हां! भारत ‘असहिष्णु’ है
बलबीर पुंज
हां! भारत ‘असहिष्णु’ है, मुस्लिमों ने की भाजपा कार्यकर्ता बाबर अली की हत्या
हां! भारत ‘असहिष्णु’ है। इतना ही नहीं, देश में ‘संवेदनहीनता’ भी बढ़ गई है। अभी उत्तरप्रदेश में भाजपा कार्यकर्ता बाबर अली की हिंसक भीड़ ने पीट-पीटकर हत्या कर दी। यह ‘मॉब-लिंचिंग’ का एक और मामला है। बाबर अली के नाम से शायद ही विश्व वैसे परिचित हो पाए, जैसे वो अखलाक, जुनैद, पहलू खान, तबरेज आदि से हुआ था। किंतु पूरी दुनिया में इन दुर्भाग्यपूर्ण मौतों को लेकर तथाकथित सेकुलरिस्टों, उदारवादियों और वामपंथियों ने भाजपा और संघ परिवार को कलंकित करने हेतु भारत को ‘असहिष्णु’ घोषित कर दिया। परंतु यह वर्ग बाबर अली के मामले में चुप है और आगे भी रहेगा।
बाबर अली को किसने और क्यों मारा? 20 मार्च 2022 को उत्तरप्रदेश में कुशीनगर स्थित रामकोला के कठघरही गांव में बाबर को उसके पड़ोस में रहने वाले मुस्लिम पट्टीदारों ने इसलिए पीट-पीटकर अधमरा कर दिया, क्योंकि उसने विधानसभा चुनाव में भाजपा का प्रचार करने, भाजपा की प्रचंड जीत पर गांव में मिठाई बांटने और ‘जय श्रीराम’ का नारा लगाने का ‘महा-अपराध’ किया था। अजीमुल्लाह, आरिफ, ताहिद, परवेज ने अपने अन्य साथियों के साथ बाबर पर हमला कर दिया था और सभी ने मिलकर उसकी पिटाई कर दी। पुरुषों के साथ कई महिलाओं ने भी बाबर को पीटा। गंभीर रूप से चोटिल बाबर को रामकोला स्थित अस्पताल में भर्ती कराया गया, जहां से जिला अस्पताल और फिर लखनऊ भेज दिया गया। लखनऊ में उपचार के दौरान बाबर की मौत हो गई। अब बाबर की निर्दयता से ‘मॉब लिंचिंग’ द्वारा हत्या पर आंसू नहीं बहाए जा रहे और ना ही बहाए जाएंगे। इसपर ना तो संसद और ना ही उत्तरप्रदेश विधानसभा में या इंडिया गेट पर कोई शोर होगा। इस मुद्दे पर चारों ओर सन्नाटा पसरा हुआ है। कोई सम्मानित बुद्धिजीवी न तो भारत में ‘असुरक्षित अनुभव’ करेगा और ना ही वह अपने किसी सम्मान या पुरस्कार को लौटाएगा।
आखिरकार बाबर अली की हत्या पर तथाकथित प्रबुद्ध समाज इतना उदासीन क्यों है? क्या बाबर का ‘अपराध’ यह था कि उसने ‘जय श्रीराम’ का नारा लगाया था और वह भी एक मुसलमान होते हुए? आखिर ‘काफिर-कुफ्र’ की निर्धारित सजा तो उसे मिलनी ही थी। याद करें, 27 फरवरी 2002 को गुजरात के गोधरा रेलवे स्टेशन के निकट ट्रेन के एक डिब्बे में 59 कारसेवकों को जिंदा जला दिया गया था। उनका भी ‘अपराध’ यह था कि वो अयोध्या की तीर्थयात्रा से लौटते समय ‘जय श्रीराम’ का नारा लगाने का दुस्साहस कर रहे थे। सच तो यह है कि पिछले दो दशकों से भारत उतना ही ‘असहिष्णु’ है, जितना सदियों पहले था। भारत में कई सौ वर्ष पहले काशी, मथुरा, अयोध्या के साथ हजारों मंदिरों को इसलिए ध्वस्त कर दिया गया था, क्योंकि वह ‘कुफ्र’ के प्रतीक थे। इसी तरह ‘काफिरों’ को ‘मौत या मजहब परिवर्तन’ में से कोई एक चुनने का विकल्प दिया गया था। वर्ष 1921 के मोपला दंगों में हजारों हिंदुओं को इसी ‘असहिष्णु चिंतन’ के कारण मौत के घाट उतार दिया गया था।
जहां समाज के वर्ग को घृणा-वैमनस्य के आधार पर गोलबंद किया गया हो, वहां बाबर अली जैसों का जीवन कठिन होना निश्चित है। बाबर मुसलमान होते हुए भाजपा का समर्पित कार्यकर्ता था। उत्तरप्रदेश के चुनाव में उसकी पार्टी को आशातीत सफलता मिली थी। यह बात उसके मजहब के उन्मादी आस-पड़ोस को पची नहीं और उन्होंने अपने आक्रोश की अभिव्यक्ति बाबर को पीट-पीटकर मार डालकर की। निसंदेह, जिन लोगों ने असहाय बाबर पर लात-घूसों, डंडों का प्रयोग करके दौड़ा-दौड़ाकर मारा- वह अपराधी है। परंतु उन राजनेताओं और तथाकथित बुद्धिजीवियों का क्या, जिन्होंने मुस्लिम समाज के बहुत बड़े वर्ग में भाजपा और संघ का दानवीकरण करके उनमें इस तरह की नफरत-हिंसा की मानसिकता का निर्माण किया।
यदि बाबर अली उत्तरप्रदेश के कुशीनगर में द्वेष का शिकार हुआ, तो वर्ष 1989 के बाद कश्मीर में हिंदुओं ने भी उसी घृणा का दंश झेला था। पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान में हिंदू-बौद्ध-सिख जनसंख्या का निरंतर ह्रास भी इसी दूषित चिंतन का परिणाम है। भारत की सनातन संस्कृति में मतभेद का स्थान है, यहां वाद-विवाद और विमर्श की परंपरा है। देश के कुछ भागों में कभी-कभार राजनीतिक हिंसा की छुटपुट घटनाएं होती है, परंतु केरल और पश्चिम बंगाल राजनीतिक हत्याओं, तो कश्मीर मजहबी हिंसा के मामलों में शीर्ष स्थान पर है। अब भी घाटी में गैर-मुस्लिमों का अस्तित्व ही असंभव है। क्यों?
