शौर्य की प्रतिमूर्ति – महाराणा प्रताप

शौर्य की प्रतिमूर्ति - महाराणा प्रताप

मृत्युंजय दीक्षित

शौर्य की प्रतिमूर्ति - महाराणा प्रतापशौर्य की प्रतिमूर्ति – महाराणा प्रताप

भारतमाता की कोख से एक से बढ़कर एक महान सपूतों ने जन्म लिया है, जिन्होंने अपने सर्वस्व सुखों का त्याग कर पूरे मनोयोग के साथ अपनी मातृभूमि की रक्षा की है। ऐसे ही महान सपूतों की श्रेणी में नाम आता है महाराणा प्रताप का। भारत के इतिहास में महाराणा प्रताप का नाम साहस, शौर्य, त्याग एवं बलिदान का मूर्तरूप है। मेवात के सिसौदिया वंश में बप्पा रावल, राणा हमीर, राणा सांगा जैसे अनेक महान प्रतापी शूरवीर हुए, जिन्होंने आक्रमणकारियों से लोहा लेकर उनको धूल चटाई। वे सभी राणा के नाम से जाने जाते हैं। परन्तु “महाराणा” का गौरवयुक्त संबोधन केवल प्रताप को ही मिला। जिससे उनका पूरा नाम महाराणा प्रताप हो गया।

मुगल सम्राट अकबर के द्वारा दिये गये झूठे आश्वासन, उच्चस्थान, पदाधिकार आदि प्रलोभनों के वशीभूत होकर कई राजपूत राजाओं ने उसका प्रभुत्व मान लिया था, जबकि अन्य वीर राजपूत अपना गौरव खो चुके थे। ऐसा प्रतीत होता था  मानों पूरा राजस्थान ही आत्मगौरव खो चुका हो। निराशा के ऐसे कठिन समय में मेवाड़ के महाराणा प्रताप का मातृभूमि की रक्षा के लिए राजनैतिक क्षेत्र में प्रवेश हुआ।

महाराणा प्रताप का जन्म 9 मई 1540 को कुम्भलगढ़ दुर्ग में हुआ था। महाराणा प्रताप की मां का नाम जयन्ती बाई तथा पिता का नाम उदय सिंह था। अपने माता पिता की सबसे बड़ी संतान प्रताप बहुत ही स्वाभिमानी तथा सद्गुणी थे। बचपन से ही युद्ध कला उनकी रुचि का विषय था। जिस समय प्रताप का राज्याभिषेक हुआ उस समय भारत में अकबर का शासन था। अकबर बहुत ही कुटिल प्रवृत्ति का शासक था। वह हिन्दुओं के बल से ही हिन्दुओं को अपने आधीन करता था। तत्कालीन हिन्दू राजाओं की मूर्खता का अकबर ने भरपूर लाभ उठाया। हिन्दू स्वाभिमान को कुचलने के लिए अकबर ने सभी प्रकार के उपाय किए। कई राजपूत राजाओं ने तो अपने मान सम्मान को ताक पर रखकर अपनी बेटियों को भी अकबर के दरबार में पहुंचा दिया। यह भारतीय इतिहास का सबसे काला अध्याय है।

किन्तु इस विपरीत कालखंड में भी मेवाड़, बूंदी तथा सिरोही वंश के राजा अंत तक अकबर से संघर्ष करते रहे। मेवाड़ के राणा उदय सिंह का स्वतंत्र रहना अकबर के लिए असहनीय था। चूँकि मेवाड़ के राजा उदय सिंह विलासी प्रवृत्ति के थे। इसलिए अकबर ने मेवाड़ विजय के लिए भारी भरकम सेना के साथ मेवाड़ पर हमला बोल दिया। विलासी उदय सिंह का मनोबल बहुत ही गिरा हुआ था, इसलिए वह मैदान छोड़ कर भाग गया और अरावली की पहाड़ियों पर छुप गया। वहीं पर उसने उदयपुर नामक नगर बसाया और राजधानी भी बनाई। उदय सिंह ने अपनी मृत्यु के पूर्व अपनी कनिष्ठ पत्नी के पुत्र जगमाल को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया, लेकिन उसके अन्य सरदारों ने जगमाल के विरुद्ध विद्रोह कर दिया और महाराणा प्रताप को अपना राजा घोषित कर दिया। राजा घोषित होते ही प्रताप को विकट परिस्थितियों का सामना करना पड़ा। उनके भाई शक्तिसिंह और जगमाल  मुगलों से मिल गये। शत्रुओं का मुकाबला करने के लिए मजबूत सैन्य शक्ति की महती आवश्यकता थी। राणा प्रताप सदैव इसी चिंता में लगे रहते थे कि अपनी मातृभूमि को मुगलों से किस प्रकार मुक्त कराया जाये। परम पवित्र चितौड़ का विनाश उनके लिए बेहद असहनीय था। एक दिन राणा प्रताप ने दरबार लगाकर अपनी ओजस्वी वाणी में सरदारों का स्वतंत्रता की लड़ाई के लिए आह्वान किया और उनमें नया जोश भरा तथा युद्ध की प्रेरणा दी।

