सनातन घरों में गूंजने लगे हैं वेद और वेदांग

सनातन घरों में गूंजने लगे हैं वेद और वेदांग

मुरारी गुप्ता

सनातन घरों में गूंजने लगे हैं वेद और वेदांग

गुरुकुल परंपरा ने भारतीय संस्कृति को जीवित रखा था। लेकिन परिस्थितियों के कारण गुरुकुल परंपरा खत्म होती गई। यद्यपि संस्कृत विद्यालयों और संस्थानों ने इन परंपराओं को संभालने का प्रयास किया। लेकिन बड़े स्तर पर सनातन संस्कृति को घरों तक पहुंचाने के लिए भारतीय परिवारों को स्वयं प्रयास करने होंगे।

राजधानी जयपुर में एक संभ्रांत और कारोबार की दुनिया के एक बड़े नामी परिवार के घर का एक दृश्य है- सुबह के छह बजे हैं। दस साल की नव्या और तेरह साल का वेदांग सस्वर वेद का पाठ कर रहे हैं। उन्हें हर सुबह वैदिक परंपराओं के साथ एक आचार्य वेद, उपनिषद, व्याकरण, श्रीमद्भागवत गीता सहित रामायण और महाभारत का सस्वर पाठ करवाते हैं। दोनों बच्चे आचार्य के साथ लय के साथ श्लोकों का वाचन करते हैं। कारोबारी परिवार अपने बच्चों की सनातनी परंपरा में हो रही परवरिश से बहुत प्रसन्न है।

ऐसा ही वातावरण इन दिनों जयपुर सहित देश के कई शहरों के संभ्रांत परिवारों, कई जनप्रतिनिधियों, अनेक ब्यूरोक्रेट्स और सैकड़ों कार्पोरेट्स के घरों का है। इस कठिन समय में अपनी समृद्ध सनातन संस्कृति से अपने बच्चों को जोड़ने के लिए इन दिनों सनातन घरों में वेद, उपनिषद, व्याकरण और रामायण-महाभारत का नियमित अध्ययन और अध्यापन करवाया जा रहा है। लेकिन अपनी सांस्कृतिक विरासत से जुड़े रहने की इतनी चिंता क्यों? चिंता की वजह साफ है। तथाकथित आधुनिक शिक्षा प्रणाली में हमारे शिक्षाविदों और पाठ्यक्रम बनाने वालों नीति निर्धारकों ने कहीं भी कोई संभावना नहीं रखी है कि उस पढ़ाई के माध्यम से सनातन परिवार अपने बच्चों को अपनी सांस्कृतिक धरोहर को आगे बढ़ा सकें। दुर्भाग्य से पढ़ाई के नाम पर उनके हिस्से आया है सिर्फ मुगल काल। उन्हें अपने असल इतिहास को पढ़ने के लिए भी अलग अलग संदर्भ सामग्री का सहारा लेना पड़ता है।

बहरहाल, वापस लौटते हैं मूल मुद्दे पर। कथित तौर पर खुद को आधुनिक और अंग्रेजी सभ्यता में रंगा दिखाने के लिए अपनी सांस्कृतिक विरासत से छिटक रहे भारतीय परिवारों में वेदों, उपनिषदों, रामायण और महाभारत का पठन-पाठन एक शुभ संकेत है। छोटे शहरों में यह परंपरा तेजी से अपने पैर पसार रही है। अपने परिचित आचार्यों के माध्यम से घरों में बच्चों को वेद और वेदांगों का अध्ययन करवाया जा रहा है। उच्च कुलीन परिवार भी अपनी सांस्कृतिक विरासत का महत्व समझने लगे हैं और अपनी आगामी पीढ़ी को वेद, वेदांग और इतिहास से परिचय करवाने के लिए विद्वानों का सम्मान कर रहे हैं।

आधुनिकता के नाम पर समाज से छिटका दिए गए ज्ञानी और वेद मर्मज्ञ आचार्य और ज्ञानी ब्राह्मण समाज इस समय सनातन समाज की सबसे बड़ी आवश्यकता बन गया है। इसके लिए सनातन मंदिर, सनातन समाज के संगठनों और संतों, मठाधीशों, शंकराचार्यों और धर्म गुरुओं को आगे आकर सनातन समाज की वैज्ञानिक और तर्क आधारित संस्कृति के अध्ययन-अध्यापन और उसे सरल रूप में परिवारों तक पहुंचाने की जिम्मेदारी उठानी चाहिए। उन्हें अपने मठों, आश्रमों, मंदिरों से बाहर निकलकर समाज के बीच जाकर नई पीढ़ी के बच्चों को भारतीयता पढ़ाने की व्यवस्था के लिए तैयार रहना चाहिए।

अच्छी बात यह है कि भारत के दक्षिणी राज्यों ने अभी तक अपनी सांस्कृतिक विरासत को भिन्न भिन्न रूपों में संजो कर रखा है। जैसे केरल में रामायण मसाम मलयालम महीने कार्किडाकम (जुलाई – अगस्त) में मनाया जाता है। महीने में सभी दिनों में, महाकाव्य रामायण पारंपरिक हिंदू घरों में, हिंदू संगठनों और भगवान विष्णु को समर्पित मंदिरों में पढ़ा जाता है। रामायण का अध्ययन महीने के पहले दिन शुरू होता है और महीने के आखिरी दिन पूरी तरह से पढ़ा जाता है। शाम के दीपक को प्रकाश देने के बाद पारंपरिक केरल दीपक नीलविलाक्कु से पहले बैठते हैं और अध्यात्म रामायणम को पढ़ते हैं। लेकिन घर-घर पढ़े जाने वाली यह परंपरा अब मंदिरों, हिंदू संगठनों के कार्यक्रमों तक सिमटने लगी है। इसके बावजूद केरल ने अपनी सांस्कृतिक परंपरा को जीवित रखा है।

उत्तर भारत इस मामले में थोड़ा दुर्भाग्यशाली रहा है। लंबे समय तक उत्तर भारत के अलग अलग राज्यों में मुगलों के आक्रमण और उनके हिंदू धर्म स्थलों को विध्वंस करने की शैतानी प्रवृति के कारण लोगों का जीवन संघर्ष में ही गुजरने लगा। इससे तत्कालीन अध्यात्म परंपराएं क्षीण होने लगी। हालांकि तत्कालीन संत समाज के प्रयासों से परिवारों में सनातन परंपरा बची रही। महात्मा तुलसी की रामचरितमानस ने इसमें बड़ी भूमिका निभाई थी। ताजा परिस्थितियों में एक बार फिर से भारतीय सनातन परंपराओं के प्रति परिवारों में जागृति पैदा हुई है। इसके लिए कई सांस्कृतिक और सामाजिक संगठन लगातार मेहनत कर रहे हैं। इनमें गायत्री परिवार, इस्कॉन, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ सहित कई अन्य संगठन सनातन परिवारों में भारत की सांस्कृतिक परंपराओं की जड़ें रोप रहे हैं।

जगदगुरू रामानंदाचार्य राजस्थान संस्कृत विश्वविद्यालय में सहायक आचार्य शास्त्री कौसलेंद्रदास बताते हैं कि भारतीय परिवारों में वेद, उपनिषद, रामायण-महाभारत के पठन-पाठन की पुरानी परंपरा रही है। गुरुकुल परंपरा ने भारतीय संस्कृति को जीवित रखा था। लेकिन परिस्थितियों के कारण गुरुकुल परंपरा खत्म होती गई। यद्यपि संस्कृत विद्यालयों और संस्थानों ने इन परंपराओं को संभालने का प्रयास किया। लेकिन उतने बड़े स्तर पर सनातन संस्कृति को घरों तक पहुंचाने के लिए भारतीय परिवारों को स्वयं प्रयास करने होंगे। इसके लिए औपचारिक या अनौपचारिक तौर पर वेद विद्यालय और गुरुकुल बड़ी भूमिका निभा सकते हैं। वेद विद्यालय से दीक्षित होकर निकले विद्यार्थी भारतीय संस्कृति के संरक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।

राजस्थान में वेदाश्रम योजना के माध्यम से अनेक वेद विद्यालय संचालित किए जा रहे हैं। इन विद्यालयों से हर वर्ष सैकड़ों की संख्या में विद्यार्थी अध्ययन कर समाज जीवन में प्रवेश करते हैं। संत, समाज और संगठन योजना बनाकर वेद विद्यालयों से निकलने वाले विद्यार्थियों के अध्ययन का लाभ समाज की दिलवा सकते हैं। इससे कई लाभ होंगे। समाज में वेद विद्यालयों की प्रतिष्ठा बनेगी। छात्रों की वेद अध्ययन के प्रति रुचि जाग्रत होगी। समाज को वेद-वेदांग आधारित सांस्कृतिक परंपराओं को जानने-समझने का अवसर मिलेगा। और समाज आर्थिक तौर पर सशक्त होगा।

जिस समाज की जड़ें मजबूत होती हैं, वह समाज पूरे विश्व का मार्गदर्शन कर सकता है। खोखला समाज कभी भी विश्व कल्याण का काम नहीं कर सकता।  भारतीय समाज सदियों से विश्व का मार्गदर्शन करता रहा है। योग और आयुर्वेद जैसी विधाओं ने पूरे विश्व का कल्याण किया है। विश्व के कल्याण के लिए भारतीय समाज को फिर से अपनी सांस्कृतिक परंपराओं की जड़ों को मजबूत कर विश्व के मार्गदर्शन के लिए तैयार रहना होगा।

   (लेखक भारतीय सूचना सेवा से जुड़े हैं)

Print Friendly, PDF & Email
Share on

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *