राजनीतिक/सांप्रदायिक अवधारणा नहीं है ‘हिन्दू राष्ट्र’
राष्ट्र चिंतन लेखमाला-3
नरेंद्र सहगल
राजनीतिक/सांप्रदायिक अवधारणा नहीं है ‘हिन्दू राष्ट्र’
भारत में सर्वस्पर्शी ‘हिन्दू राष्ट्र’ की अवधारणा किसी विशेष जाति, क्षेत्र अथवा सम्प्रदाय से कोसों दूर है। यह कोई राजनीतिक अथवा चुनावी मुद्दा भी नहीं है। ‘हिन्दू राष्ट्र’ का तात्पर्य हिन्दू देश, हिन्दू राज्य और हिन्दू सरकार से भी नहीं है। ‘हिन्दू राष्ट्र’ भारतवर्ष की सनातन संस्कृति, अखंड भूगोल, राष्ट्रीय समाज और गौरवशाली इतिहास की पहचान और अभिव्यक्ति है। यह किसी एक राजनीतिक दल अथवा संस्था का एजेंडा न होकर सभी भारतवासियों का प्राण तत्व है।
राष्ट्र एक सांस्कृतिक एवं सामाजिक इकाई होता है। देश एक भौगोलिक इकाई होता है। राज्य एक राजनीतिक इकाई होता है और सरकार एक प्रशासनिक व्यवस्था का नाम है। देश की सीमाएं बढ़ती-घटती रह सकती हैं।देश बनते हैं, टूटते हैं और जुड़ते भी हैं। राज्य भी देश की आवश्यकता के अनुसार परिवर्तित होते रहते हैं। इसी प्रकार सरकारें भी आती-जाती रहती है। परंतु राष्ट्र क्योंकि एक सांस्कृतिक /सामाजिक अवधारणा होती है, इसलिए यह किसी भी राजनीतिक तथा सांप्रदायिक परिभाषा के अंतर्गत सीमित नहीं है। ‘हिन्दू राष्ट्र’ की व्यापक अवधारणा को इसी संदर्भ में समझा और परखा जा सकता है।
हमारा भारतवर्ष अनादिकाल से चला आ रहा ‘हिन्दू राष्ट्र’ है, जो लोग ‘हिन्दू राष्ट्र की स्थापना’ अथवा ‘भारत को हिन्दू राष्ट्र घोषित करो’ की बात करते हैं, वे लोग किसी राजनीतिक एजेंडे से प्रभावित हो सकते हैं। ध्यान दें कि राष्ट्र की स्थापना अथवा घोषणा नहीं होती। भारत तो परतंत्रता के लंबे कालखंड में भी ‘हिन्दू राष्ट्र’ ही था। भारत की यही अखंड सांस्कृतिक पहचान समस्त भारतीयों को परतंत्रता को उखाड़ फेंकने की प्रेरणा देती रही। आधुनिक काल में संत तुलसीदस, श्रीगुरु नानकदेव, समर्थ रामदास, संत योद्धा श्रीगुरु गोबिन्द सिंह, स्वामी दयानंद, स्वामी विवेकानंद, स्वामी रामतीर्थ और महर्षि अरविन्द ने भारत की इसी राष्ट्रीय पहचान को जाग्रत करके लाखों स्वतंत्रता सेनानियों की श्रृंखला खड़ी कर दी।
उर्दू के एक शायर ने हिन्दू संस्कृति और हिन्दू राष्ट्रीयता का नाम लिए बिना इस सत्य को इस तरह उजागर किया था –
यूनान, मिश्र, रोमा सब मिट गए जहां से!
कुछ बात है कि, हस्ती मिटती नहीं हमारी!!
यहां विचारणीय प्रश्न यह है कि हमारी वह कौन सी हस्ती है जो हमें मिटने नहीं देती? जबकि सदियों तक विदेशी और विधर्मी हमलावरों ने हमारी संस्कृति, समाज और गौरवशाली इतिहास को समाप्त करने के लिए अनेक प्रकार के अमानवीय हथकंडों का प्रयोग किया।
हमारी इसी ‘हस्ती’ का नाम है हिन्दुत्व और यही सभी भारतवासियों की सामूहिक पहचान है। हमारी इसी अमर अजर राष्ट्रीयता को समाप्त करने के लिए विधर्मी/विदेशी आक्रान्ताओं ने काशी विश्वनाथ, अयोध्या के श्रीराम मंदिर और मथुरा के विशाल श्रीकृष्ण मंदिर को निशाना बनाकर भारतीय संस्कृति के प्राणतत्व शिव, राम और कृष्ण का अस्तित्व मिटाने का प्रयास किया और हम भारतवासी शिव के त्रिशूल, राम के धनुषबाण और कृष्ण के सुदर्शन चक्र से प्रेरणा लेकर अपने ‘हिन्दू राष्ट्र’ को सुरक्षित करने के लिए सदियों प्रयंत जूझते रहे। यही वह बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी, जबकि सदियों से रहा है दुश्मन दौर ए जमा हमारा।
उल्लेखनीय है कि वर्तमान समय में ‘हिन्दू राष्ट्र’ का अर्थ उन भारतवासियों का राष्ट्र है जो भारत को अपनी मातृ भूमि, पितृ भूमि और पुण्य भूमि मानते हैं और यही हिन्दू, हिन्दुत्व और हिन्दू राष्ट्रीयता की सटीक एवं सरल परिभाषा है। पूजा पद्धति और रहन-सहन बदल जाने से राष्ट्रीयता नहीं बदल जाती अर्थात मातृ भूमि, पितृ भूमि और पुण्य भूमि की भावना नहीं समाप्त होती।
हिन्दुत्व अर्थात भारतीय चिंतन में राष्ट्र एक जीवंत स्वयंभू सांस्कृतिक इकाई है, जबकि पश्चिम में राष्ट्र को एक राजनीतिक परिकल्पना माना गया है। हिन्दू चिंतन के अनुसार राष्ट्र प्रकृति की एक सहज प्रक्रिया के अंतर्गत अस्तित्व में आते हैं। कुछ पुर्जे जोड़कर बनाई गई मशीन की तरह नहीं बनते। राष्ट्र के लिए चार आधार आवश्यक होते हैं। देश (भूमि), जन (राष्ट्रीय समाज), संस्कृति (जीवन प्रणाली) और चित्ति (राष्ट्रीय चेतना)।
ईसाई और मुस्लिम समाज के पृथ्वी पर प्रादुर्भाव से बहुत पूर्व ही हमारे देश की सीमाएं प्रकृति द्वारा ही निश्चित कर दी गई थीं। कश्मीर से कन्याकुमारी तक और सिंधु से ब्रह्मपुत्र के सोर क्षेत्र पर एकछत्र राज करने वाले सम्राट भरत के नाम से यह देश भारतवर्ष कहलाया। इसी क्षेत्र को हिन्दुस्थान कहा गया है।
राष्ट्र कहलाने के लिए देश अर्थात भूमि के पश्चात दूसरी बड़ी आवश्यकता होती है, उस धरती पर रहने वाला समाज जो अपनी धरती को माता मानकर उसके प्रति गहरी आस्था रखता है। स्पष्ट है कि सनातन काल से भारत में रह रहा हिन्दू समाज ही यहां का राष्ट्रीय समाज है। यहां ध्यान देने की बात यह है कि भारत में जन्म लेने वाले सभी जाति वर्गों का उद्गम स्थल हिन्दुत्व अर्थात भारतीयता ही है। मानो चाहे न मानो परंतु यह एक ध्रुव सत्य है कि वर्तमान भारत में रहने वाली हिन्दू पूर्वजों की संताने ईसाई एवं मुसलमानों का उद्गम स्थल भी हिन्दुत्व ही है।
इसलिए इन समाजों को भी भारत के श्रद्धा केंद्रों, मान बिन्दुओं और सनातन हिन्दू महापुरुषों को सत्कार की दृष्टि से ही देखना चाहिए। भारत की इस सनातन संस्कृति के प्रतीकों को तोड़ना और इनके स्थान पर विदेशी हमलावरों के स्मारकों को अधिमान देना बंद करना चाहिए। राष्ट्रीय समाज होने की यही शर्त है।
राष्ट्र के लिए तीसरी आवश्यकता होती है संस्कृति। देश तो राष्ट्र के लिए धरती प्रदान करता है। जन अथवा लोक राष्ट्र के लिए राष्ट्रीय समाज प्रदान करता है और संस्कृति इस समाज को राष्ट्र के साथ जोड़ती है। एक विशिष्ट संस्कृति के अभाव में राष्ट्र बिखरते हैं और इसी के आधार पर टूटे राष्ट्र जुड़ते हैं। संस्कृति ही राष्ट्र जीवन कहलाती है। इसीलिए भारत के सुप्रीम कोर्ट ने हिन्दुत्व को भारतीय जीवन प्रणाली कहा था।
राष्ट्र के लिए चौथी एवं महत्वपूर्ण आवश्यकता होती है राष्ट्रीय चेतना। देश में रहने वाले समाज में अपनी राष्ट्रीय संस्कृति की रक्षा के लिए जो भाव रहते हैं, वही राष्ट्रीय चेतना कहलाती है। इस तरह की राष्ट्रीय चेतना के अभाव में ही बड़े-बड़े शक्तिशाली राष्ट्र भी परतंत्र हो जाते हैं।
इतिहास साक्षी है कि जब भी हमारे देश का पतन हुआ, इसी राष्ट्रीय चेतना अर्थात हिन्दुत्व भाव के क्षीण होने से ही हुआ और जब भी देश का उत्थान एवं राष्ट्र की विजय हुई, हिन्दुत्व के जागरण से ही हुई। वर्तमान संदर्भ में देखें तो देश के जिस भाग में हिन्दू समाज अल्पसंख्यक होता गया, वही भाग भारत से कटता चला गया।
‘हिन्दू राष्ट्र’ की अवधारणा को भारत की अखंडता, सुरक्षा, स्वाभिमान की भावना से ही समझा जा सकता है। इसी अवधारणा की धरातल पर खड़े होकर लोकमान्य तिलक ने गणेशोत्सव प्रारंभ करके भारत की राष्ट्रीयता को जगाया था। महात्मा गांधी ने राम राज्य का उद्घोष करके भारतीय समाज को आंदोलित किया था। रवींद्रनाथ टैगोर ने ‘देवि भुवन मनमोहिनी’ का मंत्र फूंका था। बंकिमचंद्र ने वंदेमातरम गीत तैयार करके भारत के राष्ट्रजीवन में प्राणों का संचार कर दिया था। इसी राष्ट्रीयता का जागरण डॉ. हेडगेवर, वीर सावरकर और सुभाष चंद्र बोस ने किया था।
अतः वर्तमान भारत की सभी समस्याएं : अलगाववाद, आतंकवाद, सीमाओं पर विदेशी खतरा, जातिवाद, प्रांतवाद इत्यादि ‘हिन्दू राष्ट्र’ की अवधारणा को जगाकर ही सुलझाई जा सकती हैं। हिन्दू राष्ट्र पूरे विश्व में भारत और भारतीयता की पहचान है। जिस तरह से हिन्दू शब्द सभी भारतीयों का नाम है और हिन्दुत्व सभी भारतीयों की एकमात्र सामूहिक पहचान है, इसी प्रकार सभी भारतवासी हिन्दू राष्ट्र के अभिन्न अंग हैं। ‘वयं हिन्दू राष्ट्रांग भूताः।’
जिस दिन भारतीय अर्थात मुस्लिम, ईसाई और विशाल हिन्दू समाज (सिक्ख, बौद्ध, जैन इत्यादि) एक राष्ट्रपुरुष के रूप में संगठित हो जाएंगे, उसी दिन हिन्दू राष्ट्र भारत के परमवैभव के द्वार खुल जाएंगे।