हिन्दू समाज का अभिन्न अंग जनजाति समाज, अंग्रेजी नीतियों ने बोए विष बीज

हिन्दू समाज का अभिन्न अंग वनवासी समाज, अंग्रेजी नीतियों ने बोए विष बीज

हिन्दू समाज का अभिन्न अंग वनवासी समाज, अंग्रेजी नीतियों ने बोए विष बीजसत्रहवीं सदी का भारत रियासतों के आंतरिक संघर्षों का भारत था, जिसका लाभ व्यापार के माध्यम से भारत में आए ब्रिटिश व्यापारियों ने उठाया और धीरे धीरे सभी राज्यों को ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपने कब्जे में ले लिया। राजा साधारण पेंशन पर उनके गुलाम हो गए। इसका नुकसान वनवासी क्षेत्रों में भी हुआ जो कि लड़ाई की विधा में, अँग्रेजी शासन के तकनीकी तरीकों के आगे कमजोर सिद्ध हुए और अँग्रेजी शस्त्रों के सामने अधिक अवरोध उत्पन्न नहीं कर पाये।

इतिहास में क्या हुआ इससे सभी परिचित हैं। यहॉं इतिहास की पुस्तक के उन पन्नों को आपके सामने पलटने का प्रयास है, जिन्होंने हिन्दू समाज को बांटने का काम किया और हिन्दू समाज के ही अभिन्न अंग वनवासी समाज को अलग करने का कुचक्र रचा।

अंग्रेज भारत में अपने पॉंव जमाने के प्रयास कर रहे थे। साथ ही लूट भी रहे थे। लूटने के लिए नीतियां भी बन रही थीं, भारत का पैसा दिन दूनी रात चौगुनी गति से ब्रिटेन जा रहा था। भारतीयों की आर्थिक स्थिति दिन पर दिन कमजोर होती जा रही थी। ऐसी ही नीतियों के अंतर्गत 1793 में ब्रिटिश सरकार ने परमानेंट सेटेलमेंट नियम लागू कर दिया। अब जंगल और जमीन पर सरकार का अधिकार हो गया। खेती करो और सरकार को टैक्स दो। 1793 से पहले हर काल में भूमि पर समाज का अधिकार था, व्यक्ति का नहीं।

जंगल और जमीनें छीन लेने के बाद भारतीय समाज की विपन्नता शुरू हो गई। जंगलों पर निर्भर वनवासी समाज असहाय सा हो गया जिसका अंग्रेजों ने जमकर फायदा उठाया, उनका आर्थिक शोषण तो किया ही, कन्वर्जन भी किया।

अंग्रेजों ने वनों के उपयोग के लिए पूरे भारत को चार हिस्सों में बांटा। पहला था प्रेसिडेंसी एरिया, जैसे मुंबई प्रेसिडेंसी, मद्रास प्रेसिडेंसी, कोलकाता प्रेसिडेंसी। यहॉं सीधे अंग्रेजों का शासन चलता था। दूसरा था रेजीडेंसी एरिया। यानि वहां पर रहने वाले जो राजा थे उनके पास एक सेना रहवास (रेजिडेंट) रहेगी। वह सेना राजा की नहीं, अंग्रेजों की होगी। तीसरा था एजेंसी एरिया। एजेंसी एरिया का कर्ता धर्ता होता था एक एजेंट, जो सीधे-सीधे ब्रिटिश सरकार को रिपोर्ट करता था।  चौथा था प्रिंसली स्टेट व एक्सक्लूडेड एरिया। एक्सक्लूडेड एरिया, मतलब ना प्रेसिडेंसी ना रेजिडेंसी, केवल एजेंसी।

एजेंसी एरिया में एजेंट के तीन काम रहते थे। पहला कन्वर्जन करना, दूसरा खनिज और वन संपदा का निर्धारण करना और तीसरा यदि आवश्यकता हो तो थोड़ा बहुत प्रशासनिक कार्य कर लेना। एक्सक्लूडेड एरिया के लिए कहा गया कि यहॉं  शासन कबीले ही करेंगे लेकिन चर्च का पादरी वहॉं पर रहेगा, सरकार व सेना का उसके कामों में कोई हस्तक्षेप नहीं होगा। यानि वहॉं पर केवल कन्वर्जन का काम होगा। जिसको आज हम नॉर्थ-ईस्ट बोलते हैं वह एक्सक्लूडेड एरिया था।

डिविजन के समय उन्हें लगा कि जनजातियों को आसानी से काबू कर लिया जाएगा, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। वीर वनवासियों ने अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ाई शुरू कर दी। पहला विद्रोह 1772 में लक्ष्मण नाइक ने किया, फिर तो बिरसा मुंडा जैसे अनेक योद्धाओं ने अंग्रेजों की नाक में दम कर दिया। अंग्रेजों ने देखा कि नगरों में उनको समस्या नहीं है, प्रेसिडेंसी एरिया में समस्या नहीं है, रेजिडेंसी एरिया में भी समस्या नहीं है। सबसे बड़ी समस्या शासन करने में अगर उनको कहीं पर आ रही है तो वह ट्राईबल एरिया में आ रही है। तब उन्होंने सोचा कि ट्राईबल एरिया में शासन कैसे करें।

