संतों का अपमान और उन पर हमला सनातन समाज की अस्मिता पर आक्रमण है
प्रणय कुमार
पालघर के उन संतों की चिता की आग अभी ठीक से ठंडी भी न होने पाई थी कि राजस्थान के करौली में एक पुजारी को ज़िंदा जलाकर मार डाला गया। क्या ऐसी घटनाओं को देखकर समाज और व्यवस्था के कलेजे में हूक नहीं उठनी चाहिए? ऐसे प्रसंगों एवं घटनाओं में सर्व साधारण का मौन अखरने वाला है।
भारत एक धर्म प्रधान देश है। आस्था एवं श्रद्धा इस देश की प्राणशक्ति है। जड़ से लेकर चेतन तक हमारी आस्था एवं श्रद्धा का विस्तार है। जागरण से लेकर शयन तक की अपनी दिनचर्या का यदि हम सूक्ष्मता से निरीक्षण करें तो पाएँगें कि हमारे सभी कार्यों के पीछे आस्था और श्रद्धा एक प्रेरक-शक्ति के रूप में न्यूनाधिक अनुपात में सदा उपस्थित रहती है। हमने गाँव-घर, खेत-खलिहान, नदी-तट, जंगल-पर्वत, धरती-आकाश, सूरज-चाँद सबमें अपनी श्रद्धा-भावना को प्रतिष्ठापित किया। घटाटोप अँधेरों भरे दौर में भी लोक की आस्था और श्रद्धा का यह अंतर्दीप सदा जलता रहा है और समाज एवं मनुष्यता का पथ आलोकित करता रहा है। श्रद्धा-आस्था-विश्वास की यह थाती दुनिया को भारत की अनूठी देन है। यह लोक के संचित अनुभवों का सार है। सहस्त्राब्दियों से इसके बल पर हम समय के शिलालेख पर अपनी छाप छोड़ते आए हैं और तमाम झंझावातों एवं तूफानों के बीच भी अपने सांस्कृतिक सूर्य को डूबने से बचाते रहे हैं। इस सांस्कृतिक सूर्य का दैदीप्यमान प्रतीक है भगवा। स्वाभाविक है कि इसे धारण करने वाला संत समाज हमारी आस्था एवं श्रद्धा का उच्चतम केंद्र बिंदु है।
सांसारिक माया-मोह एवं भौतिक आकर्षणों से मुक्त सेवा, संयम, त्याग एवं वैराग्य के पथ का अनुसरण करने वाले साधु-संत भारतीय समाज में प्राचीन काल से ही मान्य एवं पूज्य रहे हैं। ऋषियों-संन्यासियों की आज्ञा पाकर यहाँ की राजसत्ता महलों और राजमार्गों का परित्याग कर धूल भरी पगडंडियों-बीहड़ों-वनों का अनुसरण करती रही है। भारत की राजसत्ता ने भोगयुक्त वैभव एवं ऐश्वर्य में नहीं बल्कि त्याग, तपस्या और वैराग्य में जीवन का सुख और सत्य पाया है और उसे दुःखी मानव के त्राण के लिए मुक्त हस्त से सारे संसार में बाँटा और लुटाया है। वशिष्ठ-बाल्मीकि-विश्वामित्र से लेकर बुद्ध-महावीर-शंकराचार्य और आधुनिक काल में भी स्वामी विवेकानंद, महर्षि दयानंद, स्वामी अरविंद तक- सबने अपने-अपने ढ़ंग से भारत की ऋषि-परंपरा को आगे बढ़ाया एवं उसे नई ऊँचाई प्रदान की। वह भारत की ऋषि एवं संत परंपरा ही है जिसने सनातन की सांस्कृतिक धारा को अवरुद्ध होने से बचाया। काल के प्रवाह में आए दूषण को प्रक्षालित कर उसे शुद्ध-सतत पुण्यसलिला के रूप में ग्राह्य, गतिशील एवं समयानुकूल बनाया। आज भी तमाम साधु-संत अपने-अपने ढ़ंग से भारत की समृद्ध सांस्कृतिक धारा को आगे बढ़ाने में अपना योगदान दे रहे हैं। शिक्षा-सेवा-चिकित्सा के तमाम प्रकल्पों का सफल संचालन कर रहे हैं। भारत को भारत बनाए रखने में इन साधु-संतों का अप्रतिम योगदान है। जिसे हम भारतीय संस्कृति कहकर दुनिया भर में प्रचारित कर गौरवान्वित महसूस करते हैं वह इन्हीं संतों-तपस्वियों-मनीषियों के द्वारा रची-गढ़ी गई है।
दुःख और आश्चर्य है कि आज उसी भारतवर्ष में भगवाधारी संतों पर प्राणघातक हमले हो रहे हैं। पालघर से लेकर करौली तक, चंडीगढ़ से लेकर नांदेड़ तक, मुरादाबाद से मुर्शिदाबाद तक साधु-संतों पर हुए हमले न केवल पुलिस-प्रशासन के लिए बल्कि एक समाज के रूप में हमारे लिए भी चिंता एवं सरोकार का विषय होना चाहिए। मनुष्यता का इससे क्रूर एवं वीभत्स चित्र (कदाचित कारुणिक भी) शायद ही कभी किसी के दृष्टिपटल पर उभरा हो कि एक निरीह-निर्दोष-निहत्था-बूढ़ा संत हिंसक भीड़ से अपने प्राणों की रक्षा के लिए वहाँ उपस्थित पुलिसकर्मियों से करुण गुहार लगा रहा हो और पुलिस चुपचाप खड़ी तमाशा देख रही हो। पुलिस-प्रशासन की कर्त्तव्यहीनता का संभवतः यह सबसे काला अध्याय हो। पालघर के उन संतों की चिता की आग अभी ठीक से ठंडी भी न होने पाई थी कि अब राजस्थान के करौली में एक पुजारी को ज़िंदा जलाकर मार डाला गया। क्या ऐसी घटनाओं को देखकर समाज और व्यवस्था के कलेजे में हूक नहीं उठनी चाहिए? क्या ये घटनाएँ व्यवस्था को विचलित कर देने वाली नहीं हैं? ऐसे प्रसंगों एवं घटनाओं में सर्व साधारण का मौन भी अखरने वाला है। किसी भी सभ्य एवं संवेदनशील समाज में बूढ़ों-अशक्तों-सुपात्रों-सज्जनों के प्रति सर्वाधिक संवेदनशीलता पाई जाती है।
साधु-संतों पर होने वाले हमलों के संदर्भ में व्यवस्था एवं समाज के बड़े हिस्सों की चुप्पी सूक्ष्म एवं विस्तृत पड़ताल की माँग करती है। विगत कई दशकों से कला, साहित्य, सिनेमा जैसे माध्यमों द्वारा साधु-संतों की नकारात्मक छवि लगातार प्रस्तुत की जाती रही। आईआईएम अहमदाबाद के एक प्राध्यापक द्वारा किए गए शोध के अनुसार विगत छह दशकों से सिनेमा ने बड़ी आयोजनापूर्वक सनातन के इन पहरुओं की छवि धूमिल की, उनका उपहास उड़ाया या उनकी मान्यताओं का अवमूल्यन किया। विदेशी जड़ों से जुड़े सत्ता प्रतिष्ठानों ने बड़ी कुटिलता से उनकी इस सोच को पाला-पोसा, खाद-पानी देकर बड़ा किया। आज बड़ी संख्या में ऐसे नौजवान हैं, जो वामपंथी-विदेशी नैरेटिव के शिकार होकर इन साधु-संतों, मठों-देवालयों को निरर्थक मानते हुए इन्हें उपेक्षा एवं तिरस्कार की दृष्टि से देखते हैं।
साधु-संतों के प्रति उपेक्षा, घृणा एवं तिरस्कार को पालने-पोसने में स्वतंत्रता-पूर्व से लगातार चलाए जा रहे धर्मांतरण-अभियान की भी विशेष भूमिका है। भोले-भाले, साधनरहित गरीबों-वंचितों-वनवासियों को तरह-तरह के प्रलोभन देकर, शिक्षा-चिकित्सा की आड़ लेकर हिंदू धर्म से परकीय संप्रदायों में मतांतरित किया जाता है। इस मतांतरण के लिए ईसाई-इस्लामिक मान्यता वाले देशों एवं वैश्विक स्तर की अब्राहमिक-मसीही संस्थाओं द्वारा पैसा पानी की तरह बहाया जाता है। नव मतांतरित व्यक्तियों-समूहों के समक्ष अपने नए संप्रदाय के प्रति निष्ठा प्रदर्शित करने का अतिरिक्त दबाव बना रहता है। हिंदू संस्थाओं या साधु-संतों पर किया गया हमला उन्हें वहाँ न केवल स्थापित करता है, अपितु नायक जैसी हैसियत प्रदान करता है। कभी सेवा के माध्यम से, कभी शिक्षा के माध्यम से, कभी साहित्य के माध्यम से, कभी आर्य-अनार्य के कल्पित ऐतिहासिक सिद्धांतों के माध्यम से नव मतांतरितों के रक्त-मज्जा तक में इतना विष उतार दिया जाता है कि सनातन परंपराओं के प्रतीक और पहचान भगवा से उन्हें आत्यंतिक घृणा हो जाती है। यह घृणा कई बार इस सीमा तक बढ़ जाती है कि वे निरीह साधु-संतों और उनके सहयोगियों पर प्राणघातक हमले कर बैठते हैं।
संतों पर हमला और उनके साथ दुर्व्यवहार और अपमानजनक घटनाएं पूरे भारत और सनातन समाज के लिए अपमानजनक है, जिनका हर तरीके से, हर मोर्चे पर और हर माध्मय से करारा जबाव दिया जाना चाहिए। भारतीयता और सनातन परंपराओं और संस्कृति के वाहक इन संतों की रक्षा, सुरक्षा और स्वाभिमान के संरक्षण का दायित्व निश्चित रूप से सनातन समाज के हर व्यक्ति का है।