श्रीराम जन्मभूमि आन्दोलन मात्र मंदिर निर्माण के लिए नहीं था

श्रीराम जन्मभूमि आन्दोलन मात्र मंदिर निर्माण के लिए नहीं था

राम मंदिर निर्माण के शुभारंभ दिवस (5 अगस्त) पर विशेष

डॉ. श्रीकांत

श्रीराम जन्मभूमि आन्दोलन मात्र मंदिर निर्माण के लिए नहीं था

सदियों की स्वप्नपूर्ति का दिन था, 5 अगस्त, 2020, जो सदियों के संघर्ष व श्रीराम जन्मभूमि आंदोलन के प्रतिफल के रूप में हमें प्राप्त हुआ था।

श्रीराम जन्मभूमि आंदोलन अयोध्या में मंदिर निर्माण के लिए तो था ही, घोषित रूप से था। लेकिन, इसका उद्देश्य पूरे राष्ट्र को मन्दिर निर्माण से जोड़ना भी था। मन्दिर से राष्ट्र को और समूचे राष्ट्र को राष्ट्रीय भाव से भी जोड़ना था, प्रभु श्रीराम ने इस देश की उत्तर से दक्षिण की यात्रा करके उसे जोड़ा। देश की एकता, अखण्डता, एकात्मता, समरसता, संस्कृति, संस्कार व परम्पराओं को भी जागृत करने की आवश्यकता थी, इसलिए इन सब बातों के जागरण का भी यह आन्दोलन था।

सम्पूर्ण भारत की सहभागिता

मन्दिर तो अयोध्या में बनना था, परन्तु रामशिला पूजन महाराष्ट्र-गुजरात में भी हुआ था तो कर्नाटक-तमिलनाडु-केरल में भी हो रहा था बंगाल-बिहार-ओड़िशा-असम में भी हुआ था तो कश्मीर-हिमाचल-राजस्थान में भी हो रहा था।समूचे देश को पता चलाना था कि प्रभु श्रीराम की पावन जन्मभूमि मुक्त नहीं है। श्रीराम जन्मभूमि मन्दिर स्वतन्त्र भारत में भी स्वतन्त्र नहीं है।

आंदोलन किसी के विरोध में नहीं था

राम मन्दिर आन्दोलन न तो शासन-प्रशासन के विरुद्ध था और न ही किसी अन्य मतावलम्बी के विरोध में। पूरे देश से अयोध्या तक पहुँचने के रास्ते में अनेक मस्जिद आती होंगी, लेकिन इस आन्दोलन के दौरान किसी भी मस्जिद को हाथ नहीं लगाया गया। कहीं पर भी इस समूचे आन्दोलन के दौरान शासन-प्रशासन के विरुद्ध कोई धरना-प्रदर्शन नहीं हुआ। सब कुछ राममन्दिर और समाज जागरण के लिए था।

राष्ट्रीय स्वाभिमान का जागरण

इसका सम्बन्ध राष्ट्रीय स्वाभिमान के जागरण से भी था। गुलामी का प्रतीक था बाबरी ढांचा। स्वतन्त्र स्वाभिमानी राष्ट्र का नागरिक किसी भी दासता के प्रतीक को सहन नहीं कर सकता। भारत स्वाधीन हुआ तो देश में से विक्टोरिया, जॉर्ज पंचम आदि विदेशी शासकों की मूर्तियाँ-पुतले इत्यादि हटाये गये थे। वास्तव में, उसी समय राष्ट्रीय अस्मिता के इन तीर्थ स्थलों पर बने विधर्मी प्रतीकों को भी हटा देना परम आवश्यक होना चाहिए था। परन्तु नहीं हुआ इसलिए राष्ट्र की सामर्थ्य खड़ा करने की आवश्यकता पड़ी।

सकारात्मक भाव निर्माण

1150 वर्ष तक इस्लाम तथा 200 वर्ष तक अंग्रेजी दमन के प्रयास चले। सबसे प्राचीन समाज का अनेक विकृतियों से सम्पर्क हुआ, जिसका कुछ न कुछ दुष्प्रभाव होना तो स्वाभाविक ही था। हमारे धर्म स्थल प्रदूषित किये गये, देश की सामाजिक समरसता में अनेक छिद्र हो गये, जातियों की दीवारें खड़ी हो गईं, ऊँच-नीच का भाव आ गया, समाज में विघटन पनप गया, अपनी इतिहास परम्परा का विस्मरण हो गया, राष्ट्र-महापुरुष-धर्म-संस्कृति आदि के प्रति श्रद्धा-भक्ति में कुछ कमियाँ प्रवेश कर गईं, देशभक्ति का भी व्यापक स्तर पर लोप जैसा हो गया, स्वार्थ व सत्तावलम्बन गहरा होता चला गया।

इन सब बातों के प्रति समाज में एक सकारात्मक भाव पैदा हो सके इसके लिए राम आन्दोलन से अच्छा व सुसंगत कोई दूसरा अभियान नहीं हो सकता था। इस आन्दोलन की जिस प्रकार चरणबद्ध योजना बनी और परिस्थितियों के अनुसार कुशल व प्रत्युत्पन्नमति युक्त नेतृत्व ने जो चरण स्थापित किये उनसे उद्देश्य की दिशा में सफलता मिलती चली गयी।

व्यापक जन -जागरण

सन्तों द्वारा गठित ‘श्रीराम जन्मभूमि मुक्ति यज्ञ संघर्ष समिति’ ने 1983 में ‘श्रीराम जानकी रथ यात्रा’ निकाली थी। अपार जन-समूह इसके साथ चला। 1984 में लखनऊ में एक बड़े कार्यक्रम के साथ यह यात्रा सम्पन्न हो गयी।

आन्दोलन के महामार्ग में मुख्यतः 1989 का शिलान्यास व 1990 व 92 की कारसेवाएं मील के पत्थर की तरह हैं।शिलान्यास के पूर्व श्रीराम शिला पूजन तथा 1990 की कारसेवा के पूर्व श्रीराम खड़ाऊ पूजन व दीपावली पर श्री राम ज्योति घर-घर पहुँचाने के कार्यक्रम सम्पन्न हुए। ये सभी कार्यक्रम जन-जागरण के निमित्त आयोजित किये गये थे। जन-जागरण हो-हल्ला वाला नहीं था। वह था भारतीय अर्थात् हिन्दू संस्कृति के संस्कार तथा हिन्दू समाज की एकता व एकरसता को पुष्ट करने वाला।

समरसता-समानता का भाव

श्रीराम शिला पूजन के कार्यक्रम देशभर में नगरीय-ग्रामीण-वनवासी-गिरवासी सभी क्षेत्रों के लाखों ग्राम व बस्तियों में प्रभावी रूप से सम्पन्न हुए। सभी जाति-बिरादरी व समाजों के बन्धु-भगिनी उसकी पूजा करते थे। सवा रुपए की राशि चढ़ातेथे। कहीं भी छुआछूत या अन्य किसी प्रकार का भेदभाव नहीं देखा गया। समूचा गाँव व बस्ती इस अवसर पर भगवान श्रीरामके नाम पर सर्व दूर एकत्व, समरसता व समानता के भाव से युक्त दिखा। इसी आधार पर लाखों समाज बन्धु-भगिनी विश्व हिन्दू परिषद, बजरंग दल व राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साथ आये। 9 नवम्बर, 1989 को अयोध्या में अनुसूचित जाति के बन्धु कामेश्वर चौपाल के कर-कमलों से शिलान्यास का पावन कार्यक्रम सम्पन्न हो गया।

सांस्कृतिक जागरण

श्रीराम खड़ाऊं पूजा के समय भी सारे देश में यही अद्भुत भाव प्रकट हुआ। ऐसा लगता था जैसे इन कार्यक्रमों ने सारे देश के हिन्दू समाज को एक चौखट पर लाकर खड़ा कर दिया हो। देशभर में एक महान सांस्कृतिक जागरण के महापर्व के रूप में ये कार्यक्रम देखे गये। दीपावली के पर्याप्त पूर्व अयोध्या में सन्तों द्वारा वैदिक मन्त्रों के साथ अरणी मन्थन करके श्रीराम ज्योति प्रकटाई गयी।

श्रीराम ज्योति अयोध्या से सारे प्रान्तों को भेजी गयी। दीपावली के पूर्व हर घर व हर परिवार के पास राम-ज्योति थी। सारे देश में उस वर्ष दीपावली के दीप राम-ज्योति से ही प्रज्वलित किये गये।

देशभक्ति का ज्वार

इन कार्यक्रमों का सुपरिणाम था कि देश भर में देशभक्ति व राम-भक्ति का प्रबल ज्वार खड़ा हो गया। देश-भक्ति यानी राम-भक्ति, राम-भक्ति यानी देश-भक्ति बन गयी। कारसेवा में इसका साक्षात् स्वरूप प्रकट हुआ। देशभर की सभी जातियों, वर्गों, भाषा-भाषियों तथा प्रान्तों के महिला और पुरुष इस कारसेवा में उपस्थित हुए।

उत्तर प्रदेश की जनता ने कारसेवकों की सभी भेदभावों से ऊपर उठकर प्रभु श्रीराम के भक्तों के रूप में सेवा की। लोगों ने कारसेवकों-रामभक्तों को अपने घरों के भीतर ठहराया तथा घर के लोग घर के बाहर ठहरे। कारसेवकों के पैरों में पैदल चलने के कारण सूजन आ गयी थी, छाले पड़ गये थे, पैरों में घाव हो गये थे, थकान की तो सीमा ही टूट गई थी। गर्म पानी से पैरों की सफाई व सिंकाई की, औषधि लगायी। उनके हाथ-पैरों को दबाया, ताजा भोजन कराया। सेवक और सेवित एक दूसरे की भाषा नहीं समझते थे, परन्तु भावों से सुपरिचित थे।

उत्तर में उत्तर प्रदेश तो कारसेवक एकदम तमिलनाडु के रामेश्वरम् व कन्याकुमारी से, केरल से, कर्नाटक से भी आये थे। कोई किसी की भाषा का एक शब्द भी नहीं जानते थे, रामेश्‍वरम् वाला बोलता था अम्मा, पानी। इसी से सारे भाव समझ में आ जाते थे। राम भक्त इतने भावुक होकर लौटे कि लौटकर अपने-अपने गाँव में भावुक होकर, रो-रो कर संस्मरण सुनाये। उत्तर -दक्षिण का भाव समाप्त हो गया। निरपेक्ष सेवा भाव देखकर वे अभिभूत हो गये।

रामराज्य सा भाव

किसी भी व्यक्ति ने एक भी रामभक्त से अथवा कारसेवक से उसकी जाति नहीं पूछी। इनमें सभी जातियों के, विविध भाषा-भाषी तथा सभी प्रान्तों के कारसेवक थे। परन्तु सभी की जातिएक ही थी-रामभक्त।

रामभक्तों में बड़ी संख्या माता और बहनों की भी थी। माताएं-बहनें आभूषण धारण करके भी आई थीं। कारसेवक उल्टे-सीधे ऊबड़-खाबड़ जंगली राहों से समय-बेसमय भी अर्थात् दिन-रात चलकर आये थे। लेकिन इस विशाल महाकाय कार्यक्रम में एक भी लूटपाट, असुरक्षा या दुश्चारित्य आदि किसी भी प्रकार का अप्रिय समाचार या घटना नहीं घटी। बिल्कुल रामराज्य की तरह कारसेवक रामभक्त निश्चिन्त निर्भय थे-

बयरु न कर काहू सन कोई।

रामप्रताप विषमता खोई॥

दैहिक दैविक भौतिक तापा।

राम राज नहिं काहुहि ब्यापा॥

(उत्तरकाण्ड)

अपमान का प्रतीक ध्वस्त

30-31 अक्टूबर व 1 नवम्बर को कारसेवा हुई। 2 नवम्बर कोराज्य सरकार ने रामभक्तों पर गोली चलवा दी। अयोध्या रक्तरंजित हो गई, फिर भी राम भक्तों के मन में श्रद्धा के भाव थे।

दमन से कुचली हुई अयोध्या ! तू उदास न हो।

हम अपने कफन ले, फिर वहीं से गुजरेंगे॥

पूज्य सन्तों की योजना से अस्थि-कलश यात्रा निकाली गई। 6 दिसंबर, 1992 को पुनः कारसेवा आयोजित की गई इसके पूर्व न्यायालय का निर्णय आने वाला था। परन्तु, उसे 11 दिसम्बर, 1992 तक के लिए सुरक्षित रख लिया गया। गुस्साए राम भक्तों ने विवादित ढाँचे को भूमिसात कर दिया। अपमान का प्रतीक ध्वस्त कर स्वाभिमान की दहलीज पर गौरव के कदम जमा दिये।

आज सभी प्रकार की न्यायिक, प्रामाणिकता तथा सहमति से सम्बन्धित बाधाएँ दूर हो चुकी हैं। उच्चतम न्यायालय का निर्णय प्रभु श्रीराम के पक्ष में आ चुका है और अब मन्दिर का पुनर्निर्माण प्रारम्भ हो गया है।

राष्ट्र की चिति को जगाने वाला

स्वातन्त्र्योत्तर काल में समाज जागरण का समूचे विश्व में यह राम-आन्दोलन का उपक्रम अद्वितीय था। श्रीराम मन्दिर निर्माण का उज्ज्वल दृश्य तो हमारी आँखों के सामने है। परन्तु यह दृश्य निर्माण होने में जो तन्त्र इसकी नींव में प्रयुक्त हुआ है वह इस अभियान की दृश्यादृश्य फलश्रुति है। इसलिए यह राम मन्दिर आन्दोलन केवल एक मन्दिर निर्माण के लिए नहीं, बल्कि इस राष्ट्र-मन्दिर की अन्तश्चेतना को झकझोर कर राष्ट्र की चिति (आत्मा) को जगाने वाला था। भारत के इतिहास में राष्ट्र के आत्मविश्वास को दृढ़ता प्रदान करने वाला था जिससे भारत की वर्तमान और भावी पीढ़ियां गर्व से कह सकें कि

“हम आज भी विजयी पुरखों की विजयी सन्तान हैं।” •

(लेखक संघ के क्षेत्रीय बौद्धिक शिक्षण प्रमुख हैं)

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