हिन्दू हमारा नाम है और हिंदुस्तान हमारी मातृभूमि – सावरकर

हिन्दू हमारा नाम है और हिंदुस्तान हमारी मातृभूमि - सावरकर

शुभांगी उपाध्याय

                  हिन्दू हमारा नाम है और हिंदुस्तान हमारी मातृभूमि - सावरकर
“हिन्दू हमारा नाम है और हिंदुस्तान हमारी मातृभूमि है, सभी हिन्दू एक हैं, हमारा राष्ट्र एक है। एक राष्ट्र, एक जाति और एक संस्कृति के आधार पर ही हम हिंदुओं की एकता आधारित है। वे सभी व्यक्ति हिन्दू हैं जो हिमालय से समुद्र तक इस समग्र देश को अपनी पितृभूमि के रूप में मान्यता देकर वंदना करते हैं।”
जब हमारा देश परतंत्रता की बेड़ियों में जकड़ा हुआ था, घायल था, जब हमारी इच्छाओं का संचालन विदेशी शासक कर रहे थे और हमारी अपार धन – संपदा को लूट-लूट कर सात समुंदर पार ले जा रहे थे, तब कितने ही वीर बलिदानियों ने उन विदेशी शक्तियों तथा अत्याचारियों को ललकारा और अपने प्राणों की आहुति दे दी। परंतु फिर भी उनके नाम को इतिहास के पन्ने से मिटाये जाने के यत्न हुए, उनके यादों को भुला देने की कोशिश की गई। लेकिन आज की युवा पीढ़ी ने स्वतंत्र भारत का नया इतिहास लिखना प्रारंभ किया है, जिसमें उन सच्चाइयों का वर्णन भी है जिसे झूठ की परतों के नीचे अबतक छिपाकर रखा गया था। समय के निष्पक्ष हाथों ने उन सच्चाइयों को ढूंढ निकाला है। उन्हें प्रकाश में लाने के प्रयत्न होने लगे हैं। उस नए इतिहास के एक स्वर्णिम अध्याय का ही नाम है “स्वातंत्र्यवीर सावरकर”।
एक किशोर बालक माँ दुर्गा के समक्ष प्रण करता है, “माता महिषासुर मर्दिनी तेरे पावन चरणों की सौगंध खाकर मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि अपने देश की स्वतंत्रता पुनः प्राप्त करूँगा, और इसके लिये सशस्त्र क्रांति की पताका भी फहराउंगा। यदि इसमें मैं सफल हुआ तो छत्रपति शिवाजी महाराज की भांति स्वराज स्थापित करूँगा और तेरे मस्तक पर स्वतंत्रता का अभिषेक करूँगा। माँ मुझे शक्ति दो!”
विनायक सावरकर का जन्म महाराष्ट्र (उस समय, ‘बॉम्बे प्रेसिडेन्सी’) में नासिक के निकट भागुर गाँव में चितपावन ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनकी माता का नाम राधाबाई तथा पिता का नाम दामोदर पन्त सावरकर था। इनके दो भाई गणेश (बाबाराव) व नारायण दामोदर सावरकर तथा एक बहन नैनाबाई थीं। विनायक का परिवार एक आदर्श राष्ट्रवादी परिवार था। तीनों भाई स्वत्रंता सेनानी थे तथा इनकी पत्नी और भाभी का भी इस संग्राम में बहुत बड़ा योगदान रहा है।
श्री बाल गंगाधर तिलक के लेख पढ़कर प्रेरित नवयुवक विनायक ने “अभिनव भारत” जैसे क्रांतिकारी संगठन की स्थापना की। इस संगठन का उद्देश्य समय पड़ने पर सशस्त्र क्रांति के जरिए स्वतंत्रता हासिल करना था। इसी के साथ उन्होंने ‘मित्र मेला’ नाम की एक गुप्त संस्था भी बनाई। अंग्रेजों ने अपनी कुत्सिक मानसिकता का परिचय देते हुए 1905 में बंगाल का विभाजन कर दिया। सावरकर ने लोगों को जागरूक कर ‘स्वदेशी’ के नारे को प्रबलता प्रदान की।
