डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की रहस्यमयी मौत से पर्दा कब उठेगा?
6 जुलाई/डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी जयंती
कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल
डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की रहस्यमयी मौत से पर्दा कब उठेगा?
राष्ट्र की एकता – अखण्डता के लिए प्रतिबद्ध अपना सर्वस्व अर्पित करने वाले डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ऐसे महान व्यक्तित्व हैं, जिनका जीवनवृत्त भारतीय राजनीति में सर्वाधिक प्रभावित करने वाला रहा है। 6 जुलाई सन् 1901 में कलकत्ता के प्रतिष्ठित परिवार आशुतोष मुखर्जी के घर जन्मे डॉ. मुखर्जी अपने प्रारंभिक जीवन से ही अपने घर के परिवेश के फलस्वरूप शैक्षणिक एवं सामाजिक कार्यों के प्रति तत्परता से संलग्न रहने लगे थे। वे मैट्रिक, स्नातक एवं कानून की पढ़ाई के बाद सन् 1926 में इंग्लैंड से बैरिस्टर की डिग्री प्राप्त कर भारत लौटे। तत्पश्चात कलकत्ता विश्वविद्यालय का मात्र 32 या 33 वर्ष की आयु में उस समय कुलपति होने का गौरव प्राप्त करना अपने आप में ऐतिहासिक घटना थी। यदि एक सामान्य दृष्टि से हम देखें तो क्या एक सम्पन्न एवं प्रतिष्ठित परिवार से होने के कारण श्यामा प्रसाद मुखर्जी को स्वयं को संघर्ष में झोंकने की कोई आवश्यकता थी? लेकिन उनसे देश एवं समाज की तत्कालीन परिस्थितियों की दुर्दशा नहीं देखी गई और उन्होंने स्वेच्छा से राष्ट्र के लिए आहुति बनना स्वीकार किया।
एक चीज जो कौतूहल का विषय बनती है और वर्तमान परिस्थितियों से जब उनकी तुलना करते हैं तो कई प्रश्न मनोमस्तिष्क में गूँजते हैं। जैसे —
डॉ. मुखर्जी स्वातंत्र्य एवं स्वातंत्र्योत्तर काल के ऐसे शिखर पुरुष थे, जो सरदार पटेल, महात्मा गांधी आदि के बराबर का कद रखते थे। वहीं उनका योगदान चिर प्रासांगिक है, इसके बावजूद भी नेहरू-गांधी परिवार ने अपने सत्ता के कालखण्ड में उन्हें उपेक्षित किया? क्या उनका योगदान एक क्रांतिकारी एवं संगठक के रूप में राष्ट्र के लिए अपने आप में अद्वितीय नहीं है? मुखर्जी ने अपने जीवन को निजी स्वार्थ एवं पद – प्रतिष्ठा के मोह से विरक्त कर लिया था और ऐसा कभी नहीं हुआ, जब वे राष्ट्र के जमीनी मुद्दों पर लड़ने से पीछे हटे हों। बल्कि उन्होंने स्वयं को राष्ट्र के लिए समर्पित कर दिया।
जब सत्ता के गलियारों में कोई सांसद अपनी आवाज तक नेहरू के मत के विरुद्ध नहीं उठा सकते था। उस समय भी मुखर्जी संसद में बेबाकी से धारा-370 के लिए आवाज बुलंद कर रहे थे। एक ऐसे प्रकांड विद्वान, शिक्षाविद और राजनेता जिन्होंने देश के पहले उद्योग मंत्री रहते हुए भी सरकार को घेरा और सत्य व राष्ट्र के लिए किंचित मात्र नहीं डिगे। क्या उनमें हम किसी भी प्रकार के साहस की कमी की कल्पना कर सकते हैं? ऐसे व्यक्तित्व को हमेशा मुख्यधारा से काटना क्या भारतीय जनमानस में व्याप्त राष्ट्र-प्रेम का गला काटना नहीं था? वहीं नेहरू परिवार की पैरवी करने वाले जरा बताएँ कि मुखर्जी तत्कालीन समय में शीर्ष पर बैठने वाले राजनेताओं से किस पैमाने पर पीछे थे? चाहे शिक्षा का क्षेत्र रहा हो या राष्ट्रसेवा सेवा में तत्परता के साथ स्वतंत्र भारत के लिए नीतियों के स्पष्ट एवं दूरदर्शी रोडमैप के स्वरूप को प्रस्तुत करने का, यदि उनका आँकलन किया जाए तो वे किसी भी पैमाने पर कमतर नहीं दिखे। किन्तु उन्हें क्यों पीछे धकेला जाता रहा?
