सुरक्षा व स्वास्थ्यकर्मियों पर हमला करने वालों की मानसिकता आखिर क्या है?
शाहबानो केस इस देश में मजहबी तुष्टीकरण का सबसे शर्मनाक प्रकरण बना। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने इससे और चार कदम आगे जाते हुए घोषणा की कि भारत के संसाधनों पर मुसलमानों का पहला हक है। ऐसी नीतियों ने इनके अंदर विशेष होने की भावना को दिनोंदिन बढ़ाया। ये नीतियां भारतीय समाज को विभाजित करने का बड़ा कारण बनीं।
डॉ. शुचि चौहान
महामारी के इस दौर में सुरक्षा व चिकित्साकर्मी जैसे देवदूत बनकर आए हैं। सुरक्षाकर्मियों ने कोरोना संक्रमण से बचाव के एकमात्र उपाय सोशल डिस्टेंसिंग का पालन कराने में एड़ी चोटी का जोर लगा रखा है, वहीं चिकित्साकर्मी अपनी जान की चिंता किए बिना संक्रमितों की जान बचाने में लगे हैं। पूरे देश के लोग उनका सहयोग कर रहे हैं सिवा एक कट्टरपंथी समुदाय के।
आज देश के चार राज्यों तमिलनाडु, महाराष्ट्र, दिल्ली व राजस्थान में कोरोना संक्रमितों की संख्या सबसे अधिक है, जिनमें इसी समुदाय के लोग सर्वाधिक हैं। तमिलनाडु, दिल्ली और राजस्थान में तो इनका प्रतिशत 90 है। फिर भी जब मेडीकल टीम इनके जीवन की सुरक्षा के लिए इनके घरों में जाती है तो पूरा मुहल्ला उन पर पत्थर फेंकता है। देशभर से लगातार ऐसे समाचार प्राप्त हो रहे हैं।
कर्फ्यू तोड़कर सामूहिक नमाज पढ़ने और दूसरे जिलों में आवागमन की तो न जाने कितनी ही घटनाएं प्रतिदिन सामने आ रही हैं। उत्तर प्रदेश में चिकित्सा वॉर्ड में तोड़फोड़, मेडीकल स्टाफ पर थूकना, वॉर्ड में नंगे घूमना कहीं कहीं सब्जियों को थूक लगाकर बेचना, जैसे भी समाचार आए। ध्यान देने योग्य बात है कि ये सारी घटनाएं मुस्लिम बहुल क्षेत्रों और मुस्लिमों से जुड़ी हैं। इनके ऐसा करने के पीछे क्या मानसिकता हो सकती है?
इसे समझने के लिए हमें तीस के दशक में या उससे भी पहले जाना होगा, जब इनका तुष्टीकरण होना शुरू हुआ। जिस वंदे मातरम् गीत को गाते हुए खुदीराम बोस जैसे अनेक क्रांतिकारी फांसी के फंदे पर झूल गए थे, उसे मुस्लिम लीग ने मूर्ति पूजक बताकर इस्लाम विरोधी कहा था। कांग्रेस कार्यसमिति की एक बैठक में उनकी मांगों को जायज मान लिया गया और अनुशंसा की गई कि राष्ट्रीय बैठकों में आगे से इस गीत के शुरुआती दो चरण ही गाए जाएंगे। इसी तरह टर्की के खलीफा को पदच्युत किए जाने का दुनिया भर के मुसलमानों के साथ ही हिंदुस्तानी मुसलमानों ने विरोध किया और उन्होंने देश में खिलाफत आंदोलन शुरू किया। इस आंदोलन का भारत की स्वतंत्रता से कोई लेना देना नहीं था परंतु गांधी जी ने असहयोग आंदोलन में मुसलमानों की सहभागिता के लिए उनके तुष्टीकरण में कोई कमी न रखी। तुष्टीकरण का ही परिणाम था, देश बंट गया।
बंटवारे के बाद यहॉं रह गए मुसलमानों को विशेषाधिकार देने के बजाय पूरे भारतीय समाज को समरस बनाने की नीतियां लागू होनी चाहिए थीं। लेकिन हुआ इसके विपरीत। संविधान के अनुच्छेद 29 व 30 के अर्थ को तोड़ा मरोड़ा गया। ये अनुच्छेद अल्पसंख्यक वर्गों के हित संरक्षण व शिक्षा संस्थानों की स्थापना तथा संचालन के बारे में बताते हैं, किंतु अल्पसंख्यक शब्द को परिभाषित नहीं करते। इसी का फायदा उठाते हुए इनमें प्रदत्त अधिकारों को मजहबी विशेषाधिकार के रूप में स्थापित कर दिया गया। कश्मीर में धारा 370, वहॉं का अलग संविधान, देश में समान नागरिक संहिता का लागू न होना, धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार के अंतर्गत धर्म-परिवर्तन व मुस्लिम शैक्षिक संस्थान खोलने की अनुमति देना जैसी नीतियों ने इन्हें कुछ अलग होने का अहसास कराना शुरू कर दिया।
