देश को एक सूत्र में पिरोने वाले महानायक सरदार पटेल
31 अक्टूबर सरदार पटेल जयंती पर विशेष
सीताराम व्यास
सरदार पटेल स्वतन्त्रता संग्राम के महानायक, कुशल संगठक एवं विलक्षण राजपुरुष थे। भारत को 15 अगस्त 1947 को आधी अधूरी स्वतन्त्रता मिली। देश अनिश्चय और विषम परिस्थिति से गुजर रहा था। एक ओर देश का दु:खद विभाजन हुआ और वहीं दूसरी ओर भारत का चालीस प्रतिशत भूभाग देशी रियासतों के अधिकार में था। अग़्रेजों ने देशी राजाओं को अधिकार दे दिया कि वे अपनी इच्छा से भारत और पाकिस्तान में मिलने के लिये स्वतन्त्र हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि 568 देशी रियासतें अंग़्रेजों की आज्ञानुसार भारत और पाकिस्तान की तरह स्वतन्त्र हैं, परिणामत: देश छोटे–छोटे टुकड़ों में विभाजित हो जाता है। यह विकट समस्या सबसे बड़ी दु:खद चुनौती के रूप में सम्मुख आई। देश के सभी राजनेता हतप्रभ थे। रास्ता भी नहीं दिखाई दे रहा था। डा. दिनकर जोशी लिखते है ‘‘अविश्वास के इस घोर अंधकार के बीच स्वातंत्र्य सूर्य उदित तो हुआ परन्तु लोग आशंकित थे और तब अपने स्वातंत्र्य के स्वप्न को साकार करने के लिए देशवासियों ने जिस एक व्यक्ति पर दृष्टि केन्द्रित की, उसका नाम बल्लभ भाई पटेल उर्फ सरदार पटेल था।’’ सरदार पटेल में नयी योजना बनाने और उसे सफलता पूर्वक मैदान में उतार देने की क्षमता थी। सरदार पटेल ने देशी रियासतों के विलीनीकरण का कार्य जिस शौर्य, कौशल और दृढ़ संकल्प–शक्ति के साथ किया वह विश्व के इतिहास में अद्वितीय है। ऐसी नाजुक परिस्थिति में सरदार पटेल ने राजाओं से विनम्र विनती की ‘‘आज सब ‘हम’ और ‘आप’ के रूप में नहीं मिल रहे हैं। हमें यह देखना है कि आने वाली पीढ़ी हमें दोषी न मानें। हम इतिहास के मोड़ पर खड़े हैं। यहां हमें मित्रों के रूप में बहुजनहिताय –बहुजनसुखाय तथा देश के कल्याण के लिये सोचना है’’। इस तरह सरदार पटेल ने रियासतों के विलीनीकरण का कार्य किया। सरदार कुशल दीर्घद्रष्टा थे। सर्वप्रथम कमज़ोर संघर्षरत राज्यों को सुरक्षा तथा सहायता का आश्वासन दिया। उड़ीसा के कमज़ोर राज्यों को आर्थिक सहायता (प्रिवीपर्स) का वादा किया और उसका पालन भी मृत्युपर्यन्त किया। जोधपुर, जैसलमेर, बीकानेर के राजाओं को भोपाल के नवाब हबीबुल्ला खां ने झूठे आश्वासन देकर पाकिस्तान में मिलने के लिये उकसाया। सरदार पटेल की मर्मभेदी दृष्टि से ये लोग बच नहीं सके। उनके स्वत्व को जगाया। जोधपुर नरेश ने कहा जिन्ना ने हमारी स्वतन्त्रता की रक्षा का वचन दिया है। सरदार ने कहा ‘‘दिल्ली के सुल्तानों को अपने राजमहल से बहन बेटी को उपहार स्वरूप देकर आपने जिस स्वातन्त्र्य को संभाल कर रखा, क्या उसी प्रकार आज भी रक्षा करना चाहते हैं?’’ (महामानवसरदार पृष्ठ 168)। हैदराबाद की समस्या का सरदार ने व्यूह रचना करके शस्त्र बल द्वारा समाधान किया। जूनागढ़ का ऐयाश नवाब जन–विद्रोह के डर से करांची भाग गया और श्यामलदास गांधी के नेतृत्व में ‘आरजी हुकूमत’ से विलीनीकरण किया। इसमें अतिशयोक्ति नहीं है कि अगर सरदार न होते तो विलीनीकरण का कार्य असंभव था। यह घटना भारत के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अंकित है। वे सचमुच आधुनिक भारत के चाणक्य थे जिसने खण्डित भारत को विशाल भूखंड में परिवर्तित कर दिया।
पाश्चात्य इतिहासकारों के पैरों को पोछने वाले भारतीय विचारक सरदार पटेल की तुलना बिस्मार्क से करते हैं। ऐसा बतलाकर वे बिस्मार्क का कद ऊॅंचा करते हैं। यह उनका भ्रम है। केवल साम्यता इतनी है कि बिस्मार्क ने जर्मनी का एकीकरण किया और सरदार पटेल ने भारत को एक किया। जर्मनी मुश्किल से तीन राज्यों में बंटा हुआ था। इनके बीच सत्ता का रक्त–रंजित संघर्ष था। बिस्मार्क ने इन राज्यों पर घातक हमला करके भयंकर कत्लेआम किया। बिस्मार्क को सैनिक शक्ति (आयरन एण्ड ब्लड पालिसी) से जर्मनी को एक करने में बारह वर्ष लगे जबकि लौह पुरुष सरदार पटेल ने रक्त की एक बूंद बहाये बिना कुछ महीनों में कार्य पूरा कर दिया। अपवाद स्वरूप विवशता से जूनागढ़, हैदराबाद में खून अवश्य बहाया। बिस्मार्क स्वयं जर्मनी का एक छत्र शासक बन गया, पर हमारे महानायक ने भारत का एकीकरण कर देशवासियों को समर्पित कर दिया। क्या इतिहास में ऐसा दिव्य पुरुष मिलेगा जिसने कर्मयोगी की तरह यश, गरिमा को तिलांजलि देकर राष्ट्र को अपना जीवन अर्पित कर दिया।इसलिये आज भी सरदार पटेल भारत के जन मानस में बसे हैं। वे भारत की एकता के शिल्पी थे।
श्री बल्लभ भाई का जन्म 31 अक्टूबर 1875 को बोरसद तालुके के करमसद गांव के किसान परिवार में हुआ। पिता का नाम झबेरभाई तथा माता का नाम डाही बहन था। झवेर भाई स्वामी नारायण सम्प्रदाय के अनुयायी थे। माध्यमिक शिक्षा के लिए वे नडियाद और बड़ोदा गये। बल्लभ भाई बचपन से निर्भीक तथा शरारती थे। एक बार बडोदरा में अध्यापक ने बिना किसी गलती के सजा के तौर पर पहाड़े लिखने के लिये कहा। दूसरे दिन शिक्षक के पूछने पर बल्लभ भाई ने उत्तर दिया ‘‘पाडा (भैंसा) चरवा गया छै।’’ एक बार उनके बगल में फोड़ा हो गया था। शल्य क्रिया करने वाला घबरा गया तो बल्लभ भाई ने अपने आप गर्म सलाख से फोड़ा दाग दिया। 1900 में वकालत की परीक्षा प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण की। 1911 में बैरिस्टर की शिक्षा प्राप्त करने इंग्लैंड गये। वे प्रथम पंक्ति के बैरिस्टर थे। वे सबसे ऊॅंची फीस लेते थे।