श्यामा प्रसाद मुखर्जी को अगर नेपथ्य में कोसों ढकेलने का कार्य हुआ है, तो इसकी केवल एक ही कारण दिखता है कि – नीतियों को लेकर नेहरू से राष्ट्रीय एकता एवं राष्ट्रीय हितों के विषय पर मतांतर रखना। इसके अलावा अन्य कोई कारण स्पष्ट दृष्टव्य नहीं होता है। वे मुखर्जी ही थे, जिन्होंने संकट को पहले भांपकर उसका हल खोज निकाला था। और सन् 1946 में मुस्लिम लीग के मजहबी उन्माद से प्रेरित बंगाल विभाजन के हिन्दू-सिख नरसंहार की त्रासदी के नापाक इरादों को सफल नहीं होने दिया और हिन्दुओं को सशक्त करने में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। यह बात उस समय की है, जब तत्कालीन समय में राजनैतिक हस्तक्षेप करने में सक्षम देश के किसी भी बड़े नेता की इस ओर दृष्टि नहीं जा रही थी कि –
“पाकिस्तान के लिए लड़ने वाले लोगों की कुत्सित दृष्टि सम्पूर्ण पंजाब व बंगाल को पाकिस्तान के हिस्से में मिलाने की है, जिसके लिए वे किसी भी सीमा तक गिर सकते हैं तथा मुस्लिम लीग एवं सोहराबर्दी ने बर्बरता की सारी सीमा लाँघ दी थीं।”
उस समय मुखर्जी ने अपनी कुशल दूरदृष्टि एवं रणनीतिक कौशल का का परिचय देते हुए भारत-पाकिस्तान के विभाजन के समय पंजाब एवं बंगाल के आधे-आधे भाग को विभाजित कर शेष भारत के हिस्से में करने का अतुलनीय कार्य किया था। यह एक प्रखर राष्ट्रवादी देशभक्त का संकल्प था, जिसके ह्रदय में अखण्ड भारत का संकल्प आलोड़ित हो रहा था। अपने इसी ध्येय को उन्होंने जीवन पर्यन्त निभाया ।
उन्होंने राष्ट्र की एकता – अखण्डता एवं सर्वांगीण विकास के लिए आजीवन संघर्ष किया और देश की सभ्यता, संस्कृति के साथ किसी कदम पर कोई समझौता नहीं किया। बल्कि राष्ट्रीय चेतना के प्रखर उद्घोष के साथ संसद व देश भर में अपनी आवाज बुलंद करते रहे। मुखर्जी एक बार जिस निर्णय पर डट गए तो फिर कभी पीछे नहीं हटे। भले ही इसके लिए उन्हें अपने प्राणों की बाजी ही क्यों न लगानी पड़ गई हो। राष्ट्र हित के लिए उनकी ऐसी अनन्य निष्ठा ही उन्हें विरला बनाती है। जब देश स्वतंत्र हुआ और कैबिनेट का गठन हो रहा था। उस समय डॉ. मुखर्जी – सरदार पटेल एवं महात्मा गांधी के अनुरोध पर ही मंत्रिमंडल में शामिल हुए थे और जब उन्हें नेहरू सरकार राजनैतिक स्वार्थपरता, पदलिप्सा राष्ट्र की समस्याओं एवं मुख्य उद्देश्यों से भटकती हुई दिखी, तो उन्होंने मंत्री पद से सहर्ष त्यागपत्र देकर विपक्ष में बैठकर राष्ट्र की आवाज बनना ही न्यायोचित समझा।
वे भारत में जम्मू-कश्मीर का सम्पूर्ण विलय एवं धारा -370 की समाप्ति के लिए सम्पूर्ण निष्ठा एवं समर्पण के साथ प्रतिबद्ध थे। वे इस पर नेहरू सरकार के विरुद्ध मुखरता के साथ प्रतिरोध दर्ज करवा रहे थे और राष्ट्र जागरण में जुटे थे। जब शेख अब्दुल्ला ने जम्मू कश्मीर के अलावा शेष भारत के लोगों को जम्मू-कश्मीर में बगैर परमिट प्रवेश करने पर प्रतिबंध लगा दिया था। उस समय