आखिर हल्दीघाटी में मजार आई कहां से – डाॅ. के. एस. गुप्ता

आखिर हल्दीघाटी में मजार आई कहां से - डाॅ. के. एस. गुप्ता

हल्दीघाटी में मंदिर के साथ तोड़फोड़ और मजार बनाने का मामला

आखिर हल्दीघाटी में मजार आई कहां से - डाॅ. के. एस. गुप्ता
उदयपुर। राजपूत-मुगल काल में भारत के इतिहास का मेवाड़ अधिक और दिल्ली कम प्रभावित करती है। बावजूद इसके दिल्ली के इतिहासकारों ने स्वतंत्रता के लिए लगातार संघर्ष करने वाले महाराणा प्रताप के जन मानस में प्रभाव को अस्वीकार कर मुगलों को अधिक प्रभावी बनाने का प्रयास किया। इस प्रयास के अंतर्गत हल्दीघाटी में मुस्लिम समुदाय के कुछ गुटों ने अलग-अलग स्थानों पर विगत कुछ वर्षों में मजारें बना कर हमारे शौर्य स्थलों को कब्जाने का प्रयास किया है। इन सभी मजारों को अलग-अलग गुटों द्वारा महा पराक्रमी पठान सेनापति हकीम खां सूर की बताने का प्रयास किया जाता है। इतिहास संकलन समिति, चित्तौड़ प्रान्त के अनुसार हकीम खां सूर के सम्बंध में इतिहास में कहीं स्पष्ट नहीं है कि उनकी मृत्यु हल्दीघाटी में हुई थी। इससे स्पष्ट होता है कि शायद वे इसके बाद भी मेवाड़ की सेना के अंग बने रहे। ऐसे में हल्दीघाटी में उनकी मजार होने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता। हल्दीघाटी शुद्ध रूप से मेवाड़ का शौर्य स्थल है। इससे मुगलों को कोई लेना देना नहीं है। ऐसे में यहां हर किसी की मजार बना कर उसका साम्प्रदायीकरण करना असामाजिक कार्य है।

इस सम्बंध में मेवाड़ के प्रसिद्ध इतिहासकार डाॅ. के. एस. गुप्ता का कहना है कि कुछ वर्षों पूर्व तक रक्ततलाई सहित हल्दीघाटी या इससे सम्बंधित क्षेत्र में कोई मजार नहीं थी, फिर अचानक से हकीम खां सूर के नाम से मजार कहां से प्रगट हो गई। ऐतिहासिक स्रोतों में कहीं पर भी हकीम खां सूर के मारे जाने का वर्णन उपलब्ध नहीं होता है। अब्दुल कादिर बदायूंनी के अतिरिक्त अन्य कोई समकालीन इतिहासकार हकीम खां की हल्दीघाटी में उपस्थित का वर्णन नहीं करता है। ऐसे में हल्दीघाटी में उनकी मजार का प्रकट हो जाना असामाजिक तत्वों द्वारा सामाजिक सौहार्द को बिगाड़ने का षड्यंत्र प्रतीत होता है। इस तथ्य के अनुरूप कुछ वर्षों पूर्व तक वहां कोई मजार भी नहीं थी।

वरिष्ठ इतिहासकार डाॅ. महावीर प्रसाद जैन का मत है कि हल्दीघाटी युद्ध में हकीम खां सूर के मारे जाने के कोई साक्ष्य प्राप्त नहीं होते हैं। अतः रक्त तलाई और सम्पूर्ण हल्दीघाटी क्षेत्र में किसी भी मजार को हकीम खां सूर के नाम से जोड़ना गैर ऐतिहासिक और इतिहास को विकृत करना ही सिद्ध होता है। इस बात की जांच होनी चाहिए कि विगत कुछ वर्षों में हल्दीघाटी क्षेत्र में ये मजारें कहां से प्रकट हो गईं और हकीम खां सूर जैसे योद्धा से उनको कैसे जोड़ दिया गया। मेवाड़ के साम्प्रदायिक सौहार्द को बिगाड़ने में असामाजिक तत्व हर कहीं मजार खड़ी कर देते हैं। इस षड्यंत्र को रोका जाना चाहिए। रक्ततलाई और हल्दीघाटी युद्ध स्थल की पवित्रता और ऐतिहासिकता को बनाए रखना अत्यंत आवश्यक है।

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