सनातन, यह भारत का विशेषण है
डॉ. मनमोहन वैद्य
सनातन (eternal), यह भारत का विशेषण है; क्योंकि भारत अनादि है और अनंत भी। इसके दो कारण हैं। एक, भारत का चिंतन सनातन है और इस चिंतन को जीने वाला, इसे अपने आचरण से प्रतिष्ठित करने वाला भारत का समाज भी सनातन है।
भारत का यह विशिष्ट चिंतन सनातन है, क्योंकि इसका आधार आध्यात्मिक है, इसीलिए यह एकात्म है और सर्वांगीण भी। इसीलिए भारत सारी सृष्टि को परस्पर जुड़ा हुआ मानता है। एक ही चेतना विविध रूपों में अभिव्यक्त हुई है। इसलिए सृष्टि में संघर्ष नहीं, बल्कि समन्वय है और यह परस्पर विरोधी नहीं, परस्पर पूरक है; ऐसा भारत मानता है। इस कारण भारत, यानी भारतीय समाज की चार मान्यताएं हैं। पहला यह कि सत्य या ईश्वर एक है, उसे अनेक नामों से और विविध मार्गों से जाना जा सकता है। दूसरा पहलू यह है कि विविध रूपों के भीतर एकता को देखने की, पहचानने की, उस विविधता का उत्सव मनाने की दृष्टि भारत की रही है। तीसरा पहलू है कि प्रत्येक व्यक्ति (स्त्री और पुरुष) में ईश्वर का अंश है और उसे प्रकट करते हुए मोक्ष पाना, यही मनुष्य जीवन का अंतिम लक्ष्य है। चौथा पहलू यह है कि इस दिव्यत्व को प्रकट करने का मार्ग (जिसे उपासना या religion कह सकते हैं) व्यक्ति की रुचि-प्रकृति के अनुसार अलग हो सकता है और सभी समान, स्वीकार्य और सम्माननीय हैं। इन मार्गों के अनेक नाम होंगे और नए-नए नामों के मार्ग समय के साथ आते रहेंगे। सभी का यहाँ स्वागत है। यह भारत की विशेषता है। इसीलिए स्वामी विवेकानंद ने अपने शिकागो व्याख्यान में भारत का वर्णन mother of all religions के रूप में किया था। इस चिंतन का आधार आध्यात्मिक (spirituality) होने के कारण यह चिंतन सनातन (eternal) है।
अब यह केवल चिंतन के स्तर पर रहने से भी नहीं चलेगा। इसके आधार पर जीवन जी कर एक दीर्घ परम्परा यहाँ के समाज ने खड़ी की है। अनेक आक्रमण, आघात सहन कर यह समाज, जिसे राष्ट्र कहा जाता है, लगातार जीता आ रहा है। इस समाज का सातत्य भी भारत को सनातन बनाता है। इस राष्ट्र के सनातन रहने के, सातत्य के दो मुख्य कारण हैं – एक, इसकी जीवन दृष्टि का आधार आध्यात्मिक होना और दूसरा, इस राष्ट्र का राज्य पर आधारित नहीं होना। स्वदेशी समाज पर अपने निबंध में गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर कहते हैं कि welfare state, यह भारत की परम्परा नहीं है। न्याय, सुरक्षा और विदेश संबंध, ये विषय केवल राजा के अधीन होते थे। बाक़ी सभी शिक्षा, आरोग्य, व्यापार, उद्योग, मंदिर, मेला, कला, संगीत, नाट्य, यात्रा आदि विषयों के लिए समाज की अपनी स्वतंत्र व्यवस्था होती थी।
इसके लिए राजकीय कोष से धन नहीं आता था। समाज की अपनी व्यवस्था होती थी, जिसका आधार धर्म था। यह धर्म माने उपासना (religion) नहीं है। समाज को अपना मान कर देना, वापस लौटाना ही धर्म कहा गया है। विवेकानंद की शिष्या भगिनी निवेदिता ने कहा है, जिस समाज में लोग अपने परिश्रम का पारिश्रमिक अपने ही पास न रखकर समाज को देते हैं और समाज के पास ऐसी एकत्र सामूहिक पूँजी के आधार पर समाज और समाज का हर व्यक्ति सम्पन्न और समृद्ध बनता है। यह धर्म भेदभाव (discriminate) नहीं करता है। आगे वे कहती हैं कि जिस समाज में लोग अपने परिश्रम का पारिश्रमिक समाज को न देकर अपने ही पास रखते हैं, उस समाज में कुछ लोग तो सम्पन्न और समृद्ध होते हैं, पर समाज दरिद्र रहता है।
यदि तम्बू एक ही खम्भे पर टिका हो और खम्भा टूटता है तो पूरा तम्बू ज़मीन पर आ जाता है, पर यदि कोई तम्बू 3-4 खम्भों पर खड़ा है और उनमें से एक खम्भा टूट जाए तो तम्बू ज़मीन पर तो नहीं आएगा। उस खम्भे को अंदर से फिर से खड़ा करने की सम्भावना रहेगी। भारत की रचना परम्परा से ऐसी ही है। इसलिए परकीय आक्रमण से राजा के पराजित होने और परकीय शासन आने पर भी राष्ट्र यानी समाज हमेशा अपराजित रहा है और समाज में योग्य जागरण कर फिर से स्वराज्य की स्थापना होती रही है. यह रचना भी भारत के सनातन होने का रहस्य है।
इस राष्ट्र की विशिष्ट अध्यात्म आधारित जीवन दृष्टि को दुनिया में हिन्दू नाम से जाना जाता रहा है, इसलिए इस राष्ट्र का नाम हिन्दू है और सनातन इसका विशेषण। यह नाम हमने नहीं दिया, क्योंकि हम अपने आप को अन्य मानव समूह से अलग मानते ही नहीं थे। वसुधैव कुटुम्बकम यही हमारी धारणा रही है। परंतु बाहर के लोगों ने हमारी विशिष्टता के कारण हमारी एक पहचान बना कर इसका हिन्दू (सिंधु नदी के उस पार से आने वाले) नाम रखा। जैसे पहले, 1935-1940 के आसपास नागपुर में घी की दुकानों पर आसपास के गाँव जैसे कि बोरगाँव, दहेगाँव या आमगाँव के ‘घी की दुकान’ ऐसे फलक (board) लगे दिखते थे। द्वितीय महायुद्ध के समय डालडा नाम की चीज बाजार में आई, जो घी के समान दिखती ज़रूर थी, पर घी नहीं थी। तब इन सभी दुकानों के फलक पर अपने गाँव के नाम के साथ शुद्ध घी की दुकान ऐसा लिखा हुआ दिखने लगा। अब शुद्ध शब्द बाद में लिखा गया, इसका मतलब यह नहीं कि पहले का घी अशुद्ध था। पहले केवल घी ही था। पर घी के समान दिखने वाली चीज़ से भिन्नता दिखाने के लिए शुद्ध शब्द बाद में जोड़ना पड़ा। यही बात हिन्दू के लिए भी लागू होती है। पहले से सभी को ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’ मानने के कारण हमने अपने आप को अलग नाम नहीं दिया था। उसकी आवश्यकता ही नहीं अनुभव हुई।
समय के चलते समाज में अनेक परिवर्तन होने स्वाभाविक हैं। शाश्वत सिद्धांत के आधार को मजबूत रखते हुए कालांतर में इन शाश्वत सिद्धांतों के प्रकाश में कुछ पुरानी बातों का त्याग और युगानुकूल नई बातों को स्वीकार भी भारत हमेशा करता रहा है। उसी तरह, समय के साथ बाहर से आए कुछ मूल्य या व्यवस्था को देशानुकूल बनाकर भी स्वीकार करता आया है। यह भारत की एक और विशेषता है, इसलिए भारतीय जीवन चिर पुरातन होने के साथ नित्य नूतन भी है। शाश्वत सिद्धांतों के प्रकाश में नई बातों का स्वीकार करते हुए समाज के आचरण और व्यवहार के लिए मार्गदर्शक ऐसी अनेक स्मृतियों का निर्माण यहाँ सतत होता रहा है। यह अंतिम है और कोई नई स्मृति इसके आगे नहीं हो सकती, ऐसा भारत ने कभी नहीं कहा है। आज के भारत के लिए अद्यतन स्मृति माने अपना संविधान है। इस संविधान में भी आवश्यक संशोधन करने का प्रावधान संविधान में ही निहित है. पुरानी नींव के आधार पर समयानुकूल नया निर्माण करते रहने के कारण ही भारत का जनजीवन नित्य नूतन और चिर पुरातन रहा है, इसलिए वह सनातन है।
भारत की एक और बात विशेष रही है कि भारत ने भौतिक समृद्धि (अभ्युदय) और आध्यात्मिक उन्नति या मोक्ष (नि:श्रेयस) को समान महत्व दिया है। इन दोनों का संतुलन बनाए रखने को ही धर्म (रिलिजन नहीं) कहा है। “यतोsभ्युदय नि:श्रेय स सिद्धि: स धर्म” ऐसी भी धर्म की व्याख्या की है. इसीलिए ईसा की पहली 17 शताब्दियों तक भारत का विश्व व्यापार में सहभाग सर्वाधिक 30% से अधिक रहा है। व्यापार हेतु अनेक देशों में जाने के बाद भी भारतीयों ने वहाँ अपनी कॉलोनी बनाने का प्रयास नहीं किया, वहाँ के संसाधन की लूट नहीं की, न ही वहाँ के लोगों को कन्वर्ट करने का प्रयास किया, न ही लोगों को गुलाम बनाकर उनका व्यापार किया. इसका कारण भी भारत का वसुधैव कुटुम्बकम् का सनातन वैश्विक विचार ही है।
आज के समय में जब दुनिया निकट आयी है, आवागमन तथा संचार के माध्यम गतिमान हुए हैं, इस समय दुनिया की सभी मानवता को भाषा, वंश, उपासना (रिलिजन) का वैविध्य बनाए रखते हुए पृथ्वी के सीमित संसाधनों के साथ दीर्घ काल तक सामंजस्य के साथ समृद्ध जीवन यदि जीना है तो केवल भारत के पास ही ऐसी जीवन दृष्टि, ऐसा तत्वज्ञान, अनुभव है और भारत का ऐसा इतिहास भी रहा है।
प्रसिद्ध अणुवैज्ञानिक फ़्रिट्जोफ़्फ़ काप्रा का यह उद्धरण इसका महत्व बताता है –
The paradigm that is now receding has dominated our culture for several hundred years. During which it has shaped our modern western society and has significantly influenced the rest of the world. This paradigm consists of a number of entrenched ideas and values, among them the view of the universe as a mechanical system composed of elementary building-blocks, view of human body as a machine, the view of life in society as a competitive struggle for existence, belief in unlimited material, economic and technological growth, and last not the least, the belief that a society in which the female is everywhere subsumed under the male is one that follows a basic law of nature. These entire assumptions have been fatefully challenged by recent events. And indeed a radical revision of them is occurring.”
“The new paradigm may be called a holistic world view, seeing the world as an integrated whole rather than a dissociated collection of parts. It may also be called an ecological view, if the term ecological is used in a much broader and deeper sense than usual. Deep ecological awareness recognizes the fundamental interdependence of all phenomena and the fact that as individuals and societies we are all embedded in (and ultimately depend on) the cyclic process of nature.
Ultimately, deep ecological awareness is spiritual or religious awareness. When the concept of the human spirit is understood as the mode of consciousness in which the individual feels a sense of belonging, of connectedness, to the cosmos as a whole, it becomes clear that ecological awareness is spiritual in its deepest essence. It is therefore, not surprising that the emerging new vision of reality based on deep ecological awareness is consistent with the so-called perennial philosophy of spiritual traditions.”
इसलिए भारत का इस अपनी विशिष्ट पहचान के साथ समृद्ध, सम्पन्न और सुरक्षित रहना, यह वैश्विक आवश्यकता है और भारत के सनातन रहने के लिए इस सनातन अध्यात्म आधारित हिन्दू जीवन दृष्टि का विद्यमान रहना आवश्यक है। इस जीवन दृष्टि को अपने जीवन में आचरित करने वाला एक संगठित, शक्ति संपन्न, विजिगीषु, सक्रिय समाज का रहना भी उतना ही आवश्यक है। हिन्दू शब्द का गौरवपूर्ण आग्रह रखते हुए इस हिन्दू समाज को संगठित कर दोषमुक्त, राष्ट्रीय गुण सम्पन्न समाज निर्माण करने से ही यह सनातन भारत बनेगा और भारत की सनातनता बनी रहेगी। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इसी कार्य में पूर्ण शक्ति के साथ लगा हुआ है। कारण, यह उसका जीवन उद्देश्य है, अवतार कार्य है।
(लेखक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सह सरकार्यवाह हैं)