एक बार शीतल नामक भाट उनके दरबार आ पहुंचा और शौर्य तथा वीरता की कविताएँ सुनायीं। अप्रतिम वीरता का सन्देश देने वाली कविता सुनकर महाराणा ने अपनी पगडी़ उतारकर भाट को दे दी। जिसे पाकर वह बेहद प्रसन्न हुआ और महाराणा की प्रशंसा करके वापस चला गया।

महाराणा प्रताप ने अकबर के साथ युद्ध करने के लिए नई योजनायें बनाईं। उन्होंने संकरी घाटियों में अकबर की सेना से लोहा लेने का निर्णय लिया। महाराणा प्रताप अपनी सत्ता व राज्य की स्वतंत्रता के लिए सतत संघर्षशील रहे। महाराणा प्रताप को अपने अधीन करने के लिए अकबर ने चार बार दूत भेजे लेकिन वे सभी प्रयास विफल रहे। अकबर ने महाराणा प्रताप को मनाने के लिए जिन चार दूतों को भेजा उनमें जलाल खान, मान सिंह, भगवानदास और टोडरमल के नाम इतिहास में मिलते हैं।

महाराणा प्रताप बहुत ही स्वाभिमानी प्रवृत्ति के नायक थे। जब राणा प्रताप को अपने वश में करने के अकबर के सभी प्रयास विफल रहे तब हल्दीघाटी का ऐतिहासिक युद्ध हुआ। अकबर बहुत ही धूर्त था, इसलिए उसने अपनी दो लाख सेना का नेतृत्व सलीम व मानसिंह को सौंपा। यह युद्ध बहुत ही भयंकर था। महाराणा प्रताप ने पूरी सजगता और अप्रतिम वीरता के साथ युद्ध लड़ा लेकिन यह निर्णायक नहीं रहा। इस युद्ध में महाराणा का प्रिय चेतक बलिदान हो गया।

महाराणा प्रताप की लडा़ई जीवन पर्यंत चलती रही। इस संघर्ष में दानवीर भामाशाह ने अपनी संपत्ति दान करके अतुलनीय योगदान दिया। महाराणा प्रताप ने इस आर्थिक सहायता के बल पर अपनी खोई हुई सैन्य ताकत को फिर से खड़ा करने का प्रयास किया। इस समय प्रताप के शत्रु समझ रहे थे कि वह अपना प्रदेश छोड़ कर भाग गये हैं तथा अपने अंतिम दिन कंदराओं में बितायेंगे लेकिन ऐसा नहीं हुआ। मुगल सेनापति शाहबाज खान ने हलबीर नामक एक स्थान पर अपना डेरा डाल रखा था। महाराणा प्रताप ने अचानक उस पर धावा बोल दिया। अचानक हमले से सभी मुगल सैनिक भाग खडे़ हुये। इसी प्रकार महाराणा ने कई अन्य किले भी अपने अधीन कर लिये। बाद में उदयपुर भी राणा प्रताप के कब्जे में आ गया। इस प्रकार महाराणा प्रताप एक के बाद एक किले जीतते चले गये। महाराणा प्रताप की वीरता की बातें सुनकर अकबर भी भौंचक्का रह गया और उसने अपना सारा ध्यान दक्षिण की ओर लगा दिया।

लगातार युद्ध करते रहने और संकटों को झेलने के कारण महाराणा का शरीर लगातार कमज़ोर होता जा रहा था। अत: 19 जनवरी 1597 के दिन उन्होंने अंतिम सांस ली।

भारतीय इतिहास के पुराण पुरुष महाराणा प्रताप स्वाधीनता की रक्षा करने वाले मेवाड़ के स्वनामधन्य वीरों की मणिमाला मे सुर्कीतिमान हैं।

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