मात्र 23 वर्ष की आयु में उन्होंने ब्रिटिश म्यूजियम लाइब्रेरी की 1500 से अधिक किताबों को पढ़ लिया था। क्रांतिकारी गतिविधियों के कारण ब्रिटिश सरकार ने उनपर लाइब्रेरी में जाने पर भी प्रतिबंध लगा दिया था। वकालत की पढ़ाई के बाद डिग्री के लिए जब उन्हें लंदन के विश्वविद्यालय में ब्रिटिश राज भक्ति की शपथ लेने को कहा गया तब उन्होंने इससे साफ इंकार कर दिया जिसके चलते उन्हें वकालत की डिग्री नहीं दी गई। सावरकर  इटली के स्वतन्त्रता सेनानी ‘जोजेफ मैजिनी और गैरीबाल्डी’ के विचारों से बहुत प्रभावित थे और देश के लिए उनके आदर्शों के प्रशंसक थे। इसलिए इंग्लैंड में लिखी उनकी पहली पुस्तक ‘मैजिनी की आत्मकथा’ का ही मराठी रूपान्तर था जिसने देशवासियों में तहलका मचा दिया था। इस पुस्तक के कुछ अंश इस प्रकार थे – ‘‘कोई भी राष्ट्र कदापि नहीं मरता। परमात्मा ने मानव को स्वतन्त्र रहने के लिए उत्पन्न किया है। जब दृढ़ संकल्प लोगे तभी तुम्हारा देश भी स्वतन्त्र हो जायेगा।’’
लंदन में उनका निवास ‘इंडिया हाउस’ में हुआ। वे यहाँ रहकर इंग्लैंड और भारत में रह रहे क्रांतिकारियों का मार्गदर्शन किया करते थे। उन्होंने लंदन पहुंचते ही हिन्दुस्तानी छात्रों से सम्पर्क साधना शुरू कर दिया था। लाला हरदयाल और मदन लाल ढ़ींगरा के अलावा वी.वी.एस. अय्यर, डब्लू.बी.फड़के, सुखसागर दत्त, पाण्डुरंग बापट, निरंजन पाल, आशिफ अली, एम.पी.टी. आचार्य, नहुक चतुर्भुज, सिकन्दर हयात, ज्ञानचन्द वर्मा, विरेन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय, हेमचन्द दास आदि युवा उनके साथी बन गए। इन युवा हिन्दुस्तानियों को अपने जोशिले भाषणों और प्रखर राष्ट्रवादी चिंतन से प्रेरित कर उन्हें क्रांतिकारी पथ पर अग्रसर करने के प्रयास में सावरकर सफल रहे।
मदन लाल ढींगरा ने सावरकर से पूछा था, “व्यक्ति बलिदान के लिए कब तैयार होता है?” सावरकर ने उत्तर दिया, “जब वह अपने विवेक से प्रेरित होकर दृढ़ निश्चय कर लेता है तभी!” उनके इन्हीं वचनों से प्रेरित होकर 1 जुलाई 1909 को लन्दन के इम्पीरियल-इंस्टिच्यूट के जहाँगीर हाॅल में मदनलाल ढींगरा ने कर्जन वायली नामक एक अंग्रेज अधिकारी की गोली मार कर हत्या कर दी। अंग्रेजी सरकार बौखला उठी। 17 अगस्त 1909 को मदनलाल ढींगरा को फाँसी पर लटका दिया गया। उनके अन्तिम शब्द थे, ‘‘ईश्वर से मेरी अन्तिम प्रार्थना है कि मैं तब तक उसी भारत माता के लिए जन्मता और पुनः मरता रहूँ जब तक यह स्वतन्त्र न हो जाये।’’
जब वीर सावरकर 13 मई, 1910 की रात्रि को पेरिस से लन्दन पहुंचे तो स्टेशन पर ही पुलिस ने उन्हें तुरन्त गिरफ्तार कर लिया। अदालत ने उनके मुकदमे को भारत में शिफ्ट कर दिया। जब सावरकर को 8 जुलाई, 1910 को एस.एस. मोरिया नामक समुद्री जहाज से भारत लाया जा रहा था तो वे रास्ते में जहाज के सीवर के रास्ते से समुद्र में कूद पड़े और गोरे अधिकारियों की गोलियों की बौछार के बीच वे फ्रांस के दक्षिणी सागरतट पर पहुँच ही गये, मगर फ्रांस के सिपाहियों ने उन्हें अंग्रेजों को सौंप दिया।
उन्हें बम्बई लाया गया। यहाँ पर तीन जजों की विशेष अदालत गठित की गई। इसमें अपराधी की पक्ष जानने का कोई प्रावधान नहीं था। इस अदालत में सावरकर को ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध शस्त्र बनाने की विधि की पुस्तक प्रकाशित करवाने का दोषी ठहराकर 24 दिसम्बर 1910 को 25 साल कठोर काला पानी की सजा सुनाई। इसके साथ ही दूसरे मुकदमें में नासिक के कलेक्टर मिस्टर जैक्सन की हत्या के लिए साथियों को भड़काने का आरोपी ठहराकर अलग से 25 साल के काला पानी की सजा सुनाई गई। इस तरह सावरकर को दो अलग-अलग मुकदमों में दोषी ठहराकर दो-दो आजन्मों के कारावासों की सजा के रूप में कुल 50 साल काले पानी की सजा सुनाई गई। ऐसा अनूठा मामला विश्व के इतिहास में पहली बार हुआ, जब किसी को इस तरह की सजा दी गई।
7 अप्रैल 1911 को उन्हें अण्डमान भेज दिया गया। उन्होंने दस वर्ष अंडमान की सेल्युलर जेल में बिताए। इस दौरान उन्हें जेलर डेविड बेरी के कहर का सामना करना पड़ा क्योंकि सरकार ने उन्हें खतरनाक कैदी का बिल्ला पहनाया था। इस जेल के हर सेल का आकार 4.5 m×2.7m था। यहाँ से कोई चाहकर भी भाग नहीं सकता था क्योंकि इस जेल के चारों तरफ पानी ही पानी है।
उनके विचार में हिंदुत्व की परिभाषा कुछ इस प्रकार है, “हिन्दू हमारा नाम है और हिंदुस्तान हमारी मातृभूमि है, सभी हिन्दू एक हैं, हमारा राष्ट्र एक है। एक राष्ट्र, एक जाति और एक संस्कृति के आधार पर ही हम हिंदुओं की एकता आधारित है। वे सभी व्यक्ति हिन्दू हैं जो हिमालय से समुद्र तक इस समग्र देश को अपनी पितृभूमि के रूप में मान्यता देकर वंदना करते हैं। जिसकी धमनियों में उस महान जाति का रक्त प्रवाहित हो रहा है जिसका मूल सर्वप्रथम सप्त सिन्धुओं में परिलक्षित होता रहा है और जो विश्व में हिन्दू नाम से सुविख्यात है। हमारा कर्त्तव्य है कि हम देश में रहने वाले हिंदुओं, मुसलमानों, ईसाइयों और यहूदियों में यह पवित्र भाव जागृत कर सकें कि हम सब सबसे पहले हिंदुस्तानी हैं और उसके बाद कुछ और।”
देशभर में सावरकर की रिहाई को लेकर चले आंदोलनों के बाद अंग्रेजी हुकूमत ने उन्हें इन शर्तों के साथ रिहा कर दिया कि वे न तो रत्नागिरी से बाहर जाएंगे और न ही किसी तरह की राजनीतिक गतिविधियों में भाग लेंगे। जेल से रिहा होने के बाद देश के बड़े-बड़े नेता और यहाँ तक कि महात्मा गांधी भी उनसे मिलने आए और उनकी देश-भक्ति की मुक्त-कंठों से प्रशंसा की। किन्तु दोनों के विचारों में जीवन-पर्यन्त अन्तर बना रहा। मार्च, 1925 में उनसे मिलने डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार पहुंचे और 22 जून, 1940 को नेताजी सुभाषचन्द्र बोस उनसे मिलने आए।
देश की आजादी के सम्बन्ध में दोनों महान् नेताओं में विशद चर्चा हुई।सावरकर ने जापान से आये क्रन्तिकारी रास बिहारी बोस के पत्र की भी चर्चा की। सावरकर हिन्दू नवयुवकों से अंग्रेज़ी सेना में भर्ती होने को इसलिए कहते थे, ताकि अवसर आने पर जब हाथ में बंदूकें होंगी तब उसकी नोक किस दिशा में मोड़नी है वो यह भी सोच लेंगे। वे सभी विद्यालयों/महाविद्यालयों में सैनिक शिक्षा के प्रबल समर्थक थे। सावरकर ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि सशक्त क्रान्ति का प्रयास किये बिना अब भारत को स्वतन्त्र नहीं कराया जा सकता। इन्हीं विचारों से प्रभावित होकर नेताजी जर्मनी होते हुए सिंगापुर पहुँच गये और वहीं पर ‘आजाद हिन्द सेना’ की स्थापना की। सिंगापुर रेडियो पर नेताजी ने कहा था कि, “भारत के सभी नेताओं में केवल सावरकर ही दूरदृष्टा हैं।”
26 फरवरी, 1966 के दिन मुम्बई में प्रातः दस बजे, क्रांतिकारियों के सिरमौर वीर सावरकर ने नश्वर संसार को हमेशा के लिए त्याग दिया। इन्होंने जीवन भर देश की आजादी और उसके उत्थान के लिए अटूट संघर्ष किया और अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया। इस वीर अमर हुतात्मा का यह राष्ट्र सदैव ऋणी रहेगा।
(लेखिका विवेकानंद केंद्र के पश्चिम बंग प्रान्त में विभाग युवा प्रमुख हैं और कलकत्ता विश्वविद्यालय की शोधार्थी भी।)
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