राष्ट्रव्यापी स्वतंत्रता संग्राम 1857 का उद्घोष – ‘मारो फिरंगियों को’
अमृत महोत्सव लेखमाला: सशस्त्र क्रांति के स्वर्णिम पृष्ठ भाग-2
नरेन्द्र सहगल
राष्ट्रव्यापी स्वतंत्रता संग्राम 1857 का उद्घोष – ‘मारो फिरंगियों को’
सात समुद्र पार से आए ईसाई व्यापारियों की निरंकुश सत्ता को जड़ मूल से समाप्त करने के लिए 1857 में समस्त देशवासियों ने जाति-मजहब से ऊपर उठकर राष्ट्रव्यापी सशस्त्र संघर्ष का बिगुल बजा दिया। मंगल पांडे, नाना साहब पेशवा, कुंवर सिंह, तात्या टोपे, झांसी की रानी लक्ष्मी बाई, बहादुर शाह ज़फर जैसे सैकड़ों वीर योद्धाओं ने एक साथ मिलकर हथियार उठाए। सारे देश में एक राष्ट्र मंत्र (नारा) गूँज उठा – ‘मारो फिरंगियों को’। विदेशी साम्राज्य के विरुद्ध लड़े गए इस महासंग्राम ने भविष्य में होने वाली महाक्रांति की नींव रख दी। भारत में जड़ जमा रहे ब्रिटिश तानाशाहों के सीने पर यह पहला सशस्त्र प्रहार था।
सन 1857 के स्वतंत्रता संग्राम का गहराई से अध्ययन करने पर स्पष्ट हो जाता है कि यह राष्ट्रव्यापी सशस्त्र संघर्ष भारत की राष्ट्रीय पहचान – सनातन संस्कृति का जागरण था। इसे सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का उभार कहा जा सकता है। वास्तव में गत एक हजार वर्षों से सांस्कृतिक राष्ट्रवाद (हिंदुत्व) की सुरक्षा / स्वतंत्रता के लिए लड़े जा रहे संग्राम की एक महत्वपूर्ण कड़ी ही था यह 1857 का महायुद्ध।
दरअसल उन्नीसवीं शताब्दी के शुरू होते ही ईसाई पादरियों ने सत्ता का निरंकुश सहारा लेकर देश के प्रत्येक हिस्से में साम-दाम-दंड-भेद द्वारा ईसाईकरण का जो अभियान छेड़ा, उसकी प्रतिक्रिया-स्वरूप भारत में हिंदुत्व के पुरोधाओं ने जो सुधार आन्दोलन शुरू किये, वही 1857 के स्वतंत्रता संग्राम की मुख्य प्रेरणा एवं चेतना बन कर सशस्त्र संग्राम के रूप में प्रस्फुटित हो गए।
इस महासंग्राम का मुख्य उद्देश्य भारत से अंग्रेज शासकों को खदेड़ कर ‘स्वधर्म’ की रक्षा करते हुए ‘स्वराज्य’ की स्थापना करना था। सन 1857 के पूर्व सत्ता के संरक्षण में कट्टर ईसाई पादरियों ने सरकारी अफसरों के साथ मिलकर ईसाइयत को थोपने के लिए अनेक प्रकार के अनैतिक एवं अमानवीय हथकंडों का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया।
सरकारी विद्यालयों में हिन्दू महापुरुषों, देवताओं के भद्दे मनगढ़ंत चरित्र पढ़ाए जाने लगे। सेना में भी ईसाई धर्म के तौर तरीके अपनाए जाने प्रारंभ हो गए। सरकारी नौकरियों में पक्षपात और भ्रष्टाचार भी अपनी सीमाएं पार कर गया। यहाँ तक कि कोर्ट-कचहरियों में भी अंग्रेजी भाषा एवं ईसाई धर्म के कायदे कानूनों तथा एवं रीति रिवाजों को प्राथमिकता दी जाने लगी। मतांतरण के लिए लोगों को बाध्य किया जाने लगा। ईसाई पादरियों ने सत्ता का सहारा लेकर हिन्दुओं की आस्थाओं पर चोटें करना तेज गति से शुरू कर दिया। हिन्दुओं को ईसाई बनाने के लिए सरकारी खजाने के मुंह खोल दिए गए। अंग्रेजों को बहुत शीघ्र ही समझ में आ गया कि हिन्दू धर्म के प्रेरणा केंद्र वेदों, रामायण, महाभारत, गीता एवं अन्य धार्मिक ग्रंथों की नकारात्मक परिभाषा करने से अधिकाँश हिन्दुओं की आस्था पर चोट की जा सकती है।
सरकार की छत्रछाया में ईसाई पादरियों ने साम-दाम-दंड-भेद के सभी साधनों का प्रयोग करते हुए ग्रामीण बस्तियों, वनवासियों तथा गरीब हिन्दुओं के सभी वर्गों में जाकर धर्म परिवर्तन के लिए लोगों पर दबाव डालने की नीति को युद्ध स्तर पर थोपना शुरू किया। अंग्रेजों को यह विश्वास हो गया कि यदि सभी भारतीय ईसाई हो गए तो इस धरती की संस्कृति और राष्ट्रवाद समाप्त हो जाएगा। ईसाई पादरियों ने मुस्लिम समाज के धार्मिक सिद्धांतों पर भी चोटें करनी प्रारंभ कर दीं।
