पाने को आतुर शिवसेना ने अलग राह चुनी और घोर विरोधी विचार वालों के साथ सरकार बनाई।
पालघर भी
शिवसेना आज जिस स्थिति का सामना कर रही है वह एकाएक नहीं बन गए। सरकार बनाने से लेकर अब तक कई मौके आए जब शिवसेना को द्वंद्व का सामना करना पड़ा। द्वंद्व उसके विचार और सरकार के साथ का। पालघर में साधुओं की हत्या ने पूरे देश में एक रोष का वातावरण बनाया लेकिन जिस शिवसेना से इस मामले में सबसे ज्यादा जोर शोर से आवाज उठाने की महाराष्ट्र की जनता उम्मीद कर रही थी, वह इस पर एक तरह से चुप्पी साधे थी। किसी भी सरकार की पुलिस के सामने साधुओं की यूं निर्मम हत्या किसी को भी बर्दाश्त नहीं हो सकती और फिर यह तो शिवसेना की सरकार थी। कैसे पुलिसकर्मी चुपचाप खड़े रह गए? कैसे मामला दबा रह गया? हल्ला मचा तो कार्रवाई की खानापूर्ति हुई। नतीजा शिवसेना के अपने ही आधार का उस पर से भरोसा डिगने लगा। कंगना रानौत प्रकरण ने उस डिगे भरोसे पर एक और धक्का दिया और नतीजा है कि शिवसेना का आधार कभी भी भरभरा कर गिर सकता है। कंगना ने अपनी ललकार से महाराष्ट्र के मन के अंसतोष और अविश्वास को व्यक्त करने किया है।
विचार से डिगना तात्कालिक लाभ दे सकता है पर यह दीर्घावधि में नुकसान ही करता है। आखिर कौन सोच सकता था कि मुंबई में कोई ठाकरे परिवार पर टिप्पणी करने का साहस कर पाएगा। और इसके लिए जिम्मेदार यदि कोई है तो और कोई नहीं वह खुद शिवसेना और उसकी सत्तालोलुप नीतियां है। आने वाले समय में शिवसेना को एक कंगना ही नहीं ऐसे और भी कई मामलों का सामना करना पड़ सकता है क्योंकि कंगना ने डर की वो दीवार तोड़ दी है जो शिवसेना की खिलाफत पर होने वाले अंजाम के खौफ के रूप में खड़ी थी। अब जबकि शिवसेना ने सत्ता हासिल करली है, पर प्रभाव गंवाती जा रही है तो यह वह समय है जब शिवसेना इस पर आत्ममंथन करे कि क्या सत्ता पाने के लिए विचारों को तिलांजलि देना सही रहा? कह सकते हैं शिवसेना भले ही सरकार बनाने को किसी किले के जीत की तरह ले ले, पर जनता उसके सिंह की दहाड़ पर अपना कान देने को तैयार नहीं दिखती।