स्वराज 75- अमर बलिदानी सेठ अमरचंद बांठिया

अमर बलिदानी सेठ अमरचंद बांठिया

स्वराज – 75

 22 जून बलिदान दिवस पर विशेष

अमर बलिदानी सेठ अमरचंद बांठिया

अमरचंद बांठिया का जन्म राजस्थान के बीकानेर में 1793 में हुआ था। व्यावसायिक घाटे से निपटने के लिए बांठिया अपने पिता के सानिध्य में परिवार के साथ ग्वालियर के सर्राफा बाजार में आकर बस गए। अमरचंद की कर्त्तव्यपरायणता, कठोर परिश्रम, नैतिक उच्चता व सहज-सरल स्वभाव के कारण ग्वालियर राजघराने ने उन्हें नगर सेठ की उपाधि दे दी। राजघराने की तरह उन्हे पैरों में सोने के कड़े पहनने का अधिकार भी दिया। ग्वालियर के तत्कालीन शासक महाराज सिंधिया ने उन्हें राजकोष का कोषाध्यक्ष बना दिया था।

वे धर्म प्रेमी तो थे ही सन्तों के वचनों के प्रति भी श्रद्धा रखते थे, 1855 में ग्वालियर में चतुर्मास हेतु पधारे संत विजय बुद्धि के प्रवचन उन्होंने सुने। इससे पहले 1854 में भी वे उनके प्रवचन सुन चुके थे। संत विजय बुद्धि अंग्रेजों के प्रखर विरोधी थे, यही भावना अमरचंद के मन में भी बैठ गई ।

1857 का स्वातंत्र्य समर का शंखनाद हो चुका था। एक क्रांतिकारी ने एक दिन जैन मत के अनुयायी अमरचंद बांठिया से कहा, “भारत माता को परतंत्रता से मुक्त कराने के लिए अब तो आपको भी अहिंसा छोड़कर शस्त्र उठा लेना चाहिए।” बांठिया ने कहा कि “भाई मैं अपनी शारीरिक क्षमताओं को जानता हूं प्रत्यक्ष तो नहीं, किन्तु समय आने पर देश के लिए भामाशाह की तरह ही सही पर अपना योगदान अवश्य दूंगा।”

वह शुभ समय व सुअवसर आ गया था, जब संतश्री से प्राप्त देशभक्ति की भावना का अमरचन्द प्रकटीकरण कर सकें। रानी लक्ष्मीबाई, उनके सेनानायक राव साहब और तात्या टोपे आदि क्रांतिवीर ग्वालियर के रणक्षेत्र में अंग्रेजों के विरुद्ध डटे हुए थे। उस समय लक्ष्मीबाई के सैनिकों को कई माह से न तो वेतन मिला था और न ही उनके लिए भोजन पानी की पर्याप्त व्यवस्था हो पा रही थी।

2 जून, 1858 को लक्ष्मीबाई के सेनापति राव साहब ने अमरचंद बांठिया से आर्थिक सहयोग चाहा। तत्कालीन ग्वालियर शासक सिंधिया अंग्रेजों के मित्र थे, ऐसी परिस्थिति में भी अमरचंद बांठिया ने देश हित में निर्णय लेकर राजकोष राव साहब के सुपुर्द कर दिया।

1857 की क्रांति के समय क्रांतिवीरों को सेठजी ने अपना धन-द्रव्य सर्वस्व समर्पित कर दिया। सेठ अमरचंद भूमिगत होकर क्रातिकारियों की मदद भी करते रहे।

इस कोष के मिलने से भारतीय सैनिकों को 5-5 माह का वेतन दिया जा सका। सेना की अन्य आवश्यकताएं भी पूरी हो सकीं। अमरचंद बांठिया से प्राप्त सहायता से क्रांतिकारी सेना का उत्साह व आत्मविश्वास बढ़ गया। लक्ष्मीबाई की सेना ने ग्वालियर पर कब्जा कर लिया। परन्तु अंग्रेज सेनानायक ह्यूरोज ने 16 जून को पूरी शक्ति से क्रांतिसेना पर आक्रमण कर दिया। भीषण युद्ध हुआ। दुर्भाग्यवश लक्ष्मीबाई लड़ती हुई वीरगति को प्राप्त हुईं। ग्वालियर पर पुनः अंग्रेजों का अधिकार हो गया।

अमरचंद बांठिया द्वारा 1857 की क्रांति में क्रांतिकारियों का सहयोग करने का सीधा सा अर्थ था अपने जीवन को संकट में डालना और हुआ भी यही। अंग्रेजी सेना ने प्रतिशोध की भावना से उनके विरुद्ध वारंट जारी कर दिया। अमरचंद बांठिया को बंदी बना लिया गया। उन पर राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया। जबकि वह अपनी निजी सम्पत्ति किसी को भी दे सकते थे। ग्वालियर राजघराना अंग्रेजों का चाटुकार था। इस कारण अमरचंद बांठिया का उसने कुछ भी सहयोग नहीं किया। अंग्रेजों ने उन्हें पकड़कर जेल में डाल दिया। भीषण यातनायें दीं। उनके आठ वर्ष के पुत्र को भी पकड़ लिया। क्षमा मांगो वरना पुत्र की हत्या। सेठ नहीं माने तो अंग्रेजों ने बाल पुत्र को तोप के मुंह पर बांध उसके चिथड़े उड़ा दिये। न्याय करने का ढोंग रचते हुए ब्रिगेडियर नैपियर ने उन्हें फांसी की सजा सुनाई।

22 जून, 1858 को ग्वालियर के भीड़ भरे सर्राफा बाजार में नीम के पेड़ पर लटकाकर फांसी देना तय हुआ। कहते हैं एक बार रस्सी टूटी, फिर दूसरी बार टहनी टूटी। तीसरी बार में जाकर फांसी हुई।

अंग्रेजों की क्रूरता इस बात से पता चलती है कि अमरचंद बांठिया को फांसी देने के बाद भी उनका शव 3 दिनों तक लटकाए रखा गया ताकि भयभीत होकर कोई भी अंग्रेजों का विरोध न करे।

अपनी जन्मस्थली बीकानेर (राजस्थान) के सपूत ने अपनी कर्म-स्थली ग्वालियर (म०प्र०) में देश के स्वतंत्रता महायज्ञ के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी। ग्वालियर के सर्राफा बाजार में वह नीम का पेड़ आज भी है, जिसके नीचे सेठ अमरचंद बांठिया की प्रतिमा है। यहॉं प्रतिवर्ष 22 जून को लोग आकर महान हुतात्मा को श्रद्धांजली देकर प्रेरणा पाते हैं।

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