लोकतंत्र में संविधान के प्रावधान का दुरुपयोग अनुचित- दत्तात्रेय होसबाले
लोकतंत्र में संविधान के प्रावधान का दुरुपयोग अनुचित- दत्तात्रेय होसबाले
आपातकाल के दौरान (1975-1977) की परिस्थितियों, सरकार की दमनकारी नीतियों, संघ की भूमिका पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले से विश्व संवाद केंद्र भारत की विशेष बातचीत हुई। प्रस्तुत हैं उसके प्रमुख अंश…..
नई दिल्ली। देश के इतिहास में कई लोगों ने उस समय आपातकालीन संघर्ष को एक दृष्टि से द्वितीय स्वतंत्रता संग्राम कहा है। और आज भी कई बार लगता है, यह सही व्याख्या है। विदेशी शासन के विरुद्ध एक लंबा संघर्ष हुआ, स्वतंत्रता आन्दोलन हुआ। लेकिन देश के अंदर के ही अपने लोगों ने संविधान के प्रावधान का दुरुपयोग करके, देश के लोगों की आवाज को दमन करने का और जयप्रकाश नारायण जैसे व्यक्ति को भी दमन करने का कार्य किया, और सामान्य लोगों का दमन हुआ, इसलिए एक दृष्टि से द्वितीय स्वतंत्रता संग्राम कहना योग्य है। ये आपातकाल क्यों हुआ? देश में आपातकाल तब होता है, जब देश असुरक्षित है। कोई व्यक्ति या पार्टी असुरक्षित है, अस्थिर है, उसके लिए संविधान के प्रावधान का उपयोग या दुरुपयोग करना यह लोकतंत्र में कभी भी नहीं होना चाहिए।
“आपातकाल में संविधान प्रदत्त नागरिकों के मौलिक अधिकारों को रद्द कर दिया था। यही कारण है कि किसी भी प्रकार – भाषण, लेखन, अभिप्राय – के अभिव्यक्ति स्वातंत्र्य, संगठन स्वातंत्र्य आदि नहीं हो सकते थे।”
लोकतंत्र के इतिहास में काले अध्याय आपातकाल-1975 पर विश्व संवाद केंद्र भारत से विशेष बातचीत के दौरान सरकार्यवाह ने कहा कि अभी 48 वर्ष पहले के घटनाक्रमों को याद करना थोड़ा कठिन होता है, लेकिन आपातकाल और उसके विरुद्ध का संघर्ष ऐसा है, उसकी एक-एक घटना याद रखने वाली बात है। मैं उस समय बंगलूरु विश्वविद्यालय में एमए का विद्यार्थी था। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के प्रदेश स्तर के कार्यकर्ता के नाते मैं भी आंदोलन में सहभागी रहा। भ्रष्टाचार के विरोध में, बेरोजगारी समाप्त करने के लिए, शिक्षा पद्धति में परिवर्तन लाने के लिए एक संघर्ष का बिगुल बजा था तो मई के अंतिम सप्ताह तक देश के अंदर विद्यार्थी युवा संघर्ष समिति बनी थी और देश भर में जनता संघर्ष समिति और विद्यार्थी जन संघर्ष समिति, ऐसे दो आन्दोलन के मंच बने थे।
जून के महीने में तीन महत्वपूर्ण घटनाएं हुईं। इन तीनों का परिणाम आपातकाल लागू करने के रूप में हुआ। एक – जून आते-आते जेपी के नेतृत्व में आंदोलन देशव्यापी हो गया था, वह अत्यंत प्रखरता के चरम पर पहुँच गया था। दूसरा – गुजरात में हुए चुनाव में कांग्रेस को घोर विफलता मिली। जून 12 को इलाहाबाद हाईकोर्ट के न्यायाधीश न्यायमूर्ति जगमोहन लाल सिन्हा ने रायबरेली से इंदिरा गाँधी के लोकसभा चुनाव में जीत को निरस्त कर दिया। तीनों मोर्चों पर इंदिरा जी हार गयीं।
