कोरोना ने समझाया संयुक्त परिवार का महत्व

कोरोना ने बताया संयुक्त परिवार का महत्व

डॉ. धर्मवीर चंदेल

कोरोना ने बताया संयुक्त परिवार का महत्व

भारतीय समाज में आरम्भ से ही सुदीर्घ संयुक्त परिवार प्रथा रही है, जिसमें परिवार की दो-तीन पीढ़ियां एक साथ जीवन की राह पर चलती हैं। खाना भी एक ही चूल्हे पर पकने से लेकर एक ही आंगन में बाल-गोपाल खेलते हुए जवान होते हैं। घर के एक ही चौक-चौबारे से दूल्हे की घुड़चढ़ी से लेकर नई-नवेली दुल्हन भी वहीं आती है। तीज-त्यौहार, होली-दीवाली की खुशियां भी घर की मुंडेर पर मनाई जाती थीं। संयुक्त परिवार भारतीय समाज की खूबसूरती रही है, जिसका समाज ने एक प्रथा के रूप में वर्षों तक पालन किया है। समाज संयुक्त परिवार से ऊर्जा प्राप्त करता है।

भारतीय समाज का विकास ग्रामीण समाज से हुआ है या यूं कहें कि ‘हर बड़ा शहर कर्जदार है, उन गांवों का जिनकी प्रतिभाएं कुछ बनने के लिए, कुछ बनाने के लिए शहरों में गांवों से आ गईं।’ भारत की वैदिक कालीन सभ्यता भी ग्रामीण सभ्यता रही है। भारतीय समाज रचना में जब तक संयुक्त परिवार अस्तित्व में रहे, तब तक पूरा परिवार ही सामूहिक रूप से एक-दूसरे की सहायता और सरोकार से जुड़े रहे। ‘एक सबके लिए और सब एक के लिए’ सिद्धांत अघोषित और अलिखित रूप से लागू होता था। खेती-किसानी पर जीवन निर्भर थे, पूरे  परिवार के लोग खेती और पशुपालन किया करते थे। परिवार में कमाने वाले पुरुषों की आय एक साथ आती थी, जिसका नियोजन ठीक प्रकार से होता था। योजनाबद्ध रूप से आमद और खर्च का हिसाब रखा जाता था। आमतौर पर ना तो ‘ऊधो का देना और ना ही माधो का लेना’ सिद्धांत आकार लेता हुआ दिखाई पड़ता था। संयुक्त परिवार प्रथा मुख्य रूप से कृषि आधारित अर्थव्यस्था पर आधारित थी, लेकिन औद्योगिक क्रांति होने और पाश्चात्य संस्कृति के दखल से एकल परिवार ने भारतीय समाज में दखल देकर अपना स्थान बना लिया। कहा जाने लगा कि संयुक्त परिवार में कई लोगों- विशेषकर- युवतियों, महिलाओं की इच्छाओं को दबा दिया जाता है। संयुक्त परिवार में व्यक्ति के सम्पूर्ण व्यक्तिव का विकास नहीं हो पाता है, ऐसे में एकल परिवार धीरे-धीरे अस्तिव में आने लगे। यदि ध्यान से देखें तो लगता है कि जिन लोगों की दूसरे शहरों में नौकरी लगी और जो लोग रोजगार की तलाश में शहरों में गए, वहीं से एकल परिवार ने करवट लेना शुरू किया। जब कभी वे नौकरी लगने के बाद गांव आए तो परिवार में भी अतिथि की तरह रहे या फिर स्थायी रूप से रहने आ गए तो उन्होंने अपना अलग ही आशियाना बना लिया। समाज में वेतनभोगी वर्ग के बढ़ने से तेजी से एकल परिवारों का जन्म हुआ। इसका कारण रहा कि वेतनभोगी वर्ग के रूप में एक नया मध्यमवर्ग अस्तित्व में आया, जिसने संयुक्त परिवार को महत्व के बजाए हिकारत की दृष्टि से देखा। वक्त का पहिया अबाध गति से चलता रहा और  परिवार के अन्य लोग भी एकल परिवार को प्राथमिकता देने लगे।

सामाजशास्त्रीय टीकाकारों ने कहा है कि संयुक्त परिवार में बालक के व्यक्तिव का विकास तेजी से होता है। परिवार के संस्कार उसमें आते हैं और जब वह चाचा-चाची, ताऊ- ताई, दादा-दादी के साथ रहता है तो उनके संबधों की गर्माहट और उनके मर्म का भी उसे अहसास होने लगता है। उसे यह भी पता चलता है कि जब उसे हल्का सा बुखार आया तो पूरे परिवार ने आंखों में रात गुजारी थी। दादाजी ने दौड़ के भैरूजी के भोग लगाया और दादी ने उसकी नजर उतारी थी। ताऊजी उसे कंधे पर बिठाकर डॉक्टर के पास लेकर गए थे और चाचाजी तो बेचारे पैदल ही चले जा रहे थे। संयुक्त परिवार में छोटा बच्चा भी अपनी वस्तुओं को सभी को बांटकर खाना सीखता है। उसमें अपनी चीजों को बांटने का संस्कार आता है। यदि परिवार का कोई सदस्य कभी अपने रोजगार में आर्थिक तंगी का शिकार हो भी जाता है तो पूरा परिवार मिलकर उसकी समस्या को दूर करने का प्रयास करता है। परिवार का सबसे बुजुर्ग व्यक्ति परिवार का मुखिया होता है, लेकिन कोई भी फैसला परिवार की सहमति और नीर-क्षीर विवेक के आधार पर करता है।

संयुक्त परिवार में व्यक्ति की अपेक्षा परिवार को अधिक महत्व दिया जाता है और परिवार का प्रतिनिधित्व मुखिया करता है। परिवार के सभी सदस्य उसके अनुशासन में रहते हैं। श्रम विभाजन भी परिवार को एकजुट और एक माला में पिराने का काम करता है। परिवार के सभी सदस्यों का श्रम विभाजन उनकी योग्यता, आयु, लिंग और रुचि के अनुसार किया जाता है। पुरुषों को धन कमाने और परिवार की महिलाओं को घर-परिवार का संचालन और बच्चों के रख-रखाव की जिम्मेदारी दी जाती है। परिवार के सभी सदस्यों के एक साथ रहने से हमेशा चहल-पहल और हंसी-खुशी का वातावरण बना रहता है। जबकि हम देखते हैं कि एकल परिवार में बच्चा इतना जिद्दी हो जाता है कि वह किसी की बात पर कान ही नहीं धरता है। जबकि संयुक्त परिवार में बच्चे के चाचा ही दोस्त होते हैं, जिन्हें वह अपने मन की बात आसानी से बता सकता है, जिससे बच्चों में तेजी से बढ़ रही आत्महत्या की समस्याएं भी नहीं होती हैं। बच्चा अपने दादा और दादी के अनुभव, किस्से-कहानियों और जीवन के खुले वृतांत से तादात्मय करता है। कहा भी गया है कि जीवन के कुछ सबक सीखने के लिए या तो गम्भीर पुस्तकों का अध्ययन कीजिए या फिर अनुभवी लोगों के जीवन से भी बहुत कुछ सीख सकते हैं। ऐसे में परिवार के वरिष्ठजन अपने जीवन की पोटली से कुछ नए सबक सिखाते हैं, जिससे जीवन की राह अधिक आसान बनती है।

कई समाजशास्त्रीय विद्धानों का मत रहा है कि जब संयुक्त परिवार का विभाजन होगा तो उसमें वृद्ध माता-पिता, दादा-दादी का क्या होगा? ऐसे में उनके लिए वृद्धाश्रम या ‘ओल्ड एज होम’ तलाशे जाते हैं। जबकि भारतीय इतिहास में तो ‘ओल्ड एज होम’ का कोई फुट नोट ही दिखाई नहीं पड़ता है। कहने का तात्पर्य है कि भारत में संयुक्त परिवार प्रथा होने से सभी के साथ रहने से परिवार के वरिष्ठजन साथ ही रहते थे। इस कारण वृद्धाश्रमों के विषय में किसी महत्वपूर्ण ग्रंथ में उल्लेख नहीं मिलता है। चीनी यात्रियों, कौटिल्य के अर्थशास्त्र सहित अन्य विद्धानों के दस्तावेजों में ‘ओल्ड एज होम’ दृष्टिगोचर नहीं होता। संयुक्त परिवार में सामाजिक सुरक्षा के साथ ही आर्थिक रूप से भी सम्बल भी रहता था। आमतौर पर यह देखा गया है कि शहरों में रहने आए लोग अपने नए घरों में वरिष्ठजनों के लिए कमरा तक नहीं बनाते हैं। यदि कभी वरिष्ठजन गांव से शहरों में रहने के लिए आते हैं वे चंद दिन रुककर ही विदा हो जाते हैं क्योंकि घर में कमरा नहीं होने से रहने में उन्हें दिक्कत आने लगती है। वे ड्राइंग रूम में कब तक और कैसे रह सकते हैं? लेकिन कोविड-19 की भारत में आई दो लहरों ने लोगों को ठहरकर सोचने के लिए विवश किया है। कोविड पॉजिटिव होने के बाद लोग निराशा के भंवर में फंस गए। परिवार में ऐसे वरिष्ठ लोग नहीं थे कि जो उन्हें समझा पाते कि वक्त बदलता रहता है। इस भंयकर बीमारी के दौर में कई ऐसे परिवार काल के गाल में समा गए कि उनको दवा, अस्पताल में लेकर जाने वाले कोई नहीं था। उन्हें कंधे पर हाथ रखकर समझाने वाला भी नहीं था। तब उन लोगों को लगा कि संयुक्त परिवार में रहते तो परिवार के साथ होते तो संकट बिल्कुल छोटा हो जाता। कोविड ने रिश्तों की बुनावट को नए सिरे से बुना है। देश में कई एजेंसियों के सर्वें बताते हैं कि परिवार में एक साथ रहने से अवसाद असर नहीं दिखा पाता है। परिवार के लोगों से बातचीत करने, साथ खाना-पीना और मस्ती रहने से अवसाद खत्म हो जाता है, ऐसे में एक बार नए दौर में संयुक्त परिवार के साथ रहने की प्रथा वापस आकर लेती हुई दिखाई पड़ती है। तथ्य बताते हैं कि जो लोग लॉकडाउन में तंगहाली के दौर से गुजरे हैं, उनरकी सार-संभाल करने से लेकर उनकी मदद भी निकटवर्ती परिवार के लोगों ने ही की है। हालांकि, संयुक्त परिवार की कुछ खामियां हैं, यदि उन खामियों को दूर कर दिया जाए तो संयुक्त परिवार स्वर्ग से बढ़कर है। कई बार यह देखा गया कि संयुक्त परिवार में बाल विवाह को प्रोत्साहन, रूढ़िवादिता को महत्व देने के कारण संयुक्त परिवार की भर्त्सना की जाती है। कई बार संयुक्त परिवार में मुखिया की इतनी निरंकुशता बढ़ जाती है कि वह परिवार के लोक-लाज और संस्कृति को ही भूल जातै हैं, जबकि उससे अपेक्षा की गई है कि उसे नीर-क्षीर विवेक के आधार पर फैसले लेगा।

बहरहाल, संयुक्त परिवार आज भी टूट रहे हैं, लेकिन अब परिवार के लोग साप्ताहिक, पाक्षिक या मासिक रूप से एक साथ एक घर के आंगन में या सबसे पुराने घर में बैठकर एक साथ खाना खाने का चलन बढ़ा है। इसे समाज में एक नए ताजा हवा के झौके के रूप में ले देखा जा सकता है। कहा जा सकता है कि एक नई खिड़की खुली है, जिसमें साथ रहने की तो नहीं, लेकिन कभी-कभार साथ बैठकर, रिश्तों की को नए सिरे से समझने की कवायद शुरू हुई है। यह भी देखा जाने लगा है कि बच्चों के जन्मदिन पर परिवार के सभी लोग एक साथ भोजन करने के साथ ही यह जानने का प्रयास करते हैं, उनकी वंश की जड़ें कैसी हैं? उन्हें परिचित कराया जाता है रिश्तों से, साथ ही सिखाया जाता है उनका महत्व।

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