हिंदू त्योहारों पर हिंसा क्यों?
बलबीर पुंज
हिंदू त्योहारों पर हिंसा क्यों?
बीते कुछ वर्षों से हिंदू त्योहारों पर निकलने वाली शोभायात्राओं पर हिंसक हमले तेज हो गए हैं। ऐसा करने वाले कौन हैं, यह सर्विदित है। परंतु वे ऐसा क्यों कर रहे हैं? इसे लेकर भ्रम पैदा किया जा रहा है। तथाकथित सेकुलर मीडिया का एक हिस्सा और वामपंथी विचारक हिंसा के शिकार अर्थात् हिंदुओं को ही दोषी ठहरा रहे हैं। उनके विकृत विश्लेषण का सार यह है कि पिछले कुछ दशकों से हिंदू संगठन, भगवान श्रीराम के सदियों से चले आ रहे शांत और सहिष्णु व्यक्तित्व को एक उग्र रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं— इसके परिणामस्वरूप श्रीराम-हनुमानजी से संबंधित जुलूसों में आक्रमकता दिख रही है और इससे ‘आहत’ मुसलमानों को हिंसा हेतु उकसाया जा रहा है। अर्थात्— यदि हिंदू अपनी सांस्कृतिक पहचान को मुखरता के साथ प्रस्तुत करेंगे, तो उसकी स्वाभाविक परिणति हिंसा में होगी।
क्या हिंदू शोभायात्राओं पर हमले हाल ही में शुरू हुए हैं? यह ठीक है कि श्रीराम संबंधित सांस्कृतिक पहचान, 1980 के दशक में प्रारंभ हुए श्रीरामजन्मभूमि मुक्ति आंदोलन के कारण अधिक सार्वजनिक विमर्श में है। परंतु हिंदू पर्वों पर निकलने वाले जुलूसों या पदयात्राओं पर हमले का इतिहास सदियों पुराना है।
संविधान निर्माता डॉ.भीमराव रामजी अंबेडकर ने अपनी पुस्तक ‘पाकिस्तान या भारत का विभाजन’ में हिंदू-मुस्लिम संबंधों में तनाव के तीन मुख्य कारणों की पहचान की थी, जिसमें उन्होंने— गोहत्या, मस्जिदों के बाहर संगीत और मतांतरण को चिन्हित किया था। बकौल डॉ.अंबेडकर, “…इस्लाम का भ्रातृत्व, सार्वभौमिक भ्रातृत्व का सिद्धांत नहीं है… मुसलमानों के लिए हिंदू ‘काफिर’ हैं, और एक ‘काफिर’ सम्मान के योग्य नहीं। वह निम्न कुल में जन्मा होता है, जिसकी कोई सामाजिक स्थिति नहीं होती। एक ‘काफिर’ द्वारा शासित देश, मुसलमानों के लिए दार-उल-हरब है।”
गांधीजी ने भी हिंदू-मुस्लिम के बीच सदियों से चले आ रहे तनाव की विवेचना करने का प्रयास किया था। उन्होंने मजहबी खिलाफत आंदोलन (1919-24) का नेतृत्व करके उसी संकट को दूर करने का प्रयास किया था, जिसकी कीमत हिंदुओं ने मोपला नरसंहार और कोहाट आदि क्षेत्रों में अपने दमन के रूप में चुकाई। इससे आक्रोशित गांधीजी ने 29 मई 1924 को ‘यंग इंडिया’ पत्रिका में मुस्लिमों को ‘धौंसिया’ (Bully) और हिंदुओं को ‘कायर’ (Coward) कहकर संबोधित किया और लिखा— “…मुसलमानों की गुंडागर्दी के लिए उन पर गुस्सा होने से कहीं अधिक हिंदुओं की नामर्दी पर शर्मिंदा हूं। जिनके घर लूटे गए, वे अपने माल-असबाब की हिफाजत में जूझते हुए वहीं क्यों नहीं मर मिटे? जिन बहनों की बेइज्जती हुई, उनके नाते-रिश्तेदार उस वक्त कहां थे? मेरे अहिंसा धर्म में खतरे के वक्त अपने कुटुम्बियों को अरक्षित छोड़कर भाग खड़े होने की गुंजाइश नहीं है। हिंसा और कायरतापूर्ण पलायन में यदि मुझे किसी एक को पसंद करना पड़ा, तो हिंसा को ही पसंद करूंगा।” स्वाभाविक है कि जब गांधीजी और डॉ.अंबेडकर ने यह विचार रखे थे, तब देश में न तो भाजपा-आरएसएस का अस्तित्व था और ना ही श्रीरामजन्मभूमि की मुक्ति हेतु कोई आंदोलन चल रहा था।