श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने अपना आक्रोश व्यक्त करते हुए – एक देश, दो विधान, दो प्रधान, नहीं चलेंगे का उद्घोष कर कश्मीर की ओर 8 मई सन् 1953 को कूच कर दिया। जहाँ उन्हें दिनांक 10 मई 1953 को जम्मू कश्मीर की सीमा में ही शेख अब्दुल्ला सरकार ने गिरफ्तार करवा लिया। उनकी इस गिरफ्तारी में षड्यंत्रों की दुर्गंध आती थी, जिसमें तत्कालीन केन्द्र सरकार व प्रधानमंत्री नेहरू की भूमिका पर्दे के पीछे होने से इंकार नहीं किया जा सकता है। क्योंकि नेहरू व शेख अब्दुल्ला घनिष्ठ मित्र थे। नेहरू ने महाराजा हरिसिंह से सत्ता का स्थानांतरण शेख अब्दुल्ला के हाथों करवाया था।
चूँकि कश्मीर में अब्दुल्ला सरकार के द्वारा 1952 से ही वहां के डोगरा समुदाय का उत्पीड़न प्रारंभ कर दिया गया था। इसके विरोध में श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने बलराज मधोक एवं डोगरा समुदाय के प्रतिष्ठित पंडित प्रेमनाथ डोगरा के द्वारा गठित “प्रजा परिषद पार्टी’ का जम्मू कश्मीर एवं उनके हितों के लिए सदैव समर्थन देते रहे आए थे। तब अगस्त 1952 में मुखर्जी ने जम्मू की विशाल रैली में अपना संकल्प व्यक्त करते हुए कहा था कि –
“या तो मैं आपको भारतीय संविधान प्राप्त कराऊँगा या फिर इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये अपना जीवन बलिदान कर दूँगा।”
…..और अपने इस संकल्प के लिए उन्हें अपने प्राणों की आहुति देनी पड़ी। जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न अंग होते हुए भी श्रीनगर के कारावास में उनके लिए सभी प्रकार के प्रतिबंध थे। उनके साथ ऐसा व्यवहार किया जाता था, जैसे कि उन्होंने देशद्रोह किया हो। यह सब प्रधानमंत्री नेहरू व शेख अब्दुल्ला के गठजोड़ के चलते — भारत में ही संभव हो रहा था। प्रतिबंधों की कड़ाई इतनी कि – मुखर्जी के लिए आने वाली चिट्ठियों का अनुवाद करवाकर पहले जाँचा जाता था कि उनमें लिखा क्या है? इतना ही नहीं उन्हें जेल में किसी से भी मिलने की अनुमति नहीं थी। क्या यह सब नेहरू के संरक्षण व इच्छा के बिना ही हो रहा था?
नेहरू नहीं चाहते तो क्या श्यामा प्रसाद मुखर्जी गिरफ्तार होते? गिरफ्तारी हो गई, तो भी क्या नेहरू उन्हें शेख अब्दुल्ला सरकार से रिहा नहीं करवा सकते थे? क्या जम्मू-कश्मीर सरकार नेहरू के वर्चस्व से बड़ी थी? राष्ट्र के एक दैदीप्यमान दीपक को जिस तरह से बुझाने के संयुक्त प्रयास किए जा रहे थे। उसके पीछे के सभी षड्यंत्र स्पष्ट दिखलाई दे रहे थे।लेकिन उस समय उनकी प्रताड़ना पर किसी ने कभी भी उफ! तक नहीं की।
उनकी गिरफ्तारी के बाद 24 मई को प्रधानमंत्री नेहरू और डॉ. कैलाशनाथ काटजू श्रीनगर में थे, लेकिन इन लोगों ने कारावास में बंद श्यामा प्रसाद मुखर्जी का हाल-चाल तक पूछना उचित नहीं समझा। क्या यह उनकी भूमिका पर प्रश्नचिन्ह नहीं लगाता? और क्या मुखर्जी की गिरफ्तारी के प्रति पंडित नेहरू की कूटरचित संलिप्तता को नहीं दर्शाता?
मुखर्जी का स्वातंत्र्योत्तर समय में सत्तापक्ष के मंत्री पद को त्यागकर राष्ट्रहितैषी नीतियों के लिए विपक्ष बनकर उभरना और समूचे विपक्ष का नेतृत्व करने वाले ऐसे प्रकाण्ड विद्वान – राजनीतिज्ञ व्यक्तित्व को नेहरू द्वारा उपेक्षित करना – क्या कभी सही ठहराया जा सकता है? मुखर्जी के जम्मू-कश्मीर जाने पर उनकी गिरफ्तारी एवं स्थान की जम्मू-कश्मीर की शेख अब्दुल्ला सरकार को पल-पल की खबर देने वाले और परमिट सिस्टम के षड्यंत्र के अन्तर्गत उन्हें गिरफ्तार करने के साथ-साथ स्थान एवं कानूनी दाव-पेंचों का चयन करने वाले लोग कौन थे? इसका रहस्य कब बेपर्दा होगा? दशकों बाद ही सही मुखर्जी के साथ हुए षड्यंत्र का पर्दाफाश तो होना ही चाहिए।
क्या उनका अपराध धारा-370 को समाप्त करने की दृढ़ प्रतिज्ञा थी? क्या जनसंघ की स्थापना नेहरू के लिए चुनौती थी? क्या नेहरू को श्यामा प्रसाद मुखर्जी का भय सता रहा था, जिसके चलते उन्होंने षड्यंत्रों को समर्थन दिया? जेल में अचानक से मुखर्जी का स्वास्थ्य खराब होना और 23 जून 1953 को रहस्यमयी मृत्यु होना, इस संदिग्ध मृत्यु पर जाँच को नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की मृत्यु के रहस्य की तरह ही ठण्डे बस्ते में डाल देना आखिर क्या दर्शाता है?
वर्तमान में कितने भी प्रश्न उठाए जाएं, लेकिन सच्चाई यह है कि – इस राष्ट्र ने राजनैतिक षड्यंत्रों में एक ऐसे राष्ट्रीय नेतृत्व के महापुरुष को खो दिया, जिसकी साधारण जन जीवन में उपस्थिति से देश की जनता को उपलब्धियों एवं उनके प्रखर राष्ट्रवादी विचारों से लाभ ही होता। यदि उनकी षड्यंत्रों के साये में मृत्यु न होती तो सम्भवतः राष्ट्रीय मुद्दों की दशा एवं दिशा ही कुछ और होती। लेकिन दुर्भाग्यवश यह सब संभव न हो सका। जनसंघ से भाजपा तक की इस स्वर्णिम यात्रा को तय करते हुए वर्तमान की नरेंद्र मोदी सरकार ने धारा-370 को समाप्त कर श्यामा प्रसाद मुखर्जी को सच्चे अर्थों में श्रद्धांजलि देने का कार्य किया है। वर्तमान में यह आवश्यक हो चुका है कि उनके सिद्धांतों पर आधारित राजनीति को अपनाया जाए। ताकि डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी जैसे युगदृष्टा के उस स्वप्न को साकार किया जा सके, जिसे ‘अखण्ड भारत’ कहते हैं। हम सब को डॉ. मुखर्जी के इस संदेश को आत्मसात कर लेना चाहिए कि –
“राष्ट्रीय एकता के धरातल पर ही सुनहरे
भविष्य की नींव रखी जा सकती है।”