समय के साथ, बीमारी बढ़ती गई। शाहबानो केस इस देश में मजहबी तुष्टीकरण का सबसे शर्मनाक प्रकरण बना। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने इससे और चार कदम आगे जाते हुए घोषणा की कि भारत के संसाधनों पर मुसलमानों का पहला हक है। 2001 की जनगणना के धर्म आधारित आंकड़ों की मनचाही व्याख्या, पोटा को निरस्त करना, मुस्लिमों की आर्थिक स्थिति में सुधार की सिफारिश के नाम पर सच्चर कमेटी की नियुक्ति, मुस्लिमों को 5 प्रतिशत आरक्षण देने की वकालत, अल्पसंख्यक संस्थाओं को अन्य पिछड़ा वर्ग आरक्षण से बाहर रखना, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय को अल्पसंख्यक दर्जा देना, अल्पसंख्यकों के लिए एक अलग मंत्रालय का गठन, हज सब्सिडी में बढ़ोत्तरी जैसी नीतियों ने इनके अंदर विशेष होने की भावना को दिनोंदिन बढ़ाया। ये नीतियां भारतीय समाज को विभाजित करने का बड़ा कारण बनीं।
इसी दौर में जब आतंकवाद चरम पर था, आतंकवादियों का जमकर समर्थन किया गया। अगस्त 2007 के आखिरी सप्ताह में प्रकाशित टाइम्स ऑफ इंडिया की एक रिपोर्ट से पता चलता है कि अधिकांश जिहादी वारदातों में चाहे कितने ही बड़े पैमाने पर हिंसा क्यों न हुई हो और चाहे कितनी ही संपत्ति क्यों न नष्ट हुई हो-मामले दर्ज नहीं किए गए। अधिकांश मामलों की जांच किसी न किसी बहाने से रोक दी गई, क्योंकि खोज के सूत्र किसी खास समुदाय की ओर बढ़ रहे थे। इशरत जहॉं को बेटी बताना हो या याकूब मेनन की फांसी रुकवाने के लिए आधी रात को कोर्ट खुलवाना हो या मुम्बई हमलों के दौरान इस्लामिक आतंकवाद के विरुद्ध हिंदू आतंकवाद की फेक थ्योरी गढ़नी हो, सब जगह हिंदुओं को कटघरे में खड़ा कर, मुस्लिमों को मासूम बताने का नैरेटिव ही गढ़ा गया।
इन्हीं सब कारणों, दशकों के तुष्टीकरण व राजनीतिक संरक्षण से इस समाज के मन में यह धारणा मजबूत हो गई कि यदि ये सामूहिक रूप से किसी बात का विरोध करेंगे तो शासन, प्रशासन भी इनका कुछ नहीं बिगाड़ पाएंगे, चाहे संविधान या कानून का मखौल उड़ाना ही क्यों न हो। भीड़ में इकट्ठा होकर पत्थर बरसाएंगे, तो पुलिस को भी पीछे हटना होगा। आगे का काम जन प्रतिनिधि सम्भाल लेंगे। एक आम मुसलमान अपनी इस्लामिक शिक्षा, मजहबी रूढ़िवादिता व मौलाना मौलवियों के उपदेशों से प्रभावित रहता है, उसके अवचेतन मन को यह समझा दिया गया है कि चाहे कितनी ही परेशानियां क्यों न आएं यह जीवन तो जिहाद के लिए है। आम आदमी बचपन से पिलाई घुट्टी को ही सच मान लेता है। ऐसा ही कुछ इस समाज के साथ है। गलती पूरे समाज की नहीं है, इसके लिए जिम्मेदार इनके नेतृत्व व धर्मगुरु हैं जो इस्लाम को पूरी दुनिया में फैलाने की चाहत में इन्हें तरह तरह के जिहाद के लिए उकसाते हैं और ये पूरी उम्र गरीबी और अशिक्षा से जूझते हुए दुनिया में इस्लामी हुकूमत कायम करने का ईमान लिए इस दुनिया से चले जाते हैं। कोरोना महामारी जैसी घटनाएं तो कभी कभी होती हैं, जब इनकी मानसिकता सार्वजनिक रूप से बाहर आती है।
कोरोना वायरस तो भारत मे 2 महीने से सक्रिय भूमिका में है। लेकिन जिहादी कुत्सित मानसिकता तो वर्षो से भारत का शोषण कर रही है।