विमर्श बनाया जा रहा है कि देश के कुछ क्षेत्रों में रामनवमी के दौरान भड़की हिंसा, शोभायात्रा निकाल रहे भक्तों द्वारा भड़काऊ नारे और उत्तेजनात्मक क्रियाकलाप के विरुद्ध तात्कालिक प्रतिक्रिया थी। यदि ऐसा था, तो हमलावरों के घरों और मस्जिदों की छतों पर एकाएक पत्थरों के ढेर और पेट्रोल बम कैसे पहुंचे? 10 अप्रैल को एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए कलकत्ता उच्च न्यायालय ने रामनवमी पर हिंसा को प्रथम-दृष्टया पूर्व नियोजित बताया है। कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश टीएस शिवगणनम ने कहा, “एक आरोप है कि छतों से पत्थर फेंके गए। स्पष्ट है कि 10-15 मिनट के अंदर छत पर पत्थर ले जाना किसी के लिए भी संभव नहीं है।” गत वर्ष अप्रैल में जब गुजरात के तीन जिलों में रामनवमी के अवसर पर हिंसा भड़की थी, तब भी पुलिस ने शोभायात्रा से एक दिन पहले खेत में पत्थर इकट्ठा करने, पथराव के लिए पहले से जगह निर्धारित करने और हिंसा के लिए बाहरी लोगों को बुलाने पर तीन मौलवियों को गिरफ्तार किया था। वास्तव में, इन प्रायोजित हिंसक घटनाओं का उपयोग मई 2014 के बाद से उस राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्थापित प्रपंची विमर्श को और अधिक धार देने हेतु किया जा रहा है, जिसमें साक्ष्यों को विकृत करके भारत के बहुलतावादी चरित्र को कलंकित करने और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कार्यकाल को मुस्लिम विरोधी प्रचारित करने की मानसिकता है।
श्रीराम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। उनमें नैतिकता, संयम और पराक्रम का अद्भुत संतुलन है। जहां एक ओर उन्होंने अपने जीवन के कठिन समय में कांटों भरे मार्ग पर चलकर वृद्ध वनवासी माता शबरी के जूठे बेर खाकर अपने विनम्र और सर्वस्पर्शी स्वभाव का परिचय दिया, तो तीन दिन अनुरोध करने के बाद सागर द्वारा लंका जाने हेतु मार्ग नहीं देने पर श्रीराम ने अपना धनुष— ‘कोदण्ड’ उठा लिया था। इस पर गोस्वामी तुलसीदासजी लिखते हैं— “विनय न मानत जलधि जड़, गए तीनि दिन बीति। बोले राम सकोप तब, भय बिनु होइ न प्रीति।।” भक्तों को यह स्वत: अधिकार प्राप्त है कि वे जिस भी रूप में चाहें, अपने आराध्यों की पूजा या उनका स्मरण करें।
भारत में करोड़ों मुसलमान मस्जिदों के साथ-साथ सार्वजनिक स्थानों पर भी जुमे की नमाज पढ़ते हैं। उन पर शायद ही कभी विवाद होता है। यदि किसी संगठन या व्यक्ति ने मार्ग बाधित करके नमाज पढ़ने का विरोध किया, तो उसे तुरंत ‘इस्लामोफोबिया’ घोषित कर दिया जाता है। दूसरी ओर मुस्लिम बहुल कश्मीर में एक वर्ष में कुछ दिन चलने वाली पवित्र अमरनाथ यात्रा के लिए हजारों हथियारबंद सुरक्षाकर्मियों को तैनात करना पड़ता है। सच तो यह है कि जिस ‘काफिर-कुफ्र’ की अवधारणा ने 1990 के दशक में कश्मीर को उनके मूल निवासियों ‘पंडितों’ से मुक्त कर दिया था, वही चिंतन भारत में सदियों से हिंदू जूलुसों पर हमला करने हेतु प्रेरित कर रही है।
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार, पूर्व राज्यसभा सांसद और भारतीय जनता पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय-उपाध्यक्ष हैं)