विवेकानंद शिला स्मारक : स्वामी विवेकानंद के विचारों का जीवंत स्मारक

विवेकानंद शिला स्मारक : स्वामी विवेकानंद के विचारों का जीवंत स्मारक

आकृति कैंथोला / निखिल यादव

 विवेकानंद शिला स्मारक : स्वामी विवेकानंद के विचारों का जीवंत स्मारक विवेकानंद शिला स्मारक : स्वामी विवेकानंद के विचारों का जीवंत स्मारक

महान विभूतियों के नाम पर अनेकों सार्वजनिक स्थलों का नामकरण वर्षों से होता आया है। लेकिन जिन स्थानों से उन विभूतियों का नाता और रिश्ता रहा है, वे स्थल और भी महत्वपूर्ण और विशेष हो जाते हैं। वे स्थान कोई साधारण जगह नहीं होते बल्कि कर्म भूमि का भाग होते हैं, जो इतिहास के पन्नों में दर्ज हो जाते हैं। स्वामी विवेकानंद के जीवनकाल से जुड़े अनेकों स्थल सरकार या उनके संगठन रामकृष्ण मिशन द्वारा संरक्षित किए गए हैं। स्वामीजी ने अपने जीवनकाल में पूरे भारत का भ्रमण किया था, एक परिव्राजक सन्यासी के तौर पर। इसलिए उनसे जुड़े विशेष स्थल भी सम्पूर्ण भारत में उपस्थित हैं। जहां-जहां उनका प्रवास हुआ, वह स्थान खुद ही विशेष बन गया क्योंकि उनके पद चिन्ह वहां पर हैं।

जिस शिला पर मिला था स्वामीजी को अपने जीवन का उद्देश्य

स्वामी विवेकानंद के जीवन से जुड़ा ऐसा ही एक विशेष स्थान है दक्षिण भारत का आखिरी तट कन्याकुमारी, जहां पर समुद्र के बीच में उन्होंने एक शिला पर तीन दिन और रात साधना व चिंतन किया था। यह स्थान और भी विशेष हो जाता है क्योंकि स्वामीजी को अपने जीवन का उद्देश्य भी यहीं मिला था और माता कन्याकुमारी का सम्बन्ध भी इस शिला से रहा है। जिस शिला पर स्वामी विवेकानंद ने ध्यान कर भारत के अवनति का कारण और उसकी उन्नति के रास्ते को जाना, मान्यतानुसार यह वही शिला थी, जहां माता पार्वती ने कन्याकुमारी के रूप में अवतार लेकर भगवान शिव के लिए तप किया था। वो शिला जहां स्वामी जी को ज्ञात हुआ कि ‘धर्म नहीं, बल्कि धर्म का अज्ञान’ भारत की अवनति का कारण था। इसलिए उन्होंने अमेरिका के शहर शिकागो में आयोजित विश्व धर्म महासभा (World Parliament of Religions) में जाकर, हिंदू धर्म का प्रतिनिधित्व करने का निश्चय किया ताकि पश्चिमी देश वेदांत के महत्व को समझें और भारत के हर नागरिक को अपने धर्म पर गर्व हो, क्योंकि जो भारत स्वामी जी के समक्ष था वो उनकी आकांक्षाओं से कोसों दूर था। उनके समक्ष एक एक ऐसा भारत था, जहाँ पढ़े लिखे लोगों ने स्वयं को भारत माता और उसकी संस्कृति से अलग कर लिया था, जहां लोगों के पास दो समय की रोटी कमाने के अलावा किसी और कार्य के लिए ना समय था ना ही उत्साह। स्वामी विवेकानंद के अपनी 39 वर्ष की अल्प आयु में ही हमें भारत मां की असली तस्वीर का बोध करवा गए, जिसकी शुरुआत उनके अपने लक्ष्य और ‘भारत मां के कार्य समझने’ से हुई।