यही कारण था कि जब 1857 के स्वतंत्रता योद्धाओं ने जंग-ए-आजादी की घोषणा की तो अधिकांश भारतीय समाज एकजुट होकर इसमें कूद गया। कुछ इतिहासकार अंग्रेज सरकार द्वारा हिन्दू सैनिकों को गाय के मांस लगे कारतूस देने की नीति को ही इस जंग का कारण बताते हैं। यदि यही बात होती तो सरकार द्वारा ऐसे कारतूस ना बनाने के निर्णय के बाद संघर्ष समाप्त हो जाना चाहिए था। इस जंग के सभी सेनापति तात्या टोपे, झाँसी की रानी, नाना फड़नवीस, मौलवी अजीमुल्ला खान, कुंवर सिंह एवं बहादुर शाह ज़फर इत्यादि भी गाय वाले कारतूसों की समाप्ति पर शांत हो जाते।
अंग्रेजों ने यद्यपि इन सभी स्वतंत्रता सेनानियों को ‘बगावती तत्व’ कह कर पूरे महासमर को दरकिनार करने का भरसक प्रयास किया था। परन्तु यह भी एक ध्रुव सत्य है कि इन्हीं सेनापतियों ने पूरे भारत को एक युद्ध स्थल में बदल दिया था। राजसत्ता और जनसत्ता के बीच सीधी जंग थी यह।
वीर सावरकर ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ ‘1857 का स्वातंत्र्य समर’ में लिखा है कि इस महा संघर्ष में चार करोड़ से भी अधिक लोगों ने प्रत्यक्ष रूप से भाग लिया। लगभग पांच लाख भारतीयों का बलिदान हुआ और सम्पूर्ण देश का एक लाख वर्गमील क्षेत्र प्रभावित हुआ। अंग्रेजों ने क्योंकि भारत की सनातन संस्कृति को समाप्त करने का अभियान छेड़ा था, इसीलिये भारत का जनमानस उद्वेलित हो गया।
यह संघर्ष अंग्रेजों के विरुद्ध सीधी कार्रवाई था। इस समर को देश के कोने-कोने तक पहुँचाने के लिए, गाँव-गाँव तक रोटियां ले जाने, गुलाब के फूल (सन्देश) पहुँचाने, प्रत्येक फ़ौजी छावनी तक कमल का फूल भेज कर सैनिकों को खुली बगावत करने का सन्देश देने जैसी अत्यंत साधारण गतिविधियों के माध्यम से सारे देश को जोड़ लिया गया।
इसी तरह तीर्थ यात्राओं का आयोजन करके प्रत्येक देशवासी को हथियारबंद होने का आदेश दे दिया गया। इतना ही नहीं स्वदेशी राजाओं और विदेशी शक्तियों से भी संपर्क स्थापित कर लिए गए। इस संग्राम की रणनीति में सैनिक छावनियों में विद्रोह, शस्त्रागारों पर कब्जे, अंग्रेज अधिकारियों को समाप्त करने, सरकारी खजाने को लूटने एवं जेलों में बंद भारतीय कैदियों को जबरदस्ती छुड़वाने जैसी सीधी कार्रवाईयां शामिल थीं।
इस प्रकार की सशस्त्र हलचलों का तुरंत और सीधा असर सम्पूर्ण भारतवर्ष (अफगानिस्तान, भूटान, बलूचिस्तान तक) में हुआ। इस महासंग्राम में भारत की प्रत्येक जाति, मजहब, संप्रदाय, क्षेत्र और भाषा – भाषियों ने पूरी ताकत के साथ भाग लिया। अतः यह मात्र सैनिक विद्रोह ना होकर पूरे देश की पूरी जनता का संघर्ष था।
स्पष्ट है कि जब पूरा भारतवर्ष ही ब्रिटिश हुकूमत के विरुद्ध शस्त्र उठाकर एकजुट हो गया, तो इस राष्ट्रीय जागरण का उद्देश्य समूचे भारत को अंग्रेजों के कब्जे से छुड़ाकर पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त करना ही था। इसीलिये इस राष्ट्रव्यापी संघर्ष को स्वतंत्रता संग्राम कहा गया है। यही फिरंगियों को बर्दाश्त नहीं हुआ।
यद्यपि अनेक ईसाई, साम्यवादी एवं अंग्रेज भक्त इतिहासकारों ने इस युगान्तकारी स्वतंत्रता समर को मात्र इने गिने और बिखरे हुए राजे-रजवाड़ों की अव्यवस्थित बगावत कहा था। भारत के कोने-कोने में फैले इस संगठित / शक्तिशाली राष्ट्रीय संघर्ष को नकार कर इसे मात्र कुछ सैनिकों का विद्रोह घोषित करने के पीछे कई कारण थे। अंग्रेज – साम्राज्यवादियों की प्रतिष्ठा को बचाना, अपने विरुद्ध संगठित हो रहे भारतवासियों को निरुत्साहित करना, ब्रिटिश सैनिकों का मनोबल बनाए रखना और विदेशों में भारत एवं भारतीयों को कमजोर एवं संगठित सिद्ध करना इत्यादि उद्देश्य से प्रेरित अनेक इतिहासकारों ने अनेक ग्रंथ रच डाले। इन ग्रंथों में सत्य एवं तथ्यों की बेरहमी से हत्या करके स्वतंत्रता संग्राम के सेनापतियों को महत्वाकांक्षी, सत्तालोलुप और धन कुबेर तक कह दिया गया।
इस प्रचंड देशव्यापी स्वतंत्रता संग्राम को बदनाम करने की साम्राज्यवादी चाल कुछ वर्षों के बाद ही तार-तार हो गई। भारत के एक महान स्वतंत्रता सेनानी वीर सावरकर ने लंदन में ही एक 550 पृष्ठों की पुस्तक ‘1857 का स्वातंत्र्य समर’ लिख कर इस संघर्ष की सच्चाई को जगजाहिर कर दिया। इस पुस्तक में इस समर के सेनानायकों के युद्ध कौशल, योजनाबद्ध लोक संग्रह, शस्त्र एकत्रीकरण, गाँव-गाँव तक पहुँचने वाली रणनीति और अंग्रेजों की फ़ौजी छावनियों पर भीषण आक्रमणों का वर्णन सबूतों सहित किया गया है।
सन 1907 में अंग्रेजों ने लंदन में 1857 की पचासवीं वर्षगाँठ को अपने विजय-दिवस के रूप में धूम-धाम से मनाया। अनेक ब्रिटिश पत्रकारों ने अंग्रेजों की बहादुरी का बखान करते हुए भारत के महान स्वतंत्रता सेनानियों को कायर एवं स्वार्थी बताया। अपनी सेना की प्रशंसा के पुल बांधकर अंग्रेज अपनी गिर रही साख को बचाना चाहते थे। इन पत्रकारों ने झांसी की रानी तथा नाना साहब जैसे वीर सेनापतियों को दहशतगर्द और हत्यारे तक कह दिया।
उस समय लंदन में विद्यार्थी के रूप में रह रहे भारतीय युवकों ने अपने सेनापतियों के अपमान का उत्तर देने के लिए 10 मई को स्वतंत्रता संग्राम की 50वीं वर्षगाँठ पर कई कार्यक्रमों का आयोजन करके 1857 के स्वतंत्रता समर की सच्चाई को सारे विश्व के आगे उजागर कर दिया। भारतीय युवकों ने जलसे-जुलूसों का आयोजन करके पर्चे बांटे जिनमें भारत में किये जा रहे जुल्मों का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया था। भारतीय राष्ट्रवाद के जागरण की शुरुआत ब्रिटेन में हो गयी। भारतीय युवक सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का समझाने लगे।
सन 1857 के स्वतंत्रता संग्राम का सबसे बड़ा परिणाम यह हुआ कि भारतीयों में ‘स्वधर्म रक्षा’, ‘राष्ट्र की स्वतंत्रता’, ‘विधर्मियों का शासन’ आदि विषयों पर जोरदार चर्चा छिड़ गयी। इस स्वतंत्रता संग्राम के मूल में धर्म को बचाना था। ईसाई पादरियों द्वारा भारत की सनातन संस्कृति को समाप्त करने के लिए जो षड्यंत्र रचे जा रहे थे, उनके विरुद्ध सारा देश खड़ा हो गया। इसके पहले भी 1806 में बैलूर में जो सैनिक विद्रोह हुआ था, उसका कारण भी भारतीयों के धर्म में ईसाई पादरियों का भारी हस्तक्षेप था।
1857 में हुए सशस्त्र स्वतंत्रता समर को अंग्रेजों ने अपनी कुटिल राजनीति, प्रबल सैन्य शक्ति, क्रूर दमनचक्र एवं अमानवीय अत्याचारों से दबा दिया। परन्तु राजनीतिक एवं सैन्य दृष्टि से भारतीय स्वतंत्रता सेनानी भले ही पराजित हो गए हों, तो भी वे भविष्य में होने वाली सशस्त्र क्रांति एवं राष्ट्रभक्त क्रांतिकारियों को क्रांतिकारी सन्देश देने में सफल हो गए। भारत की राष्ट्रीय चेतना ने फिर अंगड़ाई ली और देशभर में विदेशी राज्य को उखाड़ फेंकने के प्रयास पुनः शुरू हो गए, जो 1947 तक निरंतर चलते रहे।
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