प.बंगाल और केरल में विदेश आयातित विचारधारा- साम्यवाद का प्रभाव अधिक है। हिंसा और घृणा आधारित वामपंथी चिंतन ने कालांतर में इन दो प्रदेशों के सार्वजनिक जीवन में विचारधारा जनित खून-खराबे को केंद्र में ला दिया, जिसके कारण यहां ‘राजनीतिक संवाद’ के स्थान पर विरोधियों की हत्या ‘पसंदीदा उपक्रम’ बन गया है। गत वर्ष प.बंगाल विधानसभा चुनाव में परिणाम घोषणा के बाद भड़की हिंसा ऐसा ही उदाहरण है, जिसमें विरोधियों को सबक सिखाने के लिए उनकी हत्याओं के साथ महिलाओं से बलात्कार तक किया गया था।
यदि शेष भारत में हिंदू और मुसलमान कई मामलों में अंतर्विरोध या आपसी मतभेद के बाद भी एक साथ रह सकते है, तो कश्मीर घाटी में हिंदुओं का रहना, वहां के मुस्लिम समाज को सहन क्यों नहीं हुआ? क्या इसलिए कि वहां पर हिंदू पांच प्रतिशत से भी कम थे? अभी हालिया हिजाब प्रकरण में क्या हुआ? जैसे ही 15 मार्च 2022 को कर्नाटक उच्च न्यायालय की विशेष खंडपीठ (न्यायमूर्ति खाजी जयबुन्नेसा मोहियुद्दीन सहित) ने कक्षाओं में हिजाब पहनने की मांग संबंधित सभी याचिकाओं को निरस्त किया, वैसे न्यायाधीशों के प्राणों पर संकट आ गया। इस संबंध में 20 फरवरी के दिन हर्षा को पहले ही चाकुओं से गोदकर मार डाला गया था। इस प्रकार की ‘असहिष्णुता’ के अनगिनत उदाहरण है।
‘सहिष्णु’ का अंग्रेजी में शाब्दिक अर्थ tolerant, अर्थात् ‘बर्दाश्त करने वाला’ होता है। हमारे यहां मतभिन्नता को ‘सहन’ नहीं, सहज रूप से स्वीकार किया जाता है। भारत ने आजतक किसी को ‘बर्दाश्त’ या ‘सहन’ नहीं किया। अनादिकाल से भारत ‘बहुलतावाद’ अर्थात् ‘सह-अस्तित्व’ और ‘विविधता’ में विश्वास रखता है, जिसका वैदिक स्रोत ‘एकं सत् विप्रा: बहुदा वदंति’ और ‘वसुधैव कुटुंबकम’ है। इसी कारण, जब भारत में मजहबी प्रताड़ना के शिकार यहूदियों और पारसियों के साथ प्रारंभिक इस्लाम और ईसाइयत का प्रवेश हुआ, तो स्थानीय लोगों ने उन्हें ‘बर्दाश्त’ या ‘सहन’ नहीं, अपितु समाज में उनकी पूजा-पद्धति के साथ अंगीकार किया। इस समरसता और सहजता में व्यवधान तब पड़ा, जब ‘एकेश्वरवाद’ सिद्धांत, अर्थात ‘केवल मैं ही सच्चा, बाकी सब झूठे’- लाखों लोगों की मौत की ‘उद्घोषणा’ लेकर भारत पहुंचा, जिसने न केवल यहां के मूल बहुलतावाद को प्रभावित किया, अपितु उसने कालांतर में यहां के सांस्कृतिक-भूगौलिक स्वरूप को भी बदल डाला। 1947 में भारत का रक्तरंजित विभाजन- इसका ही एक परिणाम है। इसी ‘असहिष्णु’ चिंतन और उससे सहानुभूति रखने वालों से खंडित भारत को आज भी खतरा है। शायद ही ऐसे लोगों की आंखें बाबर अली की ‘मॉब लिंचिंग’ पर गीली होगी। बाबर घृणा जनित हत्या का शिकार हुआ, यह उसकी बदकिस्मती थी। उसकी यह बदकिस्मती इसलिए और बढ़ गई, क्योंकि उसके हत्यारे हिंदू नहीं थे। यदि होते, तो शायद बाबर ‘सेकुलर’ समाज में बढ़ती हुई ‘असहिष्णुता’ का नया पोस्टर ब्वॉय बन जाता। हां, सच में भारत शताब्दियों से इसी तरह ‘असहिष्णु’ रहा है।