शिला से विवेकानंद शिला स्मारक तक

कन्याकुमारी में समुद्र के बीचों बीच स्थित शिला पर स्वामी विवेकानंद जी की जन्म शताब्दी पर कन्याकुमारी के लोगों द्वारा एक शिला स्मारक बनाने की कल्पना की गई। नाम दिया गया- ‘विवेकानंद शिला स्मारक’ और साथ ही एक समिति का गठन भी किया गया। स्मारक के शिला पर बनने के विचार से ही कन्याकुमारी में उपस्थित ईसाई समुदाय ने बेबुनियादी मान्यताओं के आधार पर इस बात का विरोध करना शुरू कर दिया, साथ ही केंद्रीय मंत्री हुमायूँ कबीर और उस समय के तमिलनाडु के मुख्यमंत्री भक्तवत्सल्म भी शुरुआती काल में स्मारक के विरोध में थे। ‘विवेकानंद स्मारक समिति’ के सदस्य जब अपनी कथाओं को लेकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक गुरुजी गोलवलकर के पास पहुँचे तो इस पवित्र कार्य के लिए एकनाथजी रानाडे को चुना गया जो उस समय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ प्रचारक थे। एकनाथ जी की परिपूर्णता और निपुणता को देख संघ परिवार के लोग मजाक में अक्सर कहते थे कि “यदि क़ुतुब मीनार का भी स्थानांतरण करना हो तो एक व्यक्ति है जो यह काम कर सकता है और वह हैं एकनाथजी।” सामाजिक मनोविज्ञान के बहुत बड़े अभ्यासक होने के साथ वे यह भी जानते थे कि जनभावना के आगे राजनीति किस तरह नया मोड़ ले लेती है, इसी कारण चाहे हुमायूं, कबीर या भक्तवत्सलम को स्मारक के लिए सहमत करवाना हो, या 3 दिनों में 323 सांसदों के हस्ताक्षर करवाने हों, उनके लिए एक सफल चुनौती थी। विवेकानंद शिला स्मारक एक ऐसा स्मारक है जो ‘एक भारत, श्रेष्ठ भारत’ का जीता जागता उदाहरण है, जहां अर्थिक मामलों में परेशानी आने पर पूरे राष्ट्र ने आर्थिक योगदान दिया और जब आज भी कोई व्यक्ति राजस्थान, असम, ओडिशा, या महाराष्ट्र से कन्याकुमारी आकर स्मारक को देखता है तो अनायास ही कहता है कि “मैंने भी इस स्मारक के निर्माण के लिए आर्थिक सहयोग किया है।” इस स्मारक को बनाने में पूरे देश ने योगदान दिया तो सही मायने में यह एक ‘राष्ट्रीय स्मारक’ हुआ।

शिला स्मारक से जीवंत संगठन तक

एकनाथ रानाडे जी का लक्ष्य सिर्फ बाकी स्मारकों की भाँति, विवेकानंद शिला स्मारक को एक निर्जीव स्मारक बनाना नहीं था, बल्कि वो इस स्मारक को जीवंत बनाना चाहते थे। इस माध्यम से वह सनातन धर्म का विचार देश के हर घर तक ले जाना चाहते थे। स्वामी जी ने कहा था कि “विराट की पूजा न करो, भगवान को जरूरतमंद, कमजोर, पीड़ित लोगों में देखो।” 7 जनवरी 1972 को अधिकृत तौर पर विवेकानंद केंद्र कि स्थापना हुई। विवेकानंद केंद्र आज समाज कल्याण के कार्य जैसे शिक्षा, ग्रामीण विकास, युवा विकास, प्राकृतिक संसाधन विकास, सांस्कृतिक अनुसंधान और प्रकाशन के कार्य करता है। केंद्र अपनी शाखा, केंद्रों और सेवा परियोजनाओं के माध्यम से 1005 से अधिक स्थानों पर 25 राज्यों और तीन केंद्र शासित प्रदेशों में काम कर रहा है और दिन- प्रतिदिन बढ़ रहा है, जिसमें देश के युवाओं की एक बड़ी संख्या भी सम्मिलित है। विवेकानंद शिला स्मारक हम सब के लिए एक प्रेरणा स्रोत है, जो स्वामी जी की भांति ही एक वट वृक्ष के समान है, जो अपने अंदर अनेकों लोगों को भारतीय संस्कृति जीवित रखने और एक श्रेष्ठ मनुष्य बनने का संदेश देता है।

(लेखक द्वय विवेकानंद केंद्र उत्तर प्रान्त के कार्यकर्ता है)

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