हाइफा युद्ध : भारतीय वीरों की तलवारों के आगे बंदूकें हार गईं
हाइफा युद्ध : भारतीय वीरों की तलवारों के आगे बंदूकें हार गईं
विश्व के सबसे शक्तिशाली देशों में से एक है इजरायल। यह विश्व का प्रथम यहूदी देश भी है। 14 मई 1948 को फिलिस्तीन के विभाजन स्वरूप इजरायल का जन्म हुआ। इजरायल अपनी महिला कमांडर, शिक्षा व तकनीकी को लेकर पूरे विश्व में प्रसिद्ध है, परंतु आज भी इजरायल, भारत के लिए अपनी कृतज्ञता प्रदर्शित करता है। इसका कारण इजरायल का एक शहर हाइफा है। हाइफा शहर जेरूसलम से लगभग डेढ़ सौ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। जिसे भारतीय वीरों ने ऑटोमन एंपायर की परतंत्रता से स्वतंत्र कराया था।
लेकिन पराजय का इतिहास लिखने वाले इतिहासकारों ने बड़ी सफाई से भारतीय योद्धाओं की इस अकल्पनीय विजय को कहीं दबा दिया। इजरायल के स्वाधीनता के संघर्ष को जब हम देखेंगे, तो पाएंगे कि यहूदियों को उनके ‘ईश्वर के प्यारे राष्ट्र‘ का पहला हिस्सा भारतीय योद्धाओं ने जीतकर दिया था।
23 सितंबर 1918 को हाइफा का युद्ध हुआ, जो एक निर्णायक युद्ध था। इसमें ब्रिटिश सेना की ओर से भारतीय सैनिकों ने ऑटोमन साम्राज्य और उनके जर्मन सहयोगियों की सेनाओं से युद्ध किया और उन्हें पराजित किया। यह युद्ध प्रथम विश्व युद्ध के सिनाई और फ़िलिस्तीन अभियान के समय हुए, विभिन्न युद्धों में से एक था।
प्रथम विश्व युद्ध, जिसमें जोधपुर रियासत की सेना ने भाग लिया। इतिहास में इस युद्ध को हाइफा के युद्ध के नाम से जाना जाता है। इस युद्ध में राजपूताने की सेना का नेतृत्व जोधपुर रियासत के सेनापति दलपत सिंह शेखावत ने किया था।
प्रथम विश्व युद्ध के समय जब तुर्कों की सेना ने हाइफा शहर पर कब्जा कर लिया था। उस समय इजरायल और मिस्र में 15वीं इम्पीरियल सर्विस कैवेलरी ब्रिगेड में भारत के 150,000 सैनिक अपनी सेवा दे रहे थे। वर्ष 1918 के समय में औजारों के नाम पर भारतीय सैनिकों के पास मात्र भाले और तलवार हुआ करते थे। ये बहादुर सैनिक घोड़ों पर बैठ कर युद्ध के लिए निकलते थे। तब भारतीय सेना की टुकड़ी में यहाँ की तीन रियासतों जोधपुर लांसर्स, मैसूर लांसर्स और हैदराबाद लांसर्स के जवान तैनात थे।
तुर्की सेना के समक्ष जब अंग्रेजों का प्रयास असफल हो गया, तब उन्हें विश्व के सबसे होनहार घुड़सवार, भारतीय योद्धाओं का स्मरण हुआ, उन्होंने जोधपुर रियासत की सेना को हाइफा में युद्ध करने को कहा, संदेश मिलते ही जोधपुर रियासत के सेनापति दलपत सिंह ने अपनी सेना को शत्रु पर टूट पड़ने का निर्देश दिया। जिसके बाद राजस्थानी रणबांकुरों की यह सेना शत्रु को समाप्त करने और हाइफा से तुर्की अतिक्रमण को हटाने के लिए आगे बढ़ी। लेकिन तभी अंग्रेजों को यह पता चला कि शत्रुओं के पास बंदूकें और मशीन गन हैं जबकि जोधपुर रियासत की सेना घोड़ों पर तलवार और भालों से लड़ने वाली थी। इसी कारण अंग्रेजों ने जोधपुर रियासत की सेना को वापस लौटने को बोला, लेकिन जोधपुर रियासत के सेनापति दलपत सिंह शेखावत ने कहा कि हमारे यहाँ वापस लौटने की कोई प्रथा नहीं है। हम रणबाँकुरे रण भूमि में आने के बाद या तो विजय प्राप्त करते हैं या फिर वीरगति को प्राप्त हो जाते हैं। इस सेना ने शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने के लिए बंदूकों, तोपों और मशीन गनों के सामने छाती अड़ाकर अपनी परम्परागत युद्ध शैली में बड़ी बहादुरी से युद्ध किया। युद्ध में जोधपुर की सेना के लगभग 900 सैनिक वीरगति को प्राप्त हुए।
युद्ध के परिणाम ने एक अमिट इतिहास लिख दिया, जो आज तक संपूर्ण विश्व में कहीं देखने को नहीं मिला। क्योंकि यह युद्ध विश्व का एकमात्र ऐसा युद्ध था जिसमें एक ओर तलवारें थीं तो दूसरी ओर बंदूकें। लेकिन विजयश्री भारतीय वीरों को मिली, उन्होंने हाइफा को स्वतंत्र करवा लिया था, परिणामस्वरूप चार सौ साल पुराने ऑटोमन साम्राज्य का अंत हो गया। भारतीय वीरों की इस बहादुरी से प्रभावित होकर भारत में ब्रिटिश सेना के कमांडर-इन-चीफ़ ने फ़्लैग-स्टाफ़ हाउस के नाम से इनके लिए एक रिहायशी भवन का निर्माण करवाया। भवन एक चौराहे से लगा हुआ बना है, इस चौराहे के मध्य में गोल चक्कर के बीचों बीच एक स्तंभ के किनारे तीन दिशाओं में मुंह किये हुए तीन सैनिकों की मूर्तियाँ लगी हैं, जो भारतीय वीरों की बहादुरी की स्मृति में लगाई गई हैं।
दलपत सिंह शेखावत हाइफा युद्ध के नायक थे। हाइफा को स्वतंत्र करवाने में मुख्य भूमिका निभाने के कारण मेजर दलपत सिंह को ‘हीरो ऑफ हाइफा’ के नाम से जाना जाता है। उनकी बहादुरी के लिए उन्हें मिलिट्री क्रॉस से सम्मानित भी किया गया।
वे 23 सितंबर 1918 को 26 वर्ष की अल्प आयु में वीरगति को प्राप्त हो गए। उनकी स्मृति में ब्रिटिश सेना के अधिकारी कर्नल हेरवी ने कहा कि मेजर दलपत सिंह की मृत्यु केवल जोधपुर ही नहीं अपितु पूरे ब्रिटिश साम्राज्य के लिए एक बड़ी क्षति है।
इसी युद्ध की विजय के उपलक्ष्य में प्रतिवर्ष 23 सितंबर को हाइफा दिवस मनाया जाता है। लिबरेशन ऑफ़ हाइफा में भारतीय सैनिकों की वीरता को अब इजरायल में इतिहास की पाठ्यपुस्तकों में सिलेबस के रूप में सम्मिलित किया गया है।