व्यवहार में आई सामाजिक बुराइयों को हिन्दू समाज ने कभी सैद्धान्तिक मान्यता नहीं दी- निम्बाराम

व्यवहार में आई सामाजिक बुराइयों को हिन्दू समाज ने कभी सैद्धान्तिक मान्यता नहीं दी- निम्बाराम

व्यवहार में आई सामाजिक बुराइयों को हिन्दू समाज ने कभी सैद्धान्तिक मान्यता नहीं दी- निम्बारामव्यवहार में आई सामाजिक बुराइयों को हिन्दू समाज ने कभी सैद्धान्तिक मान्यता नहीं दी- निम्बाराम

पिछले दिनों ज्ञानगंगा प्रकाशन द्वारा भीम-मीम गठजोड़ (कथ्य और तथ्य) नामक पुस्तक पर एक परिचर्चा का आयोजन किया गया, जिसमें लेखन व स्वाध्याय में रुचि रखने वाले 40 से अधिक समाज बंधुओं ने भाग लिया। परिचर्चा में मुख्य वक्ता के रूप में राजस्थान के क्षेत्र प्रचारक निम्बाराम तथा कार्यक्रम के अध्यक्ष के रूप में अम्बेडकर पीठ के पूर्व महानिदेशक कन्हैयालाल बेरवाल ने अपने विचार व्यक्त किए।

अपने उद्बोधन में कन्हैयालाल बेरवाल ने बाबा साहब भीमराव अंबेडकर के विचारों को याद करते हुए कहा कि स्वयं को अनुसूचित जाति समाज का हित चिंतक या बुद्ध का अनुयायी बताने वाले लोगों ने न तो बाबा साहब को ठीक से जाना और न ही उनके विचारों को और न ही वे उनके बताए मार्गों पर चल पा रहे हैं। बाबा साहब अपने सरनेम के रूप जो अंबेडकर शब्द लगाते थे, वह उनके ब्राह्मण शिक्षक के सम्मान में है। उनका पूरा नाम भीमराव रामजी अम्बेडकर है, जिसमें रामजी उनके पिता का नाम है। ये दोनों बातें यह बताती हैं कि वह भारतीय संस्कृति के पोषक थे।

बेरवाल ने कहा कि बाबा साहब का भारतीय संस्कृति, संस्कृत व सनातन ग्रंथों पर गहरा अध्ययन था। उन्होंने नारद संहिता का आधार लेकर ‘क्षुद्र कौन’ में दास प्रथा के बारे में काफी कुछ लिखा है, जिसमें उन्होंने बताया कि दास सभी जातियों से होते थे।

कार्यक्रम के मुख्य वक्ता निम्बाराम ने अपने उद्बोधन में राजस्थान के अलग-अलग स्थानों पर वर्षों से चली आ रही समग्र समाज के मूल स्वभाव की संस्कृति को रेखांकित किया। उन्होंने कहा कि आज भी जब मारवाड़ के किसी गांव में कोई बेटी ब्याही जाती है तो बेटी के गॉंव का कोई भी व्यक्ति जब उस गांव में जाता है तो सबके लिए कुछ ना कुछ लेकर जाता है, ऐसा प्रचलन सदियों से चला आ रहा है।

उन्होंने पुस्तक की सराहना करते हुए इसे गागर में सागर भरने जैसा बताया और कहा कि व्यवहार में आई सामाजिक बुराइयों को हिन्दू समाज ने कभी सैद्धान्तिक मान्यता नहीं दी।

पुस्तक के बारे में बताते हुए सह लेखक कुमार वीरेंद्र ने कहा की भारतीय ग्रंथों में कभी जाति की बातें नहीं कही गईं। सभी में वर्ण व्यवस्था की बात आती है और संस्कार (कर्म) के आधार पर वर्ण निर्धारित होते हैं- जन्मना जायते शुद्र: संस्कारात् द्विज् उच्यते। उन्होंने संतों के समाज को बांधे रखने के प्रयासों को याद करते हुए कहा कि उनका उद्देश्य एक ही था- स्वधर्मे निधनं श्रेय: परधामो भयावह:’। साथ ही संवैधानिक संरक्षण में अनुसूचित जनजाति वर्ग की प्रगति पर उन्होंने कहा कि गत वर्षों में सरकारी डेटा के अनुसार अंतरजातीय विवाह बढ़े हैं। ऐसे में जब व्यवहार में भी जातिगत भेद कम हो रहे हैं तो फिर राजनीतिक वर्ग द्वारा उन्हें बढ़ाया क्यों जा रहा है?

कार्यक्रम का संचालन डॉ. अमित झालानी ने किया।

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पुस्तक भीम-मीम गठजोड़ पर परिचर्चा

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