एक है – न्यायायिक, दूसरा है – राजनीतिक क्षेत्र में चुनाव में, तीसरा – जनता के बीच। इस कारण उन्होंने इस एक्स्ट्रीम क्रम का उपयोग किया। 25 जून की रात्रि को आपातकाल घोषित कर दिया। उन दिनों न मोबाइल, न टीवी, कुछ नहीं था। आज के जमाने के लोगों को उस समय की परिस्थिति को समझना आसान नहीं है। 50 साल पहले हिन्दुस्तान में टीवी नहीं था और कम्प्यूटर्स नहीं थे। ई-मेल और मोबाइल आज हैं, उस समय नहीं थे, तो न्यूज कैसे मालूम हुआ? बीबीसी और आकाशवाणी से घोषणा होते ही पता चला। हम लोगों को सुबह 06:00 बजे की न्यूज से पता चला। संघ की शाखा में गांधी नगर, बंगलूर में मैं और बाकी मित्र शाखा में थे, हमें शाखा जाते-जाते समाचार मिल गया। पार्लियामेंट कमेटी के काम के लिए अटल जी, अडवाणी जी, मधु दंडवते जी और एसएन मिश्रा जी बंगलूरु आकर रुके थे। शाखा समाप्त होते ही हम लोग वहां गए और अटल जी, अडवाणी जी स्नान करके नीचे जलपान के लिए आ रहे थे। तो हमने कहा इमरजेंसी लागू हो गई। शायद उनको तब तक जानकारी भी नहीं थी या जानकारी होगी भी। उन्होंने पूछा, तो हमने कहा रेडियो में सुना। अडवाणी जी ने कहा, यूएनआई, पीटीआई को फोन लगाओ, फोन पर ही स्टेटमेंट देना है, इसका खंडन करने का। अटल जी ने कहा – क्या कर रहे हैं, वे बोले मैं स्टेटमेंट देता हूं। अपनी तरफ से वक्तव्य दे रहा हूं। अटल जी ने कहा – कौन छापने वाला है? अटल जी को पता चल गया था कि इमरजेंसी घोषित होते ही प्रेस सेंसर भी साथ-साथ हो गया है तो इसलिए स्टेटमेंट अगले दिन भी कोई छापने वाला नहीं है। थोड़े समय के अंदर पुलिस आ गई और अटल जी, अडवाणी जी, एसएन मिश्रा जी तीनों को गिरफ्तार करके हाईग्रान पुलिस स्टेशन ले गई। उनके ऊपर मीसा लग गया। हम लोग वापिस गए और अंडरग्राउंड हो गए। हम लोग मीसा में वांटेड हैं, यह जानकारी मिलने पर भूमिगत हो गए थे। मैं दिसंबर तक भूमिगत रहा।
कुछ लोगों को डीआईआर और कुछ को मीसा एक्ट, ऐसे दो कानूनों में गिरफ्तार किया गया। डिफेंस ऑफ इंडिया रूल में कोर्ट में जाने का और वहां आरग्यू कर और शायद छूट भी जाने का प्रावधान था। मीसा में ऐसा कोई प्रावधान नहीं था। आपको चार्ज बताने की जरूरत भी नहीं। क्या गुनाह है और कोर्ट में जाने का तो कोई अधिकार नहीं था। सब प्रकार के फंडामेंटल राइट्स सस्पेंडेड होने के कारण मीसा में रहने वाले व्यक्ति को अंदर उनका क्या हुआ, घर के लोगों को भी पता चलना चाहिए.. ऐसा भी कोई प्रावधान नहीं था।
तब न फोन कर सकते थे, संपर्क भी नहीं कर सकते थे। इसलिए जनता के साथ, कार्यकर्ता के साथ संपर्क रखना, इसके लिए संघ और संघ प्रेरित संगठनों का जाल, हमारी घर-घर में संपर्क की पद्धति बहुत काम आयी। घरेलू संपर्क की पद्धति दशकों से संघ और संघ प्रेरित संगठनों में है, उसका लाभ, आंदोलन में भी हुआ। मेरे पास बहुत ऐसे उदाहरण हैं। जैसे रवीन्द्र वर्मा जी बंगलूरु आए थे तो उनको कहां रखना और पुलिस को पता ना चले, ऐसे उनको रेलवे स्टेशन से लेकर आना और सुरक्षित वापिस भेजना। यह काम अत्यंत गूढ़ता से हम लोग कर सके, उसका कारण है संघ की कार्यपद्धति के अंदर घर का संपर्क।
दूसरी बात, क्या चल रहा है लोगों को यह पता नहीं चलता था, क्योंकि समाचार पत्र सेंसर के कारण केवल सरकार की अनुमति से छपने वाले समाचार छोड़कर बाकी कोई भी समाचार नहीं छपता था। कौन, कहां अरेस्ट हो गया, किसका क्या हुआ, कोई पता नहीं चलता था। तो इसलिए एक भूमिगत साहित्य छापने को पत्रकारिता का एक जाल, अपना नेटवर्क बनाने की बहुत सफल योजना बनी और उसका क्रियान्वयन हुआ। यह दूसरी एक बहुत बड़ी उपलब्धि है, अपने देश के इमरजेंसी के भूमिगत संघर्ष की।
हो. वे. शेषाद्री ने दक्षिण भारत के चार राज्यों में साहित्य प्रकाशन का नेतृत्व किया। उनका केंद्र बंगलूरु था। जगह-जगह पर प्रेस ढूंढकर रात को प्रेस में काम करना और प्रेस में काम करना तो आवाज नहीं आनी चाहिए। बहुत सावधानी रखनी पड़ती थी। दो पन्ने के, चार पन्ने के पत्र पत्रिकाएं छपवाना, उसमें न्यूज़ आइटम, देश के अन्यान्य भागों में क्या चल रहा है, इसके बारे में जानकारी इकट्ठा करना। ये जानकारी इकठ्ठा कैसे करना? भूमिगत काम करने वाले अलग-अलग लोगों से, प्रवास करने वाले लोगों से लिखवाकर लाते थे। कुछ कार्यकर्ता इसके लिए ही प्रवास करते थे। वो एक दृष्टि से पत्रकार जैसे ही अंडरग्राऊंड कार्य करते थे। उदाहरण के लिए कर्नाटक के चार जगह पर या महाराष्ट्र में अलग-अलग नाम से अंडरग्राउंड पत्रिकाएं छपती थीं। मराठी में, कन्नड़ में, तेलुगू में, हिंदी में.. उस-उस राज्य में नाम भी अलग-अलग थे। दो प्रकार से छपती थी, एक प्रिंटिंग प्रेस, दूसरा साइक्लोस्टाइल करना। रातों-रात काम करते थे। रात भर काम करके एक-एक हजार प्रति निकालना। उसको सुबह साढ़े तीन-चार बजे से पांच बजे के बीच जाना और सड़क पर, घर के गेट के पास डाल देना आदि..आदि।
तीसरा है – जिन लोगों को अरेस्ट किया या पुलिस स्टेशन में, जेल में जिनके ऊपर अमानवीय दमन और हिंसा हुई या जेल में भी रहे। या जेल में रहे हिंसा भले ही नहीं हो, जेल में रहने के कारण कई लोगों की आजीविका पर असर हुआ और उनके घरों में, परिवारों में कमाई करने वाला नहीं है और वो जेल में हैं तो इस कारण जो परिस्थिति बच्चों के लिए, परिवार के लिए थी, उसको संभालने का और उन लोगों के योगक्षेम की व्यवस्था करने के लिए, यह बहुत बड़ा काम था। और चौथा सबसे महत्वपूर्ण संघर्ष करते हुए आपातकाल के विरुद्ध लोगों की आवाज खड़ा करने के लिए, सत्याग्रह करने के लिए जो योजना बनी उसको सफल बनाना। तो यह चार प्रमुख काम उन दिनों में बहुत ही अच्छी योजना से सफलता पूर्वक बना सके।
कई बार लगता है कि उस क्रूरता को भी याद करना क्या? संघ के तृतीय पूजनीय सरसंघचालक बालासाहब देवरस जी ने आपातकाल के पश्चात एक बहुत महत्वपूर्ण वक्तव्य दिया था। अपने सार्वजनिक भाषण में कहा था – फॉरगिव एंड फॉरगेट। जो हो गया, हो गया। उसको भूल जाओ, उसको क्षमा करो। लेकिन देश के इतिहास में, जिस एक काले अध्याय के दौरान घोर दमन और अत्याचार हुआ वो इतिहास के पन्नों पर है। कई पुस्तकें इस विषय पर आई हैं। व्यक्तिगत तौर पर भी लोगों ने लिखा है और संगठनों ने भी साहित्य प्रकाशित किया है। इसलिए, नहीं भी बताएंगे तो भी वो है ही।
क्रूरता और अमानवीयता बहुत व्यापक प्रमाण में हुई। अपने देश में पुलिस-प्रशासन की व्यवस्था ऐसी बर्बरता दिखा सकती है, इसका एक अनुभव आपातकाल में हुआ। हाथ दोनों बांधकर ऊपर से खींचना और उस समय उनकी पीठ पर उनके पैर पर लाठी से मारना।
उस समय तीन प्रकार की क्रूरता हुई। एक जो अरेस्ट हुए उनके साथ लॉकअप में, पुलिस स्टेशन में क्रूरता हुई, उनको जेल भेजने से पहले। उस समय आंध्रप्रदेश (आज तेलंगाना) के एक कार्यकर्ता को कैंडल से शरीर पर लगभग सौ जगह जलाया गया, जबरन उनके मुंह से कुछ कहलवाने के लिए। किसी को नारियल के अंदर कीड़े रखकर नाभि के ऊपर बांध दिया गया। या पुलिस की भाषा में ऐरोप्लेन कहते हैं, गोली कहते हैं, चपाती कहते हैं, ये सब हिंसा के अलग-अलग प्रकार रहे। सीधा बिठाकर उसके ऊपर रोलिंग करना, इलेक्ट्रिक शॉक दो या पिन अंदर घुसा दो। इस प्रकार के भयानक अत्याचार किए।
लॉकअप में तीन दिन, चार दिन अमानवीय अत्याचार सहन कर जेल में आए लोगों का जेल में आने के बाद 10 दिन, 15 दिन तक उनकी मालिश करना, ये सब मैंने भी किया है। इन अमानवीय अत्याचारों से कुछ लोग जीवनभर के लिए विकलांग हो गए, कुछ लोगों को जीवनभर किसी न किसी प्रकार की व्याधि हो गई। ऐसा हमारी आंखों के सामने हुआ। जिनके साथ ऐसा हुआ, उनके मुंह से किसी भी प्रकार के कोई अपशब्द नहीं आए, इस आंदोलन से दूर नहीं गए। या उनके घर के लोगों ने संगठन को नहीं छोड़ा। कर्नाटक में पुलिस स्टेशन के अंदर राजू नाम के एक व्यक्ति की हत्या हो गई। ऐसे लॉकअप में कई प्रकार की हिंसा देश भर में बहुत स्थानों पर हुई।
ओमप्रकाश कोहली जी दिल्ली में थे, जो राज्यसभा सदस्य रहे, विद्यार्थी परिषद के अखिल भारतीय अध्यक्ष भी रहे, सब जानते हैं कि ओमप्रकाश कोहली जी चलने में थोड़ा- सा दिव्यांग थे। दिल्ली की तिहाड़ जेल में उनको पुलिस ने लात मारी थी। लॉकअप में उनके साथ अत्यंत अपमान का व्यवहार किया। वो कॉलेज के प्रोफेसर थे। खड़ा होना मुश्किल था। ऐसे व्यक्ति के साथ ऐसा किया। ऐसा देश भर में हुआ है।
बैंगलूरु में गायित्री करके एक महिला ने आपातकाल के विरुद्ध सत्याग्रह किया। सत्याग्रह करने के बाद उनको अरेस्ट किया। जेल में ले गए। वो गर्भवती थीं, वो सत्याग्रह करके आई थीं….लॉकअप में लेकर जाने के बाद उन्हें प्रसव वेदना हुई तो हॉस्पिटल लेकर गए। हॉस्पिटल में उनको पलंग पर सुलाया था और उनकी डिलीवरी के समय उनके दोनों पैरों को जंजीर से बांधा हुआ था। उन बातों को आज याद करने से अपने मन में अनावश्यक यातना होती है। गर्भवती महिला कहीं भाग जाएगी, ऐसा तो नहीं है और डिलीवरी हो गई तो उनको बांध कर रखने की क्या आवश्यकता थी?
उत्तर भारत में व्यापक प्रमाण में नसबंदी हुई, पकड़-पकड़ कर की। उस समय की सरकार को, प्रशासन को चलाने वाली चौकड़ी थी। उसमें जो भी लोग थे, उन्होंने नसबंदी के कार्यक्रम को सफल बनाने के लिए, देश के अंदर जनसंख्या नियंत्रण करने के लिए, जिस प्रकार आपातकाल का दुरुपयोग किया…वह घोर अमानवीय और मानवाधिकार के विरुद्ध के इतिहास के पन्नों पर हमेशा एक काला धब्बा है।
जेल में क्रिमिनल कैदी भी रहते हैं, उन लोगों को राजनीतिक कैदियों के विरुद्ध उकसा कर झगड़ा करवा दिया, उनसे मारपीट करवाई। जेल के अंदर ऐसा जानबूझकर करवाने का प्रयत्न किया। झगड़े हो गए, बल्लारी जेल में लगभग 25 लोगों के हाथ की, पैर की हड्डी टूट गई। महीनों तक उनको अस्पताल में रखना पड़ा।
सामान्यतः जो टॉर्चर हुआ, अधिकतर टॉर्चर पुलिस लॉकअप में हुआ, वो स्वयंसेवकों पर ही हुआ। इसके दो कारण हैं। एक – भूमिगत काम में सक्रिय स्वयंसेवक अधिक थे, इसलिए वही पकड़े गए। दूसरा – उनको लगता था कि इनसे बहुत जल्दी हम उगलवा लेंगे। उदाहरण के लिए, अंडरग्राउंड लिटरेचर छपता था, पूछते थे – कहां छपता है। तो स्वयंसेवक बोलता नहीं था। टॉर्चर करने के बाद भी स्वयंसेवक के मुंह से शब्द नहीं निकलते थे। इसलिए उनका अधिक टॉर्चर हुआ।
लोकतंत्र, प्रजातंत्र के अंतर्गत ही अपने को संघर्ष करना चाहिए। संविधानात्मक ढंग से ही करना चाहिए। बंदूक उठा कर क्रान्ति नहीं करनी है। शस्त्र उठाकर, संघर्ष करके आपातकाल का विरोध करना गलत है। ऐसा समिति का स्पष्ट अभिप्राय था। लोगों को हिंसा के मार्ग पर नहीं लाना, यह स्पष्ट निर्देशित था। सत्याग्रह यानि कैसे…तो किसी भी सड़क के चौराहे पर या किसी जगह पर, बस स्टैंड पर, रेलवे स्टेशन पर, जितनी संख्या में हो सके उतनी संख्या में लोग आना। आपातकाल के विरोध में नारे लगाना, अपनी डिमांड के नारे लगाना। पुलिस आएगी, पकड़ेगी, लेकर जाएंगे। सत्याग्रह करना, और यथा संभव साहित्य पर्चे लोगों को देना, क्योंकि कोई और रास्ता नहीं था। इसलिए सत्याग्रह के लिए जाते समय जेब में, थैली में पर्चे रखो, सबको दो।
इस आपातकाल को जनता ने स्वीकार नहीं किया है, यह लोकतंत्र के विरुद्ध है। लोकतंत्र का दमन हो गया है। इसलिए इसके विरुद्ध आवाज उठाना, समाज मरा नहीं है, ऐसा दिखाना, सत्याग्रह का यह बहुत बड़ा एक उद्देश्य था। जगह जगह पर लगभग 49 हजार से अधिक सत्याग्रही अरेस्ट हुए।
संघ ने सारे संघर्ष में, जयप्रकाश नारायण के आन्दोलन में और बाद में आपातकाल के विरुद्ध संघर्ष में काम किया। इसलिए संघ का दमन करना, यह मुख्य बात होने के कारण अन्य 25 संगठन के साथ संघ को भी बैन कर दिया था। इसलिए संघ पर प्रतिबंध लगाना और संघ का दमन करना, यह सरकार के वरिष्ठों के, नेताओं के, प्रधानमंत्री का स्पष्ट उद्देश्य था। संघ का दमन करने के लिए स्वयंसेवकों की पुरानी-पुरानी सूची उनको मिली और कहीं किसी डायरी में मिल गयी या कार्यालय उन्होंने बंद करवाए। कार्यालय पर छापेमारी की, कार्यालय पर ताला लगाया, कार्यालय के अंदर जो सूची मिली…तो कार्यकर्ताओं की सूची, गुरु दक्षिणा की सूची तो ऐसी सूची पकड़-पकड़ कर उन घरों में गए। घर पर बैठे व्यक्ति को भी ले गए, उनको संघ की व्यवस्था पद्धति का लाभ मिला। संघ के कार्यकर्ता सरकारी या कॉलेज में, बैंक में नौकरी में हैं तो दबाव डालकर उनको वहां सस्पेंड किया, व्यापारियों पर दबाव बनाया।
बहुत सारे स्वयंसेवक नित्य की शाखा में नहीं थे। कई वर्ष पहले वो शाखा के नित्य के काम में थे। किसी न किसी व्यक्तिगत कारण से, घर की कुछ कठिनाई के कारण नित्य शाखा के काम में नहीं होंगे। हमारे लिए गर्व का विषय है कि बहुत बड़ी संख्या में ऐसे स्वयंसेवक आपातकाल में भागे नहीं, दूर नहीं गए, उल्टा सक्रिय हो गए। उन्होंने कहा – देखो, हम स्वयंसेवक हैं। पुलिस को पता नहीं है क्योंकि हमारे नाम अभी सूची में नहीं है, इसलिए हमारे घर का उपयोग करिए। हमारे घर में भूमिगत कार्यकर्ता रुकें, भोजन करें, क्योंकि हमारे घर पुलिस के राडार में नहीं है। ये कहने की हिम्मत स्वयंसेवकों ने की, उन्होंने अपनी तरफ से हर प्रकार का सहयोग किया। दूसरे संगठन, दूसरी पार्टी…के लिए भी स्वयंसेवकों ने किया। सर्वोदय के दो कार्यकर्ताओं के घर में कर्नाटक में जब परिस्थिति अच्छी नहीं थी, संघ के स्वयंसेवकों ने उनकी व्यवस्था की। संघर्ष के लिए जो निधि चाहिए, वो भी स्वयंसेवकों ने समाज से इकट्ठा की।
किसी भी देश में लोकतंत्र जहां है, वहां लोक की आवाज को दमन करने का, कुचलने का कोई भी प्रयत्न सफल नहीं हो सकता। और कुछ समय के लिए आप दमन कर सकते हैं। जैसे 20 महीने आपातकाल रहा, लेकिन दमन नहीं हो सकता। एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में लोगों की आवाज हमेशा बुलंद रह सकती है, उसको बुलंद रहना चाहिए। आपातकाल के विरुद्ध के संघर्ष क्यों सफल हुआ? क्योंकि लोगों को जागृत करने और संगठनात्मक नेतृत्व ने उस समय लोगों को योग्य मार्गदर्शन दिया। उस आंदोलन में विशेष कर विद्यार्थियों, युवाओं के आंदोलन से देश भर में एक परिवर्तन के लिए आंदोलन चला। इसलिए देश के नौजवान विद्यार्थी और नौजवान लोग देश समाज के बारे में जागृत रहकर अपनी आवाज उठाना, सही दिशा क्या है इसके बारे में निर्णय करते हुए एक प्रबल जनशक्ति की आवाज बनना, यह हमेशा उनकी ट्रेनिंग रहती है तो समाज के लिए हमेशा एक रक्षाकवच बनता है, आशादीप बनता है।
जेल में सुबह से शाम तक हम कैम्प जैसे चलाते थे। डीआईआर में जिनके केस चलते, वे 15 दिन या एक महीने में कई बार जेल से छूट जाते थे, बेल मिल जाती थी। मीसा में, न कोई चार्जशीट, न ही कोई कोर्ट, ऐसे चलता था। इसलिए मीसा में रहने वाले लोगों की जीवन शैली अलग थी। मीसा में रहने वाले लोग आए तो बाहर जाएंगे, कब जाएंगे कोई पता नहीं। जेल में अंग्रेजों के जमाने के कानून थे। उन दिनों वो कानून ही चलता था। स्वयंसेवकों ने जेल के अंदर उन कानूनों के खिलाफ भी संघर्ष किया, कानून के खिलाफ ज्ञापन देना, उसके खिलाफ सत्याग्रह करना, अंदर अनशन करना, ये सब किया तो इस कारण प्रशासन को कुछ कानून बदलना पड़े।
इसी बीच, सॉलिसिटर जनरल नीरेन डे ने सुप्रीम कोर्ट में आर्गुमेंट किया और उनके आर्गुमेंट को सुप्रीम कोर्ट ने स्वीकार भी कर लिया। उनका आर्गुमेंट था – मीसा के तहत लोगों को देश की सुरक्षा के लिए रखा है, उनके ऊपर कोई चार्जशीट नहीं और कब तक रहना है, इसकी कोई गारंटी नहीं है। They may end their life in jail. दूसरा आर्गुमेंट किया – यदि देश की सुरक्षा के लिए उनको जेल के अंदर ही शूट भी किया तो भी सरकार पर कोई अपराध नहीं है।
लोकसभा के सदस्य कामत ने कमेंट किया – इट इज़ नॉट अमेंडिंग द कांस्टीट्यूशन, इट इज़ नॉट मेंडिंग द कॉंस्टीट्यूशन, इट इज़ एंडिंग द कॉंस्टीट्यूशन।
सरकार ने संविधान के साथ क्या किया, इट वाज़ ऑलमोस्ट एंडिंग द कॉंस्टीट्यूशन। उन्होंने अमेंडमेंट किया, संविधान की प्रस्तावना में सेक्युलरिज्म और सोशलिज्म, दो शब्दों को जोड़ा। जो पहले नहीं थे। वो आज तक हैं। उस समय संविधान के साथ छेड़छाड़ करने के भरपूर प्रयत्न किए गए। लोकसभा के पांच वर्ष के कार्यकाल को छह वर्ष किया, एक वर्ष ज्यादा कर दिया था। उन सारी चीजों को जनता सरकार आने के बाद फिर से संशोधन करके ठीक किया गया।
मेरा हमेशा कहना है – लोकतंत्र सुरक्षित है, अपने देश की संसदीय व्यवस्था, संविधान आदि के कारण। लेकिन उससे भी बढ़ कर जागृत समाज और उनको जागृत रखने के कार्य करने वाले समाज का गैर राजनीतिक नेतृत्व उनके जीवन की स्वच्छ, निःस्वार्थ और देश भक्ति की उनकी प्रखरता, यह यदि है तो समाज के लोग भी ऐसे लोगों के समर्थन में खड़े होते हैं। इसलिए हमेशा देश के लिए इस प्रकार का नेतृत्व समाज में हर क्षेत्र में रहना चाहिए, वह देश के लिए भरोसा है।