सांप्रदायिक चश्मे को तोड़ने का समय
– ऋत्विज
सरसंघचालक भागवत जी के बौद्धिक ने दिखाई दिशा
एक कहानी हम बचपन से सुनते आए हैं, एक साधु और मकोड़े की। साधु नदी में नहा रहे थे। पानी में एक मकोड़ा दिखा। उन्होंने उसे हाथ में उठाया और तट की ओर चले। इसी बीच मकोड़े ने उनके हाथ पर काट लिया। एकाएक काटने से विचलित होने के कारण मकोड़ा उनके हाथ से छिटक फिर पानी में गिर गया। साधु ने उस मकोड़े को फिर पानी से निकाला और तट की ओर बढ़ चले। मकोड़े ने फिर साधु को काट लिया और हथेली पर काटने के विचलन के चलते फिर पानी में जा गिरा। यह क्रम कई बार चला। अन्ततः साधु ने मकोड़े को तट पर ले जा कर छोड़ दिया। किनारे पर खड़ा एक गड़रिया यह सब देख रहा था। उससे रहा नहीं गया। साधु से पूछ बैठा, महाराज जब मकोड़ा बार बार काट रहा था, उसे किनारे आना ही नहीं था तो आप उसे इतना कष्ट सह कर किनारे क्यों लाए? यह सुन साधु मुस्कराए। बोले, तुमने देखा मकोड़ा बार बार काट रहा था। गड़रिया बोला हां महाराज, यही तो उनका स्वभाव होता है। इसके जवाब में साधु ने कहा, देखो इतना सा जीव इतने संकट में भी अपना स्वभाव नहीं छोड़ सकता ऐसे में मैं कैसे अपना स्वभाव छोड़ देता। मेरा तो स्वभाव ही है संकट में पड़े प्राणी मात्र की रक्षा करना।
कुछ ऐसी ही प्रेरणा मिलती है सरसंघचालक मोहन भागवत के हाल ही के नागपुर महानगर के ऑनलाइन बौद्धिक से। उन्होंने कहा कि संकट के इस समय में हमारा कार्य सेवा का कार्य है और समाज को सेवा के कार्य में जुटे रहना है, बिना यह देखे कि कुछ लोग क्या कर रहे हैं। किसी एक की गलती की सजा सबको नहीं मिले ऐसा उनका भाव था। लोग हर बात में राजनीति ढूंढते हैं। भारत तेरे टुकड़े होंगे कहने वाले लोग इस दौर में भी राजनीति करने से बाज नहीं आ रहे हैं। लेकिन भागवत का संदेश साफ रहा है। राजनीति से बचना है। सावधान रहना है। किसी भी प्रकार से प्रतिक्रियावश कोई खुन्नस नहीं आनी चाहिए। कोई अगर डर या क्रोध से कुछ उल्टा सीधा कर देता है तो सारे समूह को उसमें लपेट कर उससे दूरी बनाना ठीक नहीं है। भारत के सभी 130 करोड़ भारतीय भारत माता के पुत्र हैं। बंधु हैं। समाज के प्रमुख लोग इसी बात को आगे बढ़ाएं। यह बिल्कुल साधुत्व के स्वभाव के साथ समाज कार्य में लगे रहने का भाव है।
यह किसी से छुपा नहीं है कि देश में कोरोना के फैलाव में मरकज में तबलीगी जमात का जमावड़ा एक बड़ा कारक रहा है। कई जगहों पर चिकित्साकर्मियों के साथ दुर्व्यवहार हुआ। समाचार माध्यमों में ऐसे अनेक समाचार आए। कथित बुद्धिजीवी इसे भी साम्प्रदायिक रंग देने में जुट गए और इस तरह के साम्प्रदायीकरण का आरोप हमेशा की तरह बिना विचारे ही राष्ट्रभक्तों पर लगा दिया। अब उनके पास कहने को कुछ नहीं है। देश के हर वर्ग ने भागवत जी के संदेश की प्रशंसा की है। उन्होंने तो स्वयं कहा है कि यह संदेश केवल स्वयंसेवकों के लिए नहीं बल्कि पूरे समाज के लिए है। जाहिर है संघ को मुस्लिम विरोधी बताने वाले लोगों के लिए यह संदेश आंखें खोलने वाला है। उन्हें संघ की सच्ची विचारधारा से अवगत करवाता है। अब यह तो अपनी अपनी समझ की बात है कि वे जानते बूझते हुए भी अपनी आंख और दिमाग के दरवाजे बंद रखना चाहते हैं या सच्चाई को मान लेना।
महाराष्ट्र में दो साधुओं की भीड़ द्वारा पुलिस की उपस्थिति में हुए हमले और उनकी निर्मम हत्या से पूरा देश स्तब्ध है। इस दौर में भी किसी ने अपनी और से सांप्रदायिक बात नहीं की पर कथित बुद्धिजीवियों के ट्वीट आने शुरू हो गए कि यह सांप्रदायिक घटना नहीं है। अरे भाई, कौन कह रहा है कि सांप्रदायिक घटना है, यह तो हृदयविदारक घटना है, निंदनीय है। इसे असांप्रदायिक कहने मात्र से इस घटना की पीड़ा कम नहीं होती। घटनाओं को संप्रदायों के चश्मे से देखना ही क्यों? आखिर पुलिस की मौजूदगी में ऐसा कैसे हो सकता है? राजनीति देखिए।
इस घटना के कुछ दिन बाद उत्तर प्रदेश में किसी अन्य विवाद में दो साधुओं की हत्या की तुलना इस घटना से की जा रही है। क्या पालघर में किंकर्तव्यविमूढ़ पुलिस के सामने सैकड़ों लोगों की हिंसक भीड़ द्वारा साधुओं पर लाठियां बरसाकर की गई नृशंस हत्या की घटना और एक आपराधिक हत्याकांड की घटना में कोई समानता हो सकती है? हर बात को सांप्रदायिक चश्मे से देखना कुछ लोगों की मजबूरी हो जाती है। उनका अस्तित्व ही इस पर टिका है। उन्हें मन में डर रहता है कि भारत में यदि यह सद्भावी माहौल बना रहा तो उनका क्या होगा? इसलिए वे भारत तेरे टुकड़े होंगे, जैसे विचारों को आगे बढ़ाते हैं। उन्हें अपने सांप्रदायिक नजरिए वाले चश्मे को बदलना होगा।
भागवत जी का संदेश साफ है, आपदा के इस दौर में उन्होंने कहा कि कार्यक्रम नहीं कार्य करना है। कार्य किस तरह से हो यह देखना है। मन में से नकारात्मकता के भाव निकाल कर विदुर नीति में वर्णित दुर्गुणों का त्याग करना है। स्वावलंबन को अपनाना है। स्वयं को सुरक्षित रखना है। सबको साथ लेकर चलना है। सबकी सेवा करनी है। समाज में विघटनकारी विचार बढ़ाने वालों के मंसूबों को सफल नहीं होने देना है और परस्पर संवाद और शांति से ही इस संकट पर विजय पाना है। जैसी प्रतिक्रिया इस बौद्धिक संदेश को समाज से मिली है वह स्वयं ही अपना अर्थ स्पष्ट करती है। देवबंद सहित कई मुस्लिम संस्थाओं और विद्वानों ने भागवत जी के संदेश का न केवल स्वागत किया बल्कि अनुकरणीय भी बताया। अब यह समय है कि सभी को अपने मन से आशंकाओं के बादल छांट कर विश्वास की बारिश करनी चाहिए ताकि सभी एक साथ मिलकर कोविड महामारी का मुकाबला कर सकें। सभी को जांच में सहयोग करना होगा, घरों में रहना होगा। ऐसा नहीं होने पर वे स्वयं के साथ ही पूरे समाज को संकट में डालेंगे।