गोविंद गुरु ने जगाई स्वतंत्रता की अलख, जनजातीय समाज के लिए समर्पित कर दिया जीवन

गोविंद गुरु ने जगाई स्वतंत्रता की अलख, जनजातीय समाज के लिए समर्पित कर दिया जीवन
पुण्यतिथि गोविंद गुरु

गोविंद गुरु ने जगाई स्वतंत्रता की अलख, जनजातीय समाज के लिए समर्पित कर दिया जीवन गोविंद गुरु ने जगाई स्वतंत्रता की अलख, जनजातीय समाज के लिए समर्पित कर दिया जीवन

देश के स्वतंत्रता आंदोलन में अग्रणी भूमिका निभाने वाले गोविंद गुरु एक संत और समाज सुधारक थे। गोविंद गुरु ने अपना जीवन जनजातीय समाज का नैतिक चरित्र, आदतों और धार्मिक प्रथाओं को सुधारने के लिए समर्पित कर दिया। बांसवाड़ा और उसके आसपास के क्षेत्र में गोविंद गुरु को भगवान की तरह पूजा जाता है। इस क्षेत्र में भील, बंजारा और जनजाति समुदाय के लोग गोविंद गुरु को अपना आराध्य मानते हैं।

गोविंद गुरु का जन्म 20 दिसंबर 1858 को डूंगरपुर के बासिया गांव में एक बंजारा परिवार में हुआ था। उनका पूरा नाम गोविंद गिरि था। पत्नी और बच्चों की मृत्यु के बाद गोविंद गिरि अध्यात्म की ओर मुड़ गए और सन्यासी जीवन अपना लिया और महर्षि दयानन्द सरस्वती की प्रेरणा से देश, धर्म व जनजाति समाज की सेवा में समर्पित हो गए। इसके बाद उन्होंने कोटा-बूंदी क्षेत्र के संत राजगिरि को अपना गुरु बनाया और बेड़सा गांव में धूणी रमाकर रहने लगे। यहां उन्होंने आसपास के घुमंतू व जनजाति समाज को आध्यात्मिक शिक्षा देना शुरू कर दिया। धीरे-धीरे वो गोविंद गिरि से गोविंद गुरु के नाम से पहचाने जाने लगे। गोविंद गुरु ने अपनी गतिविधियों का केन्द्र वागड़ क्षेत्र को बनाया। अंग्रेजी शासन के दिनों में जब भारत की स्वतंत्रता में हर व्यक्ति अपने-अपने ढंग से योगदान दे रहा था, तब अशिक्षा और अभावों के बीच अज्ञान के अंधकार में जैसे-तैसे जीवनयापन करते जनजाति अंचल के निवासियों को धार्मिक चेतना की चिंगारी से स्वतंत्रता की अलख जगाने का काम गोविंद गुरु ने किया। वे ढोल-मंजीरों की ताल और भजन की स्वर लहरियों से आम जनमानस को स्वतंत्रता के लिए उद्वेलित करते थे। वो अपनी कविताओं से लोगों को संदेश देते थे। लोगों से मिलते थे। उन्हें जागरूक और एकजुट करने का प्रयास करते थे। गोविंद गुरु ने अपने संदेश को लोगों तक पहुंचाने के लिए साहित्य का सृजन भी किया। वे लोगों को गीत सुनाते थे, जिनमें अंग्रेजों से देश की भूमि का हिसाब मांगने का संदेश होता था। वह बताते थे कि सारा देश हमारा है। हम लड़कर अपनी माटी को अंग्रेजों से मुक्त करा लेंगे। वे अंग्रेजों को भूरिया कहते थे। उनका एक गीत आज भी प्रसिद्ध है-

दिल्ली रे दक्कण नू भूरिया, आवे है महराज।

बाड़े घुडिले भूरिया आवे है महराज।।

साईं रे भूरिया आवे है महराज।

डांटा रे टोपीनु भूरिया आवे हैं महराज।।

मगरे झंडो नेके आवे है महराज।

नवो-नवो कानून काढे है महराज।।

दुनिया के लेके लिए आवे है महराज।

जमीं नु लेके लिए है महराज।।

दुनिया नु राजते करे है महराज।

दिल्ली ने वारु बास्सा वाजे है महराज।।

धूरिया जातू रे थारे देश।

भूरिया ते मारा देश नू राज है महराज।।

गोविंद गुरु ने शुरू किया भगत आंदोलन 

गोविंद गुरु ने 1890 के दशक में राजस्थान और गुजरात के सीमावर्ती क्षेत्रों में जनजातीय समाज के बीच भगत आंदोलन शुरू किया, जिसका प्रतीक अग्नि देवता थे। अनुयायियों को पवित्र अग्नि के समक्ष खड़े होकर पूजा के साथ-साथ हवन अर्थात धूणी करना होता था। इस आंदोलन से जुड़े लोग अग्नि को साक्षी मानकर चोरी-चकारी से लेकर शराब और व्यभिचार जैसी चीजों से दूर रहने की शपथ लिया करते थे। 

जनजातियों के उत्थान के लिए की सम्प सभा की स्थापना 

गोविंद गुरु ने वर्ष 1883 में सम्प सभा की स्थापना की। इसका उद्देश्य जनजाति समाज के बीच सांस्कृतिक चेतना का विकास करना और उन्हें पराधीनता के जीवन से मुक्ति दिलाना था। इसके द्वारा उन्होंने शराब, मांस, चोरी, व्यभिचार आदि से दूर रहने; परिश्रम कर सादा जीवन जीने; प्रतिदिन स्नान, यज्ञ एवं कीर्तन करने; विद्यालय स्थापित कर बच्चों को पढ़ाने, अपने झगड़े पंचायत में सुलझाने, अन्याय न सहने, अंग्रेजों के पिट्ठू जागीरदारों को लगान न देने, बेगार न करने तथा विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार कर स्वदेशी का प्रयोग करने जैसे सूत्रों का गांव-गांव में प्रचार किया। कुछ ही समय में लाखों लोग उनके भक्त बन गये। प्रतिवर्ष मार्गशीर्ष पूर्णिमा को सभा का वार्षिक मेला होता था, जिसमें लोग हवन करते हुए घी एवं नारियल की आहुति देते थे। लोग हाथ में घी के बर्तन तथा कन्धे पर अपने परम्परागत शस्त्र लेकर आते थे। मेले में सामाजिक तथा राजनीतