समरसता के आग्रही पूज्य बाला साहब देवरस
17 जून पूज्य बाला साहब देवरस पुण्य स्मृति दिवस
वीरेंद्र पांडेय
श्री बालासाहब देवरस समाजिक कार्य और समाजिक समरसता द्वारा समाजिक उत्थान के पुरोधा थे। उनके कार्यकाल में संघ कार्य को नई दिशा मिली। उन्होंने सेवाकार्य पर बल दिया परिणाम स्वरुप उत्तर पूर्वांचल सहित देश के वनवासी क्षेत्रों में हजारों की संख्या में सेवाकार्य आरम्भ हुए।
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यदि छुआछूत पाप नहीं है, तो दुनिया में कुछ भी पाप नहीं है।” राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तृतीय सरसंघचालक श्री बालासाहब देवरस के ये शब्द रूढि़ग्रस्त मन पर तगड़ी चोट करते हैं, झकझोरते हैं। ये शब्द आज भी मशाल बने हुए हैं। बालासाहब व्यावहारिकता के कठोर धरातल पर मजबूती से कदम जमाकर चलने वाले व्यक्ति थे। श्री बालासाहब देवरस समाजिक कार्य और समाजिक समरसता द्वारा समाजिक उत्थान के पुरोधा थे। उनके कार्यकाल में संघ कार्य को नई दिशा मिली। उन्होंने सेवाकार्य पर बल दिया परिणाम स्वरुप उत्तर पूर्वांचल सहित देश के वनवासी क्षेत्रों में हजारों की संख्या में सेवाकार्य आरम्भ हुए।
संघ शिक्षा वर्ग की दिनचर्या में प्रतिदिन होने वाले बौद्धिक वर्ग का बहुत महत्त्व होता है। प्रायः वर्ग के सर्वाधिकारी ही उनका परिचय कराते हैं; परन्तु 1943 में पूना के वर्ग में जब एक दिन वक्ता का परिचय कराने के लिए सरसंघचालक श्री गुरुजी स्वयं खड़े हुए, तो स्वयंसेवक चकित रह गये। श्री गुरुजी ने स्वयंसेवकों से कहा कि आप लोगों में अनेक स्वयंसेवक ऐसे होंगे जिन्होंने डाक्टर जी को नहीं देखा होगा उन्हें बालासाहब की ओर देखना चाहिए, डाक्टर जी कैसे थे, यह उनको देखकर पता चल जाएगा। बालासाहब के प्रति श्री गुरूजी का भाव यह केवल एक बार की बात नहीं। श्री गुरुजी 1947 में हुए पारडी के शिविर में उनका परिचय ‘असली सरसंघचालक, ‘‘जिनके कारण मुझे सरसंघचालक के नाम से पहचाना जाता है, ऐसे श्री बालासाहब“ तथा ”एक साथ संघ में दो सरसंघचालक नहीं हो सकते, इसलिए ये सरकार्यवाह हैं“ इसी प्रकार कराया था। 1944 – 45 की घटना है। एक उत्सव में भाग लेने के लिए गुरूजी तांगे में बैठकर रेशमबाग संघ स्थानकी ओर जा रहे थे। तीन चार स्वयंसेवकों के साथ बालासाहब उसी कार्यक्रम के लिए पैदल जाते उनको दिखाई दिये। गुरूजी ने अपने साथ बैठे कृष्णराव मोहरिल से कहा कि “असली सरसंघचालक पैदल जा रहे हैं, और नकली तांगे में बैठकर अपने से आयु में नौ वर्ष छोटे, केवल अट्ठाईस उन्तीस वर्ष के नवयुवक के लिए इस प्रकार के उद्गार व्यक्त करना जहां एक ओर श्री गुरूजी के मन की उदारता दिखाई देती है तो वहीं दूसरी ओर बालासाहब की योग्यता व गुणवत्ता भी प्रकट होती है।
पू. बालासाहब का जन्म 11 दिसंबर 1915 को नागपुर में हुआ। पिता दत्तात्रेय उपाख्य भैय्याजी देवरस महसूल विभाग में शासकीय अधिकारी थे। बालासाहब को घर में सब लोग बाल कहा करते थे। इसीलिए आगे चलकर बाला साहब नाम प्रचलित हुआ। देवरस घराना मूलतः आंध्रप्रदेश के रहने वाले थे। उनकापहला नाम देवराजू था। नागपुर में स्थायी होने के बाद देवराजू का मराठीकरण देवरस हो गया। डाक्टर जी ने 1925 में संघ की शाखा प्रारंभ की बारह वर्ष की आयु के “बाल” इस शाखा में 1927 से ही स्वयंसेवक बनकर जाने लगे। इस प्रकार बाल्यकाल से ही बालासाहब का संघ से संपर्क हो गया, जो जीवन भर चला। कई बार वे अपने साथ दलित स्वयंसेवक बंधुओं को भी घर ले जाते और माता से कहते, “मेरे ये मित्र भी मेरे साथ ही रसोई में ही भोजन करेंगे।” माँ ने शुरुआती विरोध के बाद फिर कभी ना नहीं कहा। उन दिनों के सनातनी वातावरण में यह एक अपवाद ही था। 1939 में वे प्रचारक बनकर कोलकाता गये; परन्तु 1940 में डाक्टर जी के स्वर्गवास के कारण उन्हें पुनः नागपुर बुला लिया गया। तबसे नागपुर ही उनकी गतिविधियों का केन्द्र रहा। संघ का केन्द्र होने के कारण बाहर से आने वाले लोग नागपुर से प्रेरणा लेकर जायें, इस कल्पना के साथ बालासाहब ने काम सँभाला। अगले तीन-चार वर्ष में नागपुर में शाखाओं की संख्या पर्याप्त बढ़ी।
1973 में श्री गुरुजी के देहान्त के बाद वे सरसंघचालक बने। उन्होंने संघ कार्य में अनेक नये आयाम जोड़े, इनमें सबसे महत्वपूर्ण निर्धन बस्तियों में चलने वाले सेवा के कार्य हैं। इससे वहाँ चल रही धर्मान्तरण की प्रक्रिया पर रोक लगी। स्वयंसेवकों द्वारा प्रान्तीय स्तर पर अनेक संगठनों की स्थापना की गयी थी। बालासाहब ने वरिष्ठ प्रचारक देकर उन सबको अखिल भारतीय रूप दे दिया।
संघ के विचार को समाज-कार्य के लिए व्यावहारिक रूप देकर, सेवा-कार्यों द्वारा उसे अपनी कार्य पद्धति में जोड़कर स्वयंसेवकों के जीवन में भी उतारा। आज पूरे देश में स्वयंसेवक जो लाखों सेवा-कार्य चला रहे हैं, इसके पीछे मूल प्रेरणा बालासाहब की ही है। सन् 1975 में जब इंदिरा गांधी ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी ने आपातकाल लगाया तब संघ पर प्रतिबंध लगा दिया गया। हजारों की संख्या में संघ के स्वयंसेवकों को मीसा तथा डी आई जैसे काले कानून के अन्तर्गत जेलों में डाल दिया गया और यातनाऐं दी गईं। तब बाला साहब की प्रेरणा एवं सफल मार्गदर्शन में विशाल सत्याग्रह हुआ। आपातकाल के दौरान अपने पर हुए अन्याय को लेकर कोई कटुता न फैले यही उनके उदगार थे – “सारा कुछ भूल जाएँ, और भूल करने वालों को क्षमा कर दें। क्यों कि सभी अपने ही हैं।
यदि श्रीगुरूजी संघ संस्थापक डॉक्टर हेडगवार जी की खोज थे तो पूज्य बालासाहब, डॉक्टर जी के तैयार किये हुए कार्यकर्ता थे। संघ जैसे बड़े संगठन का प्रमुख होने के बाद भी बालासाहब स्वयं को एक सामान्य व्यक्ति ही समझते थे। देहान्त से काफी समय पूर्व उन्होंने यह इच्छा प्रकट कर दी थी कि उनका अन्तिम संस्कार पू. डा. हेडगेवार तथा गुरुजी के समान रेशीम बाग संघस्थान पर न करके सामान्य श्मशान घाट में ही किया जाये। अतः नागपुर के गंगाबाई घाट पर उनकी अन्तिम क्रिया सम्पन्न हुई।
“शलभ बन जलना सरल है, प्रेम की जलती शिखा पर।
स्वयं को तिल तिल जलाकार, दीप बनना ही कठिन है।”
(लेखक सहायक आचार्य एवं शोधकर्ता हैं )