बल्लभभाई पटेल के राजनीतिक जीवन में उनके बहुआयामी व्यक्तित्व की झलक दिखाई देती है। वे स्वतन्त्रता आन्दोलन में संघर्षशील, संवेदनशील तथा महात्मा गांधी के अनन्य भक्त के रूप मे दिखलाई पड़ते हैं। गांधीजी के चम्पारण आंदोलन ने सरदार पटेल को प्रभावित किया। बारडोली –सत्याग्रह संघर्ष में बल्लभ भाई को महात्मा गांधी ने ‘सरदार’ कह कर सम्मानित किया। तब से बल्लभभाई सरदार के नाम से पहचाने जाने लगे। सरदार पटेल की गांधीजी के प्रति अत्यधिक श्रद्धा थी। द्वितीय युद्ध में भारत की भूमिका के संदर्भ में गांधीजी और सरदार में मत भिन्नता रही। उस समय सरदार पटेल ने कहा ‘‘मैंने गांधीजी से कहा कि आप यदि आदेश दें कि मेरे पीछे –पीछे चलिये तो मुझे उन पर इतनी श्रद्धा है कि मैं ऑंख बंद कर भागने लगूं परन्तु वे तो कहते हैं कि मेरे कहने पर नहीं, आप अपनी सूझबूझ के रास्ते पर चलिये।’’
कलकत्ता अधिवेशन में कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिये उनका नाम प्रस्तावित हुआ पर गांधीजी की इच्छा को आदेश मानकर स्पर्धा से हट गये। देश के विषम वातावरण में गांधीजी ने सरदार पटेल को याद किया और सन् 1931 करांची अधिवेशन में कांग्रेस का प्रमुख बनाया तत्पपश्चात् सन् 1946 में कांग्रेस की बारह प्रांतों की समिति ने अन्तरिम सरकार के भावी प्रधानमंत्री के रूप में सरदार पटेल का नाम प्रस्तावित किया। गांधीजी ने एक पत्र लिखकर सरदार पटेल को अपना नाम वापस लेने का संकेत दिया। समर्पित कार्यकर्ता की तरह बिना हिचकिचाहट के अपना नाम वापस ले लिया। इस संदर्भ में डा.दिनकर जोशी ने लिखा– ‘‘इस प्रकार देश के प्रथम भावी प्रधानमंत्री की नियुक्ति हो चुकी थी। प्रेमिका को पत्नी के रूप में पाने के लिए ब्रिटिश साम्राज्य की विरासत का त्याग करने वाले एडवर्ड अष्टम की अनेक कथाएं अनेक कलमबाजों ने लिखी हैं, परन्तु मातृभूमि की संभावित कलह को टालने के लिए उतने ही बड़े साम्राज्य का होठों तक आया प्याला ठुकरा देने वाला सरदार बल्लभभाई पटेल नाम का दूसरा महात्मा आज तक वैश्विक इतिहास में कहीं दर्ज नहीं हुआ है।’’ (महामानव सरदार पटेल पृष्ठ 79).
सरदार पटेल के जीवन काल के अंतिम पॉंच वर्ष चुनौतीपूर्ण थे। स्वतन्त्रता –देवी भारत की दहलीज पर दस्तक दे रही थी तो दूसरी ओर जिन्ना की पाकिस्तान बनाने की हठधर्मिता और कांग्रेस में सत्ता प्राप्ति की अकुलाहट एवं देशी राज्यों के विलीनीकरण की समस्या भी थी। ऐसी विकट अनिश्चय की स्थिति में महानायक सरदार पटेल ने अडिग ध्येयनिष्ठा और अटूट देशभक्ति का परिचय दिया। राष्ट्र की अस्मिता को पुन: गौरवान्वित करने के लिये सरदार ने सोमनाथ मन्दिर का पुनर्निर्माण करवाया और वहां की मिट्टी को हाथ में लेकर संकल्प किया और कहा– ‘‘इस मन्दिरकी मूर्ति प्रतिष्ठा का भव्य समारम्भ सम्पन्न होगा।’’ 11 मई 1951 को इस मन्दिर में पूरे शास्त्रीय विधान के साथ मूर्ति स्थापना का कार्य भारत के तत्कालीन प्रथम राष्ट्रपति डा.राजेन्द्र प्रसाद द्वारा सम्पन्न हुआ। हालांकि पं. नेहरू इस पक्ष में नहीं थे कि धर्मनिरपेक्ष राज्य का राष्ट्राध्यक्ष मूर्ति की प्रतिष्ठापना करे। डा. राजेन्द्र प्रसाद ने पं. नेहरू की इच्छा के विरुद्ध पवित्र कार्य को सम्पादित किया। 7 अक्टूबर 1950 को आखिरी बार हैदराबाद गये वहां मानपत्र भेंट किया गया। प्रत्युत्तर में कहा ‘‘—- मैं जीवन के अंतिम क्षण तक शुद्ध और पवित्र जीवन व्यतीत करुँ और जनता की सेवा करता रहूँ।’’ सरदार पटेल ऐसे महावीर थे कि मृत्यु के कपाल पर इतिहास की अविस्मरणीय, अनूठी घटना को अंकित करके ही विश्राम लिया। विमान यात्रा से जयपुर जा रहे थे। विमान में खराबी आ गई। विमान चालक ने नदी किनारे विमान उतारा। सरदार सुरक्षित बच गये। वी.पी.मेनन को समाचार मिला। प्रात: सरदार मेनन से मिले तथा मेनन की आँखे अश्रुपूर्ण थीं। सरदार हंसते हुए बोले ‘‘जब तक भारत को एकता के एक सूत्र में न पिरों दूं, तब तक मरुँगा नहीं।’’
सरदार पटेल ध्येय पथ के अनथक राही थे। उनका उपास्य देवता केवल और केवल भारत था। सरदार पटेल ने रियासतों को विलीन करके भारत को विशाल भूखंड में परिवर्तित कर दिया। स्वप्न साकार हुआ। अब देश को जाज्वल्यमान करने वाले कर्मदीप सरदार महाकाल के अस्तांचल पर पहुँच गये। 15 दिसम्बर 1950 को दिल का दौरा पड़ा और अखंड ज्योति में विलीन हो गये। सरदार पटेल अपने महान–उदात्त कार्य को पूर्ण करके हमेशा के लिये नेपथ्य मे चले गये। अगर कुछ शेष रह गयी तो बस ‘कीर्ति’ । महानायक सरदार पटेल के जाने के बाद भी अपने कार्यों से उपजे फलों के कारण लोक स्मृति में स्थान पा गये।
महामानव सरदार के महाप्रयाण के पश्चात तत्कालीन सत्तासीन नेताओं ने उनको भुला दिया। उनको भारत सरकार ने विलम्ब से 1991 में भारतरत्न की उपाधि से सम्मानित किया जबकि एम.जी.राजचन्द्रन, चक्रवर्ती राजगोपालाचारी, पं. नेहरू (जीवन काल में) भारत रत्न से सम्मानित हो चुके थे। मौलाना आज़ाद की मृत्यु 1954 में हुई तत्पश्चात् दूसरे या तीसरे महीने प्रधानमंत्री नेहरू ने संसद भवन में तैल चित्र लगवा दिया, हमारा महानायक सरदार उपेक्षित रहा। संसद सदस्यों ने सरदार का तैल चित्र संसद के भवन के सभाकक्ष में लगवाने के लिये अनुरोध किया। ग्वालियर के महाराजा सिंधिया ने निजी खर्च से सरदार पटेल का तैलचित्र बनवाया और डा.राजेन्द्र प्रसाद ने उस चित्र का अनावरण किया। इस अवसर पर सरदार को भावाजंलि अर्पित करते हुए सिंधिया ने कहा था– “Here is the man whom I once hated. here is the man whom I was later afraid. Here is the man whom I admire and love.” (संदर्भ – महामानव सरदार डा.दिनकर जोशी – पृष्ठ 34).
ऐसे दिव्य पुरुष का जीवन इतिहास के पन्नों में सिमटकर नहीं रहता, अपितु उनकी दिव्य स्मृति जनता के हृदय में चिर–स्थायी निवास करती है और जनमानस को राष्ट्र के प्रति निष्काम समर्पण का मनोहारी संदेश देतीहै।