बचपन से सिखाएं संयम और जीवन मूल्य

बचपन से सिखाएं संयम और जीवन मूल्य

अवनीश भटनागर

बचपन से सिखाएं संयम और जीवन मूल्य

‘संयममय जीवन हो’ – यह गीत अनुप्राणित करता है, प्रेरणा देता है, जीवन की दृष्टि देता है। परन्तु जरा निष्पक्ष आत्म समीक्षा करके देखें, क्या वास्तव में हम जीवन में संयम का पालन कर पाते हैं अथवा यह गीत केवल कार्यक्रमों में दोहराये जाने वाला कर्मकाण्ड भर रह जाता है?

संयम अर्थात् मर्यादान्तर्गत क्रिया। प्रकृति ने सृष्टि के क्रम को व्यवस्थित चलाये रखने के लिए प्रत्येक तत्व, वस्तु और व्यक्ति की मर्यादा निर्धरित की है। उस मर्यादा का पालन करना ही संयम है। शरीर को चलाने के लिए भोजन आवश्यक है अतः भूखा रहना भी प्रकृति के विरुद्ध है और भूख से अधिक खाना भी। शरीर की आवश्यकता से अधिक खाना मर्यादा के विरुद्ध है तो प्रकृति किसी न किसी रोग-व्याधि के रूप में उस मर्यादा उल्लंघन का दण्ड भी देती है।

‘वाचाल’ और ‘मूक’ के बीच की स्थिति ‘संयमी’ की होती है। संयमहीन व्यक्ति स्वयं भी कष्ट भोगता है, औरों को भी कष्ट में डालता है।

असंयम के मूल में कारण है असंवेदनशीलता। जब व्यक्ति आत्मकेन्द्रित होकर केवल अपनी व्यक्तिगत सुख-सुविधा, मान-सम्मान, रुचि-अरुचि, लाभालाभ का ही विचार करने लगता है तो वह मर्यादाओं का, संयमशीलता का ध्यान नहीं रख पाता। ईशावास्योपनिषद का प्रथम श्लोक- ‘ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किंचा जगत्यांजगत्, तेन त्यक्तेन भुजींथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम्’ – भारत की जीवनदृष्टि है। प्रकृति से उतना लेना, जितना मेरी आवश्यकता की पूर्ति के लिए आवश्यक हो। परन्तु इस ‘आवश्यकता’ शब्द की ठीक-ठीक समीक्षा भी आवश्यक है। ‘Need’ can be satisfied, but ‘greed’ cannot be. संवेदनशीलता के अभाव में अपनी आवश्यकता तो महत्वपूर्ण दिखाई देती है परन्तु Need और  greed के बीच की बारीक सी विभाजक रेखा की ओर ध्यान नहीं जाता। इसीलिए असंयम और गैर-जिम्मेदारी, साथ-साथ स्वभाव का अंग बनते हैं।

प्रत्येक पिछली पीढ़ी को लगता है नई पीढ़ी विचारहीन है, संवेदनहीन है, संयमहीन है, गैर-जिम्मेदार है। यह ‘कहानी घर-घर की’ है परन्तु फिर एक निष्पक्ष आत्मालोचना की आवश्यकता है – क्या हमने कभी ईमानदार और आग्रहपूर्ण प्रयास किया नई पीढ़ी को संयम, आत्मानुशासन, संवेदनशीलता और जिम्मेदारी सिखाने का? संयमपूर्ण-मर्यादापूर्ण-विवेकपूर्ण आचरण के संस्कार के बीज बचपन से ही डाले जायेंगे तब तो बड़े होकर पुष्पित-पल्लवित होंगे, परिवार और समाज की बगिया को अपनी सुगंध से भरेंगे। हम ‘बड़ों’ के विचारार्थ मैं ऐसे ही कुछ बिन्दु प्रस्तुत कर रहा हूँ, क्योंकि ये संस्कार तो बचपन से ही, परिवार में ही सिखाये जा सकते हैं, कोई स्कूल-कालेज नहीं सिखा सकता। कहा जाता है ‘माता प्रथम गुरुः’ अतः यह दायित्व ‘माताओं’ पर थोड़ा और अधिक आ जाता है क्योंकि प्रायः परिवार में ‘पिताजी’ के पास तो फुरसत और धैर्य, दोनों का ही अभाव रहता है। तो प्रस्तुत है, साधारण सी प्रतीत होने वाली ‘संयम’ की विधायें:

स्वाद संयम – स्वयं को स्पष्ट कर लें, स्वाद संयम को अर्थ ‘निःस्वाद’ भोजन नहीं है। खाने के प्रकार या वस्तु के विषय में जिद नहीं करना। घर में सामान्यतः जो बना हो, उसे रुचि अनुसार थोड़ा या अधिक खाना अवश्य ; आखिर आप उसे कोई नुकसान पहुंचाने वाली वस्तु तो नहीं खिला रहे होंगे। खाते समय मुँह न बनाना, थाली में जितना परोसा गया उतना खाना अथवा इसके विपरीत, जितना खाना है उतना ही लेना। भूख लगी हो, तब खाना, जितनी भूख हो उतना खाना – न कम, न स्वाद के कारण अधिक। परिवार के सदस्यों के साथ बैठकर, शान्तिपूर्वक अथवा सहज हल्की-फुल्की, सरस बातें करते हुए, सुसंस्कृत लोगों की भाँति खाना, टीवी देखते हुए नहीं खाना तथा स्वास्थ्य सम्बन्धी भोजन के सामान्य, सध जाने वाले नियमों का पालन करना – ये सब प्रकृति की मर्यादाएँ अर्थात्-संयम ही तो हैं। शायद थोड़ा कठिन लगें, परन्तु बच्चों को समझाकर, धैर्यपूर्वक, अभ्यास और सजगता के साथ इन छोटी-छोटी बातों को सिखाना असंभव नहीं है।

‘‘हमारे पास किस बात की कमी है जो बच्चों को उनकी पसन्द का न खिलायें-पिलायें’’, प्रायः ऐसा भी विचार आता है। परन्तु जब आप यह तय कर लेते हैं कि ‘स्वाद’ और ‘स्वास्थ्य’ में से किसे अधिक महत्व देना, तो उत्तर स्वयं मिल जाता है।

वाणी संयम – कितना बोलना, किससे कैसे बोलना, कहाँ या किन परिस्थितियों में किन बातों का ध्यान रख कर बोलना, क्या नहीं बोलना ; अपशब्द आदि शब्दों का उच्चारण कैसे करना ; हड़बड़ी में, अटक कर, बार-बार दोहरा कर, झुंझला कर, शब्दों को चबा-चबा कर या अस्पष्ट रीति से बोलना आदि किसी को भी खराब लगते हैं। किसके प्रति कैसे सम्बोधन करना आदि ऐसी बातें हैं जो बालक को परिवार से ही सीखने को मिलती हैं। किसी के प्रत्यक्ष दिखाई देने वाले आचरण का प्रथम दर्शन तो वाणी से ही होता है। कहा गया है- ‘आचारः कुलमाख्याति’ अर्थात् किसी की पारिवारिक पृष्ठभूमि का पता उसके आचरण से ही लगता है।

‘अभी तो बच्चा है, बड़ा होगा तो खुद-ब-खुद सीख जायेगा’ प्रायः परिवारों में ऐसा सुनने को मिलता है। सत्य इसके उलट है। बड़ा होने तक यह उसके स्वभाव का अंग बन चुका होगा। ध्यान करें, पौधे रोपे जाते हैं, वृक्ष नहीं।

समय संयम – दिन और रात मिलाकर सभी के लिए चौबीस घण्टे का ही समय होता है। इसका भी हिसाब-किताब क्या धन-सम्पत्ति के हिसाब की तरह ही नहीं रखा जाना चाहिए? बल्कि उससे भी ज्यादा, क्योंकि धन-सम्पत्ति तो दुबारा कमाये जा सकते हैं, समय नहीं। किस काम में कितना समय लगाना चाहिए और बीते हुए समय का कितना सही उपयोग हुआ और कितना व्यर्थ गया, इसकी चर्चा भी बच्चों के साथ कभी-कभी सहज वातावरण में की जानी आवश्यक है। आज की भाग-दौड़ और प्रतिस्पर्धा वाली जिन्दगी में तो समय प्रबन्धन की महत्ता और अधिक हो गई है। आखिर उसे भी तो बड़े होकर जीवन में स्थापित होना है। तब समय के सदुपयोग या संयम का यह सद्गुण उसे सबसे आगे रहने में मदद करेगा।

समय संयम का अर्थ बार-बार की टोका-टाकी नहीं है और न ही उसे मशीन की भाँति काम में जोते रखना। समय को योजनापूर्वक, विवेकपूर्वक, व्यवस्थित दिनचर्या के साथ उपयोग करना सिखाना, यही मात्रा उद्देश्य है।

अर्थ संयम – पैसा कमाना तो शायद वे बड़े हो कर सीखेंगे परन्तु खर्च करना तो उन्होंने बचपन से ही जान लिया है। किस प्रकार खर्च करना और अपव्यय नहीं करना, यह बचपन से सिखाने की आवश्यकता होती है। बात बहुत तुच्छ सी लगेगी परन्तु सामान्यतः देखने में आता है कि बच्चा पेन्सिल छीलता है तो खेल-खेल में ही आधी कर देता है, कापी के पन्ने फाड़ता है, पुस्तक वर्ष भर नहीं चल पाती। उपयोग की वस्तुएँ नष्ट होती हैं, गुम हो जाती हैं, अनावश्यक वस्तुएँ खरीदी और संग्रह की जाती हैं। ‘जहाँ आवश्यक हो वहाँ लाखों खर्च करने में हिचकना नहीं परन्तु अनावश्यक एक पैसा भी व्यय करना नहीं’ – यह जीवन पद्धति बच्चों को सिखाना आवश्यक है। वस्तुएँ खराब न हों, टूटें-फूटें नहीं, गुम न हों, इसके लिए बच्चे को एकाग्रता और कुशलता के सद्गुणों का विकास करना होता है। जीवन-व्यवहार में सपफलता के लिए आप इन दोनों सद्गुणों की अपरिहार्यता को नकार सकते हैं क्या?

यहाँ वही विचार फिर हमें घेर लेता है – ‘हमारे पास किस बात की कमी है जो बच्चों को जरा-जरा सी बात के लिए टोकें-डाँटे या कँजूसी दिखायें।’ मेरा निवेदन है- टोकने या डाँटने से कोई बात सिखाई नहीं जा सकती और दूसरी बात यह कि ‘मितव्ययता’ और ‘कंजूसी’ में अंतर है। चार रोटी की आवश्यकता होने पर चार रोटी बनाना मितव्ययता है, सदुपयोग है, संयम है। तीन रोटी बनाना कंजूसी है और पाँच रोटी बनाकर एक को डस्टबिन में डालना अपव्यय है, और बन ही गई है तो खत्म करने के लिए जबर्दस्ती खाना-असंयम है।

इन्द्रिय संयम – बच्चों के लिए यह विषय? शायद कुछ असंगत सा लगे, परन्तु जब बच्चा इन्द्रियाँ जन्म से ही साथ लेकर आता है तो उन पर संयम कब सिखाया जायेगा? हाँ, आयु का, सहनशक्ति का विचार करना आवश्यक होगा। मानव शरीर पाँच कर्मेन्द्रियों और पाँच ज्ञानेन्द्रियों का समुच्चय है। इनका नियंत्रण करने वाला तत्व है ‘मन’ जो कि अत्यन्त चंचल है, संकल्प-विकल्प में फँसा रहने वाला है। ‘संकल्प’ अर्थात् ‘सम्यक् कल्प’, जिनके लिए आज मनोविज्ञान में सकारात्मक मनोभाव (Positive emotions) शब्द प्रयोग किया जाता है। ‘विकल्प’ अर्थात् ‘विरूद्ध कल्प’ अर्थात् Negative emotions। सकारात्मक सोच और अभिवृत्ति को जीवन में सपफलता का कारक माना जाता है। तो क्या आप नहीं चाहेंगे कि आपके बच्चों में इन सकारात्मक प्रवृत्तियों का विकास बचपन से ही हो ताकि वे बड़े होकर सपफलता की सीढ़ियाँ चढ़ते जायें?

इन्द्रिय संयम अर्थात् मन का इन्द्रियों पर नियंत्रण । परन्तु जो स्वयं चंचल हो, वह कैसे नियंत्रण करेगा। अतः उस पर भी किसी का नियंत्रण होना चाहिए। श्रीमद्भगवदगीता में उपमा आती है : यह शरीर एक रथ के समान है जिसमें पाँच कर्मेन्द्रिय और पाँच ज्ञानेन्द्रिय रूपी दस अश्व जुते हैं। अश्व का स्वभाव है, जिधर मुँह उठे, उधर भागना। अतः उनका नियंत्रण करने के लिए ‘वल्गा’ ; लगाम है – मन। परन्तु लगाम स्वयं नियंत्रण नहीं करती, नियंत्रण करता है उस लगाम को थामने वाला व्यक्ति अर्थात् सारथी। यह सारथी की भूमिका ‘बुद्धि’ की है। मन संकल्प-विकल्प करता है, बुद्धि निर्णय करती है। इसके लिए निर्णय के पूर्व आवश्यकता होती है सही जानकारी के संग्रह की, संश्लेषण-विश्लेषण की, तुलना की, तर्क की, समीक्षा की, विवेक की- ये सब बुद्धि के गुण हैं। यह बात कुछ कठिन सी व दार्शनिकतापूर्ण लगेगी परन्तु है बड़ी सीधी इन्द्रिय संयम का अन्तिम परिणाम क्या होता है? यह परिणाम है, बालक की बुद्धि का विकास। क्या हम सब अपने बच्चों के लिए यह नहीं चाहते?

आत्म संयम – यदि ऊपर के सारे ‘संयमों’ को जोड़कर उनके विकास के लिए कोई पद्धति खोजनी हो तो वह है आत्मसंयम अर्थात् आत्मानुशासन। आदेश से, उपदेश से, दण्ड के भय से आपकी बात मान लेना संयम नहीं है, अनुशासन भी नहीं। जब तक कि बात को समझकर हृदय में, व्यवहार में उतारने का, स्वभाव में लाने का प्रयास बालक स्वयं न करने लगे। आपके भय से वह आपके सामने अवश्य वैसा व्यवहार करेगा परन्तु वह उसके आचरण का अंग नहीं बन पायेगा। जीवन मूल्यों की सूची बहुत लम्बी हो सकती है। किस सदाचरण को जीवन मूल्यों में शामिल न किया जाये? पर्यावरण संरक्षण, दया-करुणा-परोपकार की भावना, क्षमा, आर्जव, श्रम के प्रति निष्ठा, राष्ट्रभक्ति, सत्य-अहिंसा-अस्तेय-ब्रह्मचर्य-अपरिग्रह के पाँच महाव्रत – क्या ये सब पुस्तकों में लिखी जाने वाली ‘अच्छी बातें’ मात्र हैं?

लेकिन सबसे बड़ा प्रश्न सामने है- कौन सिखाये? कैसे सिखायें? एक मजेदार किस्सा है- एक सज्जन बैंक में काम करते थे। सहकर्मी बन्धु ने बातचीत में समझाया कि तुम्हारा पुत्र तरुणावस्था में प्रवेश कर रहा है, यही उम्र बनने-बिगड़ने की होती है। थोड़ा चाल-चलन पर ध्यान रखो नहीं तो बाद में पछताना पड़ेगा । पिताजी को बात समझ में आ गई । शाम को बैंक से घर आकर टीवी देख रहे थे। इतने में बारहवीं कक्षा में पढ़ने वाला पुत्र कोचिंग से लौटकर आया, जैकेट खूँटी पर टाँगकर दूसरे कमरे में चला गया। पिताजी को दिन में सहकर्मी की समझाई हुई बात याद आई। उठकर जैकेट की तलाशी लेनी शुरू की। एक जेब में हाथ डाला – गुटखे की पुड़िया निकली। पिताजी सन्न। बालक को आवाज लगाई । दूसरी जेब में हाथ डाला- सिगरेट का पैकेट। अच्छा! केवल गुटखा नहीं, सिगरेट की भी लत लग गई है। अभी केवल सत्रह-अठारह की उम्र में ही ये हाल है तो आगे क्या करेगा? और जोर से बालक को आवाज लगाई। उसके आते तक अन्दर की जेब में हाथ डाला। पर्स था। खोला, देखा किसी अभिनेत्री की अर्धनग्न फोटो। पिताजी का पारा आसमान पर।बालक आया तो बिना पूछे-ताछे लड़के को दो झापड़ जड़ दिए। बालक हक्का-बक्का – पिताजी ने न कुछ कहा-सुना, न डाँटा-पफटकारा, सीधे झापड़ रसीद कर दिए। लेकिन पिताजी के हाथ में जैकेट देखते ही उसे माजरा समझ में आ गया। बोला- ‘‘पापा! इसमें इतना गुस्सा करने की क्या बात है? कल से ‘आपकी’ जैकेट पहन कर नहीं जाऊँगा।’’

आशा है, आपको प्रश्न का उत्तर मिल गया होगा । बच्चों को सिखाना है तो आदेश-उपदेश नहीं, उन्हें ‘रोल-मॉडल’ चाहिए और वह हो सकते हैं- केवल ‘आप’ ।

(लेखक शिक्षाविद हैं)

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