जनजातियों से लड़ाई में अंग्रेज अनुमान ही नहीं लगा पाते थे कि जंगल में कितने लड़ाके हैं। कई जगहों पर उन्होंने केवल एक हजार की सेना भेजी। लेकिन वहां पर कम से कम 30000 जनजाति समुदाय के लोग थे, जिन्होंने इनको मार कर भगा दिया। इसके लिए उन्होंने इन क्षेत्रों में एक जनसंख्या सर्वे कराने का निश्चय किया। इस तरह भारत में पहली जनगणना 1820 में जनजातीय क्षेत्रों में हुई। जिसमें उन्होंने पता किया कि क्षेत्र में कुल कितनी जनजातियां रहती हैं और उनकी जनसंख्या कितनी है। इस जानकारी के आधार पर वनवासी समाज को कंट्रोल करने के लिए उन्होंने कई नीतियां बनाईं। अगली जनगणना 1891 में हुई, जिसमें उन्हें फॉरेस्ट ट्राईब कहा गया। फिर उन्हें लगा कि यहॉं तो इतने सारे ट्राईब हैं यदि हमने इनकी एक पहचान फॉरेस्ट ट्राइब यानि वनवासी पर ज्यादा जोर दिया तो इनकी एकता बढ़ेगी। तब उन्होंने उनकी  पहचान बदलने का निश्चय किया। 1901 के सेंसस में पहली बार  लिखा गया कि भारत में जनजाति समुदाय हिन्दू नहीं है और उन्हें एक नई संज्ञा दी गई – एनीमिस्ट यानि भूत प्रेत पूजने वाले। उन्होंने हिन्दू समाज को तोड़ा ताकि कन्वर्जन आसान हो जाए। उनको बोला कि वे हिन्दू नहीं हैं, उनकी कोई धार्मिक पहचान नहीं है, इसलिए वे किसी और धर्म में जा सकते हैं। फिर हुई 1911 की जनगणना जिसमें उन्होंने जनजाति समाज को एक नया नाम दिया ट्राईबल एनीमिस्ट या पीपल फॉलोइंग ट्राईबल रिलीजन (people following tribal religion).

इस तरह से उन्होंने अलग अलग कैटेगरी बना दीं। पहले सारे भारतीय नैसर्गिक पद्धति से एक दूसरे से जुड़े हुए थे, एक दूसरे के प्रति विरोध नहीं था। अंग्रेजों को इस पर भी शान्ति नहीं हुई। उन्हें लगा कि यदि भील, संथाली, गोंड आदि ये सारे  एक जैसे रहेंगे तो यह एक साथ विद्रोह भी करेंगे। इसलिए इस बार उन्होंने कहना शुरू कर दिया कि भील लोगों का रिलीजन भील है, गोंड का रिलीजन गोंड है, संथाली का रिलीजन संथाली है, मुंडा का रिलीजन मुंडारी है। इसे स्थापित किया गया 1911 में। तो इस तरह से हमारा समाज जो पहले उत्तर से दक्षिण, पूरब से पश्चिम तक एक था, प्रकृति पूजा के नाते एक था, सनातन आस्थाओं के कारण एक था, अंग्रेजों ने उनको अलग अलग रिलीजन के नाम देकर बांट दिया। उसके बाद जो अगली जनगणना हुई, उसमें उन्होंने इस समाज को  प्रिमिटिव ट्राइब्स के नाम से चिन्हित किया और इसी जनगणना के आधार पर बोला गया कि जनजाति समाज की संख्या भारत में 10% है। प्रिमिटिव यानि अति पिछड़ी जनजाति।

तब भारत में लोग बार्टर सिस्टम से व्यापार करते थे। वनवासियों में भी यही तरीका चलन में था। मुद्रा का प्रचलन न होने के कारण अंग्रेज उन्हें कोई प्रलोभन नहीं दे पाते थे। लेकिन अंग्रेजों ने उनका अलग तरह से शोषण शुरू कर दिया। वे वनवासियों को सस्ते मजदूर (लेबर) के तौर पर रखने लगे। बदले में 10 मुद्राएं दे देते चाहे वह 10 मुद्रा चवन्नी की हो या रुपए की। क्योंकि वनवासियों को दोनों में अंतर ही पता नहीं था। वे गिनती तो जानते नहीं थे। उन्होंने व्यापार तो किया था लेकिन वस्तु के बदले वस्तु देते थे। धीरे धीरे वे पिछड़ते गए, क्योंकि समाज में मुद्रा का प्रचलन नहीं था, टैक्स का प्रचलन नहीं था। 1931 में तो यह व्यवस्था उन्होंने बना दी थी।

1931 के बाद 1941 में जो जनगणना हुई, उसमें उन्होंने कहा जो लोग 1931 की जनगणना में हैं और उनसे उत्पन्न लोग हैं केवल वह जनजाति होंगे यानि इस जनगणना में जो इस पिछड़े वर्ग से होगा वह जनजाति होगा। धार्मिक पहचान के बारे में उन्होंने लिख दिया कि आदिवासी हिन्दू नहीं हैं।

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