सावरकर ने क्यों लिखा अंग्रेज़ों को पत्र?
भाग सात
अंग्रेजों की कैद में जेलों में सड़ना और मृत्यु प्राप्त करना ही सावरकर की क्रांति का उद्देश्य नहीं था। सावरकर ने उत्तरदायी सहयोग के रूप में ऐसी मात्र तीन बातों को स्वीकार किया जो उन्हें भारत के लिए बेहतर करने और अपने समाज के लिए बड़ा काम करने में सक्षम बनाती हैं।
चूंकि वह एक राजनीतिक बंदी थे, जिन्हें पकड़ने के लिए अंग्रेजों ने अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय का भी उल्लंघन किया था। इसलिए उन्हें जेल से बाहर आने के लिए अंग्रेजों को पत्र लिखने का पूरा अधिकार था। इन पत्रों को जेएनयू के वामपंथियों और मणिशंकर जैसे कांग्रेसी नेताओं द्वारा “क्षमा” के रूप में प्रचारित करना सावरकर का अवमूल्यन कर आकाश पर थूकने जैसा है।
पूर्वाग्रह से ग्रसित इतिहासकारों ने इन पत्रों को ढूंढ निकालने का दावा इस तरह किया है, जैसे कि वे कुछ गोपनीय ब्रिटिश सीआईडी फाइलें हों। लेकिन सच्चाई यह है कि इन सभी छः पत्रों को विनायक सावरकर ने अपनी आत्मकथा में कारावास काल के वर्णन के साथ उद्धृत किया है। अतः उन पत्रों को सार्वजनिक करने की बात ही असत्य है। उन पत्रों के शब्दों के भावों को तोड़ मरोड़ कर प्रस्तुत करना आश्चर्यजनक है। कम्युनिस्टों की यह नीति रहती है कि एक झूठ को ज़ोर से और बार बार बोलो, ताकि वह झूठ सत्य जैसा लगने लगे।
भारत सरकार के संस्कृति एवं पर्यटन मंत्रालय के मंत्री प्रहलाद पटेल ने चार फरवरी को पूछे गए एक प्रश्न के उत्तर में संसद में बताया कि अंडमान निकोबार के आर्ट्स एंड कल्चर डिपार्टमेंट में सावरकर की माफी को लेकर कोई भी डॉक्यूमेंट नहीं है, जिससे यह सिद्ध होता हो कि सावरकर ने अंग्रेजों से माफी मांगी थी।
विश्व युद्ध के बाद कई राजनीतिक बंदियों को कल्याण के कार्य के रूप में रिहा कर दिया गया था, लेकिन सावरकर को रिहा नहीं किया गया? जब नारायणराव गांधी जी के पास सावरकर की रिहाई के लिए पहुंचे, तो उन्होंने स्वयं भी एक पत्र लिखने का सुझाव दिया। प्रश्न यह नहीं है कि कितने पत्र लिखे गए, प्रश्न यह है कि अंग्रेज़ों को कितना डर लगता था सावरकर से, कि वे उनके पत्रों का सटीक उत्तर तक नहीं दे सके। सावरकर के प्रति अमानवीयता का व्यवहार ब्रिटिश संसद में भी नियमित रूप से चर्चा का विषय था। अपने पत्रों में, उन्होंने स्वयं को अकेला छोड़कर अन्य राजनीतिक कैदियों की रिहाई की भी मांग की।
अंतत: मई 1921 में सावरकर को अंडमान से रिहा कर दिया गया, वह भी पत्र की स्वीकृति के कारण नहीं, बल्कि अंग्रेज सरकार की छवि के कारण। तब सेल्युलर जेल को ही बंद करने पर विचार किया जा रहा था।
अंडमान से उन्हें कलकत्ता और फिर रत्नागिरी स्थानांतरित कर दिया गया जहॉं उन्हें 3 वर्ष यानी 1924 तक जेल में रखा गया। जेल से छूटने के बाद उन्हें 13 और सालों तक रत्नागिरी में ही नजरबंदी में रखा गया। राजनीतिक गतिविधियों में उनके सम्मिलित होने पर रोक लगा दी गई। अंततः भारत माता के इस लाल को मई 1937 को पूर्ण रूप से सजा से स्वतंत्र किया गया, जिसके तुरंत बाद उन्होंने भारतीयों के सैनिकीकरण की योजना पर सुचारू रूप से ध्यान देना शुरू किया।
क्रमश: