क्या 1971 की भांति पाकिस्तान फिर से दो टुकड़ों में बंट जाएगा?
बलबीर पुंज
क्या 1971 की भांति पाकिस्तान फिर से दो टुकड़ों में बंट जाएगा?
पाकिस्तान में 9-10 मई को जो कुछ हुआ, वह कोई अनपेक्षित नहीं है। पूर्व पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान नियाज़ी के गिरफ्तार होने की संभावना बीते कई दिनों से थी। वे पाकिस्तान के शायद पहले ऐसे एकमात्र राजनेता हैं, जिसने सीधे पाकिस्तानी सेना को ललकारा है। यह खुला रहस्य है कि वहां के वैचारिक-राजनीतिक अधिष्ठान में सेना, मुल्ला-मौलवियों के साथ सर्व-शक्तिशाली है। इसलिए सेना से टकराने के बाद इमरान की गिरफ्तारी, वह भी किसी कुख्यात अपराधी की भांति उनका गिरेबान खींचते हुए— स्वाभावित ही थी।
वर्तमान पाकिस्तान की स्थिति बहुत रोचक है। उसके शीर्ष राजनेताओं के साथ सैन्य अधिकारियों पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप है। पाकिस्तानी प्रधानमंत्री शहबाज को वैसा जनसमर्थन प्राप्त नहीं है, जैसा इमरान को मिलता हुआ दिखता है। जिस प्रकार वर्ष 2017 से पहले इमरान खान को पाकिस्तानी सेना का प्रत्यक्ष-परोक्ष समर्थन मिला हुआ था, जिसके बल पर वे प्रधानमंत्री भी बने— ठीक उसी तरह वैसा ही सैन्य संबल शहबाज को उपलब्ध है। यह स्थापित करता है कि पाकिस्तान में सरकार भले ही किसी की हो, दमखम केवल सेना के पास ही रहेगा और हालिया अस्थिरता में भी अन्ततोगत्वा पाकिस्तानी सेना का दबदबा रहेगा।
पाकिस्तान का इतिहास बताता है कि उसके सेना प्रमुखों को वहां के शीर्ष राजनीतिज्ञों को पटखनी देने में महारत प्राप्त है। वर्ष 2016 में जनरल बाजवा को तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने नियुक्त किया था। इसके अगले ही वर्ष जुलाई में नवाज को पाकिस्तानी सर्वोच्च न्यायालय ने अयोग्य ठहराकर प्रधानमंत्री पद से अपदस्थ कर दिया। कहा जाता है कि इसकी पटकथा स्वयं पाकिस्तानी सेना ने लिखी थी, क्योंकि जिस जांच समिति की रिपोर्ट को आधार बनाकर शरीफ पर कार्रवाई की गई थी, उसमें पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई और सेना के अधिकारी भी शामिल थे। नवाज (1999) के अतिरिक्त इस्कंदर मिर्जा (1958) और जुल्फिकार अली भुट्टो (1977) भी सैन्य तख्तापलट का स्वाद चख चुके है। लियाकत अली (1951) और बेनजीर भुट्टो (1995) इससे बचने में सफल तो हुए, किंतु उन्हें हमले में मौत के अपनी जान से हाथ धो बैठे।
पाकिस्तानी प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ कई अवसरों पर देश में गृहयुद्ध भड़कने की आशंका व्यक्त कर चुके हैं, जो भुखमरी के बाद इमरान की गिरफ्तारी के खिलाफ भड़की हिंसा, भीषण उत्पात और सैन्य अधिष्ठानों पर हमलों से स्पष्ट है। क्या 1971 की भांति पाकिस्तान फिर से दो टुकड़ों में बंट जाएगा? उस समय सत्ता की लड़ाई और उस पर मजहबी कॉकटेल ने पाकिस्तान को दो-फाड़ कर दिया था। क्या यह सत्य नहीं कि वर्तमान परिदृश्य भी 1971 के प्रकरण से मेल खाता है? प्रधानमंत्री पद से हाथ धोने के बाद इमरान और उनकी पार्टी सत्तारुढ़ दल के खिलाफ आक्रामक और इस्लामी विमर्श की शरण में हैं। वे अपनी रैलियों में पाकिस्तान को ‘रियासत-ए-मदीना’ बनाने का का वादा कर रहे हैं। इसी से नाराज होकर एक जिहादी ने इमरान पर गत वर्ष जानलेवा हमला कर दिया था, जिसमें वे बच निकले, तो अभी 6 मई को उन्मादी भीड़ ने खैबर पख्तूनख्वा में एक इमरान समर्थक को इसलिए पीट-पीटकर मार डाला, क्योंकि उसने इमरान की तुलना पैगंबर मुहम्मद साहब से कर दी थी।
जहां भारत दुनिया की बड़ी सामरिक-आर्थिक शक्तियों में एक है, वहीं पाकिस्तान स्थिर तक क्यों नहीं हो पा रहा है? इस स्थिति का कारण वह विषाक्त मानसिकता है, जिसके परिणामस्वरूप उसका जन्म हुआ था। यह स्थापित सत्य है कि भारतीय उपमहाद्वीप में रहने वाले लोगों की विरासत, संस्कृति और पुरखे सांझे हैं। परंतु जिस भी कारण (छल-बल सहित) वर्तमान पीढ़ी के पूर्वजों ने मतांतरण के बाद इस्लाम को अपनाया, उन्होंने ‘काफिर-कुफ्र’ अवधारणा से प्रेरित होकर अपने सहबंधुओं और अपनी मूल सनातन संस्कृति से दूरी बनाना प्रारंभ कर दिया। इसके अलगे चरण में यह दूरी घृणा में, तो कालांतर में शत्रुता में परिवर्तित हो गई।
इसलिए कोई आश्चर्य नहीं कि विश्व के इस भूखंड में बसे इस्लामी अनुयायियों का बहुत बड़ा वर्ग, जिनके भी पूर्वज हिंदू या बौद्ध थे— वे अपने अतीत को नकारते हुए अफगानिस्तान, पाकिस्तान, बांग्लादेश और कश्मीर में असंख्य मंदिरों, गुरुद्वारों और देवी-देवताओं की मूर्तियों को ध्वस्त कर चुके हैं। यही चिंतन खंडित भारत में निकलने वाली हिंदू शोभायात्राओं पर मुस्लिम समाज के एक वर्ग को पत्थरबाजी के लिए उकसाती है। भारत-पाकिस्तान का विवाद किसी भू-क्षेत्र को लेकर नहीं है, अपितु इसी विभाजनकारी चिंतन का विस्तार मात्र है।
जिस वैचारिक दर्शन से पाकिस्तान को वर्तमान स्वरूप मिला है, वह उसके अनुरूप अपने संसाधनों का बहुत बड़ा हिस्सा ‘काफिर’ भारत के खिलाफ आतंकवाद को पोषित करने में व्यय कर रहा है, तो वही रक्तबीज अब उसके लिए भी भस्मासुर बन रहे हैं। पाकिस्तान में वर्ष 1967-2021 के बीच 1500 से अधिक ईशनिंदा के मामले दर्ज हुए हैं, जिनमें कई आरोपियों (मुस्लिम सहित) को न्यायिक प्रक्रिया के दौरान मजहबी भीड़ ने या तो मौत के घाट उतार दिया या फिर उनसे मारपीट की। बात केवल यहीं तक सीमित नहीं। पाकिस्तान में अकेले ‘तहरीक-ए-तालिबान’ नामक आतंकी संगठन ने सैंकड़ों हमले करके लगभग 80 हजार पाकिस्तानी नागरिकों-सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया है। वर्ष 2001-2018 के बीच सांप्रदायिक घटनाओं में 4,847 शियाओं की सुन्नी कट्टरपंथी हत्या कर चुके हैं। 20 लाख अहमदी मुसलमान पाकिस्तान में रहते हैं, जो 1974 में आधिकारिक रूप से गैर-मुस्लिम घोषित होने के बाद से मजहबी घृणा का शिकार हो रहे हैं। यह ‘इको-सिस्टम’ पाकिस्तानी वैचारिक अधिष्ठान की देन है, उसमें बहुलतावाद, पंथनिरपेक्षता के साथ लोकतंत्र जैसे जीवंत मूल्यों का कोई स्थान नहीं।
पाकिस्तान के हालिया घटनाक्रम से भारत पर क्या प्रभाव पड़ेगा? गत दिनों पाकिस्तानी विदेशी मंत्री बिलावल भुट्टो जरदारी ने शंघाई सहयोग संगठन की बैठक में हिस्सा लेने हेतु भारत का दौरा किया था। इसमें जो परिणाम निकला, उसने पहले ही स्पष्ट कर दिया कि भारत-पाकिस्तान के संबंधों में फिलहाल सुधार की कोई संभावना नहीं है। यह सब पाकिस्तान के ‘काफिर-कुफ्र’ युक्त डीएनए के कारण है, जो दोनों देशों के संबंधों को सामान्य नहीं होने दे रहा, तो पाकिस्तान को अस्थिर रख रहा है।
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार, पूर्व राज्यसभा सांसद और भारतीय जनता पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय-उपाध्यक्ष हैं)