क्रांतिवीर रामप्रसाद बिस्मिल और उनकी दया याचिका
डॉ. अरुण सिंह
क्रांतिवीर रामप्रसाद बिस्मिल और उनकी दया याचिका
काकोरी षड्यंत्र केस में रामप्रसाद बिस्मिल, राजेंद्रनाथ लाहिड़ी, ठाकुर रोशन सिंह और अशफाक उल्लाह खान को फांसी की सजा हुई। सेशन कोर्ट का निर्णय 6 अप्रैल, 1927 को घोषित हुआ। बिस्मिल फांसी से डरते नहीं थे, परंतु राष्ट्र हेतु और भी बहुत कुछ करना चाहते थे। दया याचिका कुछ और करने हेतु जीवित रहने की एक टीस का उद्गार है। अपनी असफलताओं के पीछे वे संगठनात्मक अव्यवस्थाओं, आम जन के असहयोग और अनुभव का अभाव जैसे कारण बताते हैं। काकोरी की घटना के पश्चात् और गिरफ्तार होने से पूर्व उन्होंने कभी भी पुलिस और सरकार को गंभीरता से नहीं लिया। दया याचिका के माध्यम से वे अंग्रेजी सरकार की धूर्तता को उजागर करना चाहते थे क्योंकि उस समय न्यायालयों में लंबित इस तरह के अन्य मुकदमों में किसी को भी फांसी की सजा नहीं दी गई थी।
बिस्मिल (अपने साथियों सहित) ने अवध के मुख्य न्यायालय में 7 जुलाई, 1927 को अपील प्रस्तुत की। इससे पूर्व एकीकृत राज्य के राज्यपाल को ज्ञापन दिया गया कि यदि उनकी सज़ा को माफ़ कर दिया जाए तो वे भविष्य में कभी भी किसी क्रांतिकारी गतिविधि में शामिल नहीं होंगे। कोर्ट ने दलील दी कि रामप्रसाद बिस्मिल एक अत्यंत ही खतरनाक व्यक्ति है। उसे छोड़ देना पुनः आपदा को निमंत्रण देना है।
“षड्यंत्र” काकोरी में नहीं हुआ था, वह तो ब्रितानी कोर्ट में हुआ था। बिस्मिल पर आरोप लगाया गया कि उन्होंने सेशन कोर्ट की सुनवाई के दौरान अंग्रेजी पुलिस को गालियां दीं जबकि सब शांतिपूर्ण ढंग से हुआ था।
इसके पश्चात् दया याचिका वायसरॉय के यहां प्रस्तुत की गई। यह सज़ा को कम करने के लिए थी। बहुत सारे स्थानीय नेताओं ने इस हेतु प्रार्थना पत्र प्रस्तुत किया। बिस्मिल के पिताजी ने ढाई सौ गणमान्य लोगों के हस्ताक्षर सहित याचिका प्रस्तुत की, पर सरकार टस से मस नहीं हुई। उस समय के एकीकृत राज्य की विधान सभा और राज्य समितियों के 78 सदस्यों ने फांसी की सज़ा को बदलने हेतु वायसरॉय से गुहार लगाई। पंडित मदन मोहन मालवीय जी और कुछ अन्य सभा सदस्य भी इस हेतु वायसरॉय से मिले। परंतु परिणाम कुछ नहीं आया। दशहरे से दो दिन पहले फांसी की तिथि निर्णीत की गई।
अंत में ब्रिटिश सम्राट से प्रार्थना की गई पर परिणाम शून्य था। बिस्मिल बताते हैं कि यह सब एक राजनीतिक तंत्र का षड्यंत्र था, जिस से लड़ना और उबर पाना उन परिस्थितियों में असंभव ही था। अपने ही साथियों ने सरकार के गवाह बनकर सीना छलनी कर दिया। फिर भी देश के लिए स्वप्न पालते थे बिस्मिल। सभी देशवासी एकजुट होकर लड़ें और स्वतंत्रता प्राप्त करें। वे उस समय की कांग्रेस के समर्थक थे। क्योंकि जो भी नेता था, वह कांग्रेसी था। बिस्मिल स्वयं भी कांग्रेसी थे। उनकी टीस यही थी कि उस समय देश का युवा सही अर्थ में शिक्षित नहीं था। यह सही अर्थ राष्ट्र की सेवा हेतु ही था। क्रांति हेतु लोगों को जागना आवश्यक था, अन्यथा क्रांति भी असफल ही थी।
यही कारण था दया याचिका का। अभी तो समय आया था कुछ करने का। अनुभव में पकाव आने लगा था और फांसी तय हो गई।
उन दिनों क्रांतिकारियों द्वारा दया याचिका प्रस्तुत करने का अर्थ कायर होना नहीं था। जीवित रहकर राष्ट्र हेतु और कार्य करना था। वीर सावरकर ने भी इसी हेतु दया याचिका प्रस्तुत की थी। कांग्रेस ने क्रांतिकारियों के साथ कितना और क्या न्याय किया, यह इतिहास के गर्भ में दृष्टव्य है।