विज्ञान और प्रकृति से कोसों दूर है ग्रेगोरियन कैलेंडर
नरेन्द्र सहगल
विज्ञान और प्रकृति से कोसों दूर है ग्रेगोरियन कैलेंडर
अनेक मित्रों ने नये ईस्वी सन के आगमन पर शुभकामनाएं और बधाई संदेश भेजे हैं। सबका हार्दिक धन्यवाद। 31 दिसम्बर की रात को मौजमस्ती कर के वर्ष 2023 का स्वागत करने वाले लोगों के प्रति सुहानुभुति रखते हुए यह निवेदन है कि वो इस अंतर्राष्ट्रीय मस्ती में अपने भारत के गौरवशाली अतीत और सांस्कृतिक धरोहर को न भूलें। इस नववर्ष की पृष्ठभूमि को समझना आज के संदर्भ में आवश्यक है।
तब ईसाईयों के धर्म गुरु पोप ग्रेगरी ने 4 अक्टूबर को 15 अक्टूबर बना दिया और आगे के लिए आदेश दिया कि 4 की संख्या में विभाजित होने वाले वर्ष में फरवरी मास 29 दिन का होगा। 400 वर्ष बाद इसमें एक दिन और जोड़कर इसे 30 दिन का बना दिया गया। इसी को ग्रेगरियन कैलेंडर कहा जाता है। जिसे सारे ईसाई जगत ने स्वीकार कर लिया।
इसके विपरीत भारत में मासों का नामकरण प्रकृति पर आधारित है। चित्रा नक्षत्र वाली पूर्णिमा के मास का नाम चैत्र है। विशाखा का वैखाख है। ज्येष्ठा का ज्येष्ठ है। श्रवण का श्रावण है। उत्तराभद्रपद का भाद्रपद है। अश्विनी का अश्विन है। कृतिका का कार्तिक है। मृगशिरा का मार्गशीर्ष। पुष्य का पौष। मघा का माघ और उत्तरा फाल्गुनी का फाल्गुन मास होता है।
इसी तरह भारत में 354 दिन के बाद वर्ष और 365 दिन 6 घंटे 9 मिनट 11 सैकेंड के अंतर को दूर करने के लिए हमारे वैज्ञानिकों ने 2 वर्ष 8 मास 16 दिन के उपरांत एक अधिक मास या पुरुषोत्तम अथवा मलमास की व्यवस्था करके कालगणना की प्राकृतिक शुद्धता और वैज्ञानिकता बरकरार रखी है।
उपरोक्त तथ्यों के संदर्भ में यही उचित होगा कि हम सभी भारतवासी पूर्णतः वैज्ञानिकता और प्रकृति के नियमों पर आधारित अपनी युगों की वैज्ञानिक एवं वैश्विक भारतीय कालगणना का प्रयोग करें। इस कालगणना का प्रथम दिवस चैत्र शुक्ल प्रतिपदा श्री ब्रह्म जी द्वारा सृष्टि रचना का दिन होने के कारण यह वर्ष प्रतिपदा केवल हम भारतवासियों के ही नहीं अपितु सम्पूर्ण सृष्टि के लिए पूजनीय है।
चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के साथ कुछ ऐसी विशेष घटनाएं जुड़ी हैं जिनके कारण इसका महत्व और भी अधिक बढ़ जाता है। प्रभु श्रीरामचन्द्र का राज्याभिषेक, धर्मराज युधिष्ठिर का राजतिलक, विक्रमादित्य के विक्रम सम्वत का शुभारम्भ, सम्राट शालिवाहन का शक सम्वत, स्वामी दयानन्द द्वारा आर्यसमाज की स्थापना और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के निर्माता डॉ. केशवराव बलिराम हेडगेवार का जन्मदिन।
अतः इधर उधर से जोड़तोड़, मनगढ़ंत कल्पनाओं, मिथ्या सिद्धान्तों और कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा – भानुमति ने कुनबा जोड़ा के नमूने पर बने ईस्वी सन के नववर्ष को ईसाई जगत मनाए यह तो समझ में आता है, परन्तु हम भारतीय इसके पीछे अपनी परम्पराओं की सुधबुध खोकर लट्टू हो जाएं, यह बात समझ में नहीं आती।
यूरोपीय ईसाई सम्राज्य के प्रभावकाल में यह ईसाई कालगणना हम पर थोपी गई थी। उस समय की मानसिक दासता के कारण हम ईसाई वर्ष को मनाते चले आ रहे हैं। यह हमारे लिए लज्जा का विषय नहीं है क्या? आइए हम इसका परित्याग कर अपना भारतीय नववर्ष हषोल्लास से मनायें। यह भी ध्यान रखें कि इस ईसाई नववर्ष के आगमन का स्वागत नाच-गाने, उच्छृंखलता, रात-रात भर होटलों में शराब के नशे में मौजमस्ती करना इत्यादि के साथ होता है। परन्तु भारतीय नववर्ष का स्वागत नवरात्र पूजन, देवी पूजन और व्रत इत्यादि के साथ प्रारम्भ होता है।