कोई भी रिलीजन समलैंगिक विवाह को मान्यता नहीं देता

कोई भी रिलीजन समलैंगिक विवाह को मान्यता नहीं देता

कोई भी रिलीजन समलैंगिक विवाह को मान्यता नहीं देताकोई भी रिलीजन समलैंगिक विवाह को मान्यता नहीं देता

भारतीय ज्ञान विज्ञान, परंपराएं, रीति रिवाज व सांस्कृतिक मान्यताएं आज विश्व पटल पर स्वीकार की जाने लगी हैं। भोगवादी जीवन से तंग लोग अपनी पाश्चात्य संस्कृति को तिलांजलि देकर जहां एक ओर भारतीय संस्कारों व मान्यताओं को अपना रहे हैं, वहीं कुछ मुट्ठी भर लोग भारतीय जीवन मूल्यों का मखौल उड़ाते हुए अपने अमर्यादित, अप्राकृतिक व असांस्कृतिक कुकृत्यों को वैधानिक मान्यता दिलाने पर तुले हैं। दुर्भाग्य से हमारे यहां के कुछ कथित बुद्धिजीवी, वकील तथा न्यायाधीश भी उनके सहयोगी की भूमिका में दिख रहे हैं। हाँ! हम बात कर रहे हैं दो समलैंगिकों के अप्राकृतिक व्यवहार को विवाह की मान्यता देने की।

संस्कार भारतीय जीवन मूल्यों तथा सामाजिक व्यवस्था की धुरी होते हैं। यूं तो भारतीय परंपरा में गर्भाधान, पुंसवन, सीमंतोनयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चूड़ा कर्म, कर्णवेध, उपनयन, वेदारंभ, समावर्तन, विवाह, वानप्रस्थ, संन्यास तथा अंत्येष्टि संस्कार सहित सोलह संस्कारों का वर्णन मिलता है। किन्तु इनमें मात्र एक ही संस्कार ऐसा है, जिसमें दो लोग मिलकर सामूहिक रूप से एक साथ संस्कारवान होते हैं। इसे विवाह संस्कार कहते हैं। जिसके लिए स्त्री व पुरुष दोनों का होना अनिवार्य है। इस संस्कार का मुख्य प्रयोजन योग्य संतानोत्पत्ति कर समाज व राष्ट्र को उन्नत करना है। यूं तो विवाह भी आठ प्रकार के बताए हैं। ब्राह्म, दैव, आर्ष, प्राजापत्य, असुर, गंधर्व, राक्षस व पैशाच नामक विवाहों में से ब्राह्म विवाह को ही सर्वश्रेष्ठ बताया गया है। विवाहों की जो निकृष्टतम पद्धति भी है, उसमें भी स्त्री व पुरुष दोनों का होना अनिवार्य है। यदि हिन्दू मान्यताओं को छोड़ भी दें तो पाएंगे कि दुनिया के अन्य किसी भी मत, पंथ, संप्रदाय में भी सर्वत्र स्त्री के साथ पुरुष या पुरुष के साथ स्त्री के विवाह को ही मान्यता दी गई है। आदिकाल से ही विवाह को हमारे यहाँ एक बड़े उत्सव के रूप में मनाया जाता रहा है।

भारतीय समाज में चार आश्रमों यथा ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ व सन्यास आश्रम में से गृहस्थ आश्रम का विशेष महत्व है। इसमें प्रवेश ही विवाह संस्कार के माध्यम से होता है। यह आश्रम शेष सभी आश्रमों की धुरी भी है। यदि यही कलंकित या दूषित हो जाएगा तो अन्य आश्रमों का क्या होगा? भारतीय मान्यताओं के अनुसार विवाह बंधन में बंधने वाले युगल एक दूसरे के प्रति समर्पित भाव से दायित्व का भाव लेकर एक होने का संकल्प लेते हैं, ना कि अपने अपने अधिकारों के लिए लड़ते हैं। वे अपनी संतान माता-पिता, रिश्तेदारों व समाज के लिए दायित्व बोध से काम करते हैं।

विवाहों को कानूनी मान्यता हेतु हमारे यहाँ अलग अलग रिलीजन के अनुसार अलग अलग कानून बनाए गए हैं। ये सभी संविधान के अनुच्छेद 246 के अंतर्गत संसद को प्रदत्त शक्तियों के अंतर्गत बनाए गए हैं, जो उन कानूनों के अंतर्गत नहीं आते, उनके लिए विशेष विवाह अधिनियम 1954 है। इसके अंतर्गत दो विविध मतों के मतावलंबी अपने अपने मत का पालन करते हुए बिना मतांतरित हुए भी विवाह कर सकते हैं। किन्तु किसी भी कानून में दो समलैंगिक व्यक्तियों को पति-पत्नी के रूप मान्यता देने का कोई विधान नहीं है। संसार का कोई भी रिलीजन समलैंगिक विवाह को मान्यता नहीं देता। अब यदि दो समलैंगिकों अर्थात दो महिलाओं या दो पुरुषों के  सह-जीवन को विवाह की स्वीकृति दी जाती है तो उसके क्या परिणाम होंगे, उन पर विचार करते हैं।

यदि समलैंगिक विवाह को मान्यता दी जाती है तो संतानोत्पत्ति कैसे होगी? इन्हें बच्चा कोई गोद देगा ही क्यों? क्या कानून ऐसे जोड़ों को दत्तक गृहण का अधिकार देगा? बच्चे यदि गोद ले भी लिए जाएं तो क्या उन समलैंगिकों के आचरण व व्यवहार के दुष्प्रभाव से बच्चा अछूता रह सकता है? दत्तक बच्चों को मातृत्व और पितृत्व का सुख कैसे संभव है? बच्चा जब विद्यालय जाएगा तो उसके माँ व बाप का नाम क्या होगा? संतानोत्पत्ति होगी ही नहीं तो गोद लिए बच्चे के प्रति उस कथित दम्पत्ति का व्यवहार और बच्चे पर उसका दुष्प्रभाव दोनों ही अकल्पनीय होंगे। बच्चों व बड़ों में पारिवारिक संस्कार कहां से आएंगे जो जीवन की शांति, व्यवस्था व नैतिक मूल्यों पर आधारित समाज के लिए बहुत आवश्यक हैं? पति पत्नी की युगल जोड़ी के बिना पूजा पाठ, धार्मिक अनुष्ठान कैसे हो पाएंगे? बच्चे की रिश्तों की डोर ही पूरी तरह टूट जाएगी। भाई-बहन, माता-पिता, मौसा-मौसी, दादा-दादी, नाना-नानी इत्यादि सभी रिश्तों की इति श्री हो जाएगी, जिनसे व्यक्ति जीवन भर ऊर्जावान रहता है। दत्तक को माता पिता की प्रॉपर्टी में हिस्सा कैसे मिलेगा? प्रकृति के प्रतिकूल इस अप्राकृतिक व्यवहार से समाज में व्यभिचार, हिंसा, रोग, असंतोष व अवैधानिक कार्यों को बढ़ावा मिलेगा। यदि सिर्फ शारीरिक आकर्षण को विवाह का रूप दिया गया तो कल कोई भी दो वयस्क (भाई-बहन या पिता-पुत्री भी) एक दूसरे से विवाह की जिद करेंगे! कहेंगे आप यह तय करने वाले कौन होते हैं कि हम अपनी यौन अभिरुचि किसके साथ रखें? एक बात और, समलैंगिक विवाह की बात तो हो रही है, किन्तु अभी तक किसी ने समलैंगिक निकाह की बात नहीं की! आखिर क्यों?

हालांकि, भारतीय संस्कृति, संस्कारों व मर्यादाओं को तार तार करने का प्रयास कोई नया नहीं है। षड्यंत्र पूर्वक भारतीय संविधान की मूल प्रति से पहले राम दरबार के चित्र को हटाया गया, संविधान की प्रस्तावना में “सेक्युलर व सोशलिस्ट” शब्दों को अनधिकृत तरीके से घुसाया गया,  माननीय सर्वोच्च न्यायालय के माध्यम से ‘दो वयस्कों के मध्य सहमति से सेक्स’ संबंधों को कानूनी मान्यता दी गई। उसके बाद ‘लिव इन रिलेशनशिप’ तथा ‘विवाहेत्तर संबंधों’ व ‘समलैंगिक व्यवहार’ को अपराध की श्रेणी से बाहर किया गया। मतांतरित अनुसूचित जाति के लोगों को आरक्षण दिलाकर अनुसूचित समाज के मूल अधिकारों पर भी कुठाराघात के प्रयास हो रहे हैं। अब समलैंगिकों के मध्य अप्राकृतिक व्यवहार को विवाह जैसे पवित्र शब्द से अलंकृत करने के गहरे षडयंत्र हो रहे हैं। पिछले कुछ वर्षों से लैंगिक भेद-भाव को समाप्त करने के नाम पर नई नई दलीलें भी दी जा रही हैं… जैसे – महिला और पुरुषों के लिए टॉयलेट (शौचालय) अलग-अलग क्यों? छात्र और छात्राओं के हॉस्टल अलग-अलग क्यों? यदि लड़के टॉपलैस रह सकते हैं तो लड़कियां क्यों नहीं इत्यादि…?

भारतीय संविधान प्रत्येक व्यक्ति के मूल अधिकारों की रक्षा हेतु प्रतिबद्ध है। चाहे वह व्यक्ति स्वयं कोई दुराचारी, पापाचारी या भारतीय संस्कृति का विरोधी ही क्यों ना हो। समलैंगिक व्यवहार चाहे अप्राकृतिक, अमर्यादित या भारतीय मान्यताओं के विरुद्ध हो तो भी, न तो यहां के कानून द्वारा और ना ही यहां के लोगों द्वारा उनका किसी प्रकार से तिरस्कार किया जाता है। किंतु, इतना सब कुछ होने के बावजूद, यदि उनके इस व्यवहार को विवाह का नाम देने का प्रयास होता है तो, निःसंदेह विवाह रूपी पवित्र बंधन को कलंकित करने का प्रयास जरूर माना जाएगा। वे समलैंगिक अपने घर में कैसे भी रहें, चाहे वे वैवाहिक दंपत्ति की तरह ही क्यों न रहें, किंतु भारतीय समाज उन्हें पति-पत्नी के रूप में कभी भी स्वीकार नहीं कर सकता। ऐसे में कुछ मुट्ठी भर लोग सर्वोच्च न्यायालय का बहुमूल्य समय तो बर्बाद कर ही रहे हैं, साथ ही, भारत के नागरिकों द्वारा चुने गए जनप्रतिनिधियों द्वारा कानून बनाने की उनकी शक्तियों का अतिक्रमण भी कर रहे हैं। जो काम संसद का है, उसे भला न्यायालय कैसे कर सकता है? दूसरी बात, इस तरह की मान्यता क्या कुछ व्यक्तियों या न्यायाधीशों द्वारा दी जा सकती है? तीसरी बात कि फ्री शिक्षा, स्वास्थ्य रोजगार, पर्यावरण संरक्षण व जनसंख्या नियंत्रण इत्यादि अन्य अनेक महत्वपूर्ण मामलों को किनारे कर इस मामले की त्वरित व दिन प्रति दिन सुनवाई किया जाना क्या उचित है? क्या इस मामले की तुलना श्रीराम जन्मभूमि वाद से करना अतार्किक व रामभक्त हिन्दू जनमानस का उपहास नहीं? इस विवाह के बाद महिला, बच्चों व संयुक्त परिवार के अधिकारों के साथ तलाक, भरण पोषण, इत्यादि से जुड़े लगभग 160 कानूनी प्रावधानों में संशोधन करना पड़ेगा, जिसके परिणाम स्वरूप क्या अनेक प्रकार की विधि-विषमताएं जन्म नहीं लेंगी? क्या बिना विवाह के दो समलैंगिक अपना बैंक खाता नहीं खुलवा सकते या अपनी बीमा पॉलिसी में एक दूसरे को नामित नहीं कर सकते? क्या सिर्फ इन तर्कों के आधार पर महान व पावन विवाह व्यवस्था तथा उस पर टिकी कुटुंब प्रणाली का यूं ही गला घोंट दिया जाना उचित है? यह बहुत संवेदनशील और पेचीदा विषय है, जिसमें हाथ डालने से कहीं इस कथित ‘राइट प्रोटेक्शन’ से ‘रॉइट्स प्रॉडक्शन’ ना शुरू हो जाए, इस बात का ध्यान भी रखना होगा।

(विनोद बंसल, प्रवक्ता, विश्व हिन्दू परिषद)

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