राष्ट्रनिर्माता स्वामी विवेकानंद

राष्ट्रनिर्माता स्वामी विवेकानंद

निखिल यादव

राष्ट्रनिर्माता स्वामी विवेकानंद

अब समय आ गया है कि हर भारतीय स्वामीजी के सपनों का आत्मनिर्भर भारत बनाने में अपना योगदान दे। लेकिन यह कार्य इतना आसान नहीं है इसके लिए लाखों युवाओं को निस्वार्थ भाव से अपने राष्ट्र के लिए कार्य करना होगा
प्रसिद्ध होने और सिद्ध होने में बहुत अंतर है। प्रसिद्धि कुछ समय तक सीमित रह सकती है। एक कालखंड के दायरे में सिमट सकती है, कुछ विशेष परिस्थितियों में भी उत्पन्न हो सकती है या मिल सकती है। लेकिन अगर कोई व्यक्ति सिद्ध होता है तो उसके पीछे तपस्या, अनुसाशन, दृढ संकल्प और सबसे महत्वपूर्ण एक प्रगाढ़ इच्छाशक्ति होती है। सिद्ध और प्रसिद्ध का कोई सबसे उत्कृष्ट उद्धरण हमारे सामने है तो वो है 19 वीं शताब्दी में जन्मे महान कर्मयोगी स्वामी विवेकानंद।
12 जनवरी 1863 को बंगाल के कलकत्ता में माता भुवनेश्वरी देवी और पिता विश्वनाथ दत्त के घर जन्मे नरेंद्रनाथ दत्त जो बाद में स्वामी विवेकानंद के नाम से जाने गए मात्र 39 वर्ष 5 महीने और 24 दिन के जीवन में अगर उन्हीं के शब्दों में कहूं तो 1500 वर्ष का कार्य कर गए और यह इसीलिए संभव हो सका क्योंकि वह मात्र प्रसिद्ध नहीं बल्कि सिद्ध थे।
उनकी योजना स्पष्ट थी उनको मनुष्य निर्माण का कार्य करना था। उनको राष्ट्र पुनरुत्थान का कार्य करना था। इसीलिए स्वामी विवेकानंद ने अपना पूरा जीवन चरित्र निर्माण और एक स्वावलम्बी समाज को गढ़ने में लगा दिया। उनको पता था कि बिना आत्मविश्वास के आत्मनिर्भर समाज नहीं बन सकता है। भारत उस समय पराधीन था और उसे स्वाधीन होने के लिए अगर कोई सबसे मुख्य आवश्यकता थी तो वो थी पुनः हर भारतीय में आत्मविश्वास जगाना, जो कार्य स्वामी विवेकानंद जी ने जीवन भर किया। लेकिन यह कार्य इतना आसान कहां था। उन्होंने इस मात्रभूमि के लिए अपना सर्वस्व त्याग दिया।
स्वामी विवेकानंद ने भारत में ही नहीं बल्कि विश्वभर में भारतीय संस्कृति को पहचान और सम्मान दिलाया। जिसकी शुरुआत प्रसिद्ध विश्व धर्म महासभा जो कि अमेरिका के शिकागो शहर में 1893 में आयोजित हुई थी उसके उद्घाटन भाषण से हुई। 17 दिनों (11 से 27 सितम्बर, 1893 ) तक चलने वाली विश्व धर्म महासभा में स्वामी विवेकानंद ने छह व्याख्यान दिए थे, जिसके माध्यम से उन्होंने भारतीय संस्कृति, सभ्यता और दर्शन को विश्व भर से आये हुए लोगों के सामने रखा था। भारत जो उस समय अंग्रेज़ों द्वारा शासित किया जा रहा था, जिसको सांप और सपेरों का देश माना जाता था, उसके पास दुनिया को देने के लिए सन्देश भी है, यह विदेशियों को पहली बार पता चला।
विश्व धर्म महासभा में अपने 11 सितम्बर 1893 को दिए गए ऐतिहासिक भाषण के बाद स्वामीजी पूरे विश्व में प्रसिद्ध हो गए। लेकिन उसी रात स्वामीजी को नींद नहीं आई और वह रोते रहे। उन्हें नींद ना आने का कारण प्रसिद्धि , शोहरत या चकाचौंध नहीं थी स्वामीजी कहते है कि ”इस नाम और यश का मैं क्या करूँगा।” मुझे तो अपने भारतवासियों के बारे में सोच कर रोना आ रहा है जो आज भी गरीबी में रहते हैं।
स्वामी विवेकानंद का पश्चिमी देशों का पहला प्रवास लगभग 4 वर्ष का रहा था, जिसमें मुख्यतः उन्होंने अमेरिका के 12 राज्यों में और इंग्लैंड में अपना कार्य शुरू किया था। स्वामीजी ने अपने व्याख्यानों के साथ साथ वेदांत की कक्षाएं भी अमेरिका और इंग्लैंड में शुरू कर दी थीं। भारत आने से पहले वे यह कार्य अपने गुरु भाई स्वामी अभेदानन्द और कुछ पश्चिमी देशों में बने शिष्यों को संभलवा कर आये थे। जब स्वामीजी इतने वर्षों के बाद भारत वापस आ रहे थे तब उनके मित्र ने उनसे पूछा था कि ” इतने वर्ष समृद्ध पश्चिम में जीवनयापन करने के बाद आपको अपनी मातृभूमि कैसी लगती है? स्वामीजी कि आँखें ख़ुशी से चमकने लगी थीं और उन्होंने भावुकता में भरे हुए गले से उत्तर दिया ” जब मैं वहां से दूर आया तो मैं भारत से प्रेम ही करता था। अब उस देश की धूल मेरे लिए पावन हो गयी है। वहां की वायु मेरे लिए पावन है। अब वह पावन भूमि है, तीर्थ क्षेत्र है। ”
15 जनवरी 1897 को भारत वापस आये तो वह सबसे पहले श्रीलंका के कोलम्बो में उतरे थे और वहां हिन्दू समाज ने उनका शानदार स्वागत किया था। स्वामी जी युवाओं के बीच में इतने प्रसिद्ध हो गए थे कि उनसे मिलने के लिए युवा रेलगाड़ी तक रुकवा देते थे। स्वामीजी ने पूरे भारतवर्ष में अपने व्याख्यानों और संगठन कार्यों से एक नवीन ऊर्जा भर दी। उनके भारत में दिए हुए व्याख्यान – वेदांत का उद्देश्य , हमारा प्रस्तुत कार्य, भारत का भविष्य, हिन्दू धर्म के सामान्य आधार, भारत के महापुरुष, मेरी क्रान्तिकारी योजना आज भी हर युवा के लिए मार्गदर्शन का कार्य करते है। उन्होंने युवाओं को सन्देश दिया कि “एक विचार उठाओ, उस एक विचार को अपना जीवन बना लो – उसके बारे में सोचो, उसके सपने देखो, उस विचार पर जियो। मस्तिष्क, मांसपेशियों, नसों, और शरीर के प्रत्येक भाग में उस विचार को भर दो, और बस हर दूसरे विचार को अकेला छोड़ दो, यह सफलता का मार्ग है।“
अब समय आ गया है कि हर भारतीय स्वामीजी के सपनों का आत्मनिर्भर भारत बनाने में अपना योगदान दे। लेकिन यह कार्य इतना आसान नहीं है इसके लिए लाखों युवाओं को निस्वार्थ भाव से अपने राष्ट्र के लिए कार्य करना होगा। राष्ट्रनिर्माण के कार्य के लिए अपने को न्यौछावर होना होगा । स्वामीजी कहते हैं- ”त्याग के बिना कोई भी महान कार्य होना संभव नहीं है। अपनी सुख सुविधाएं छोड़ कर मनुष्यों का ऐसा सेतु बांधना है, जिस पर चलकर नर-नारी भवसागर को पार कर जाएँ”।
(लेखक विवेकानंद केंद्र के उत्तर प्रान्त के युवा प्रमुख हैं और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में शोधकर्ता हैं। ये उनके निजी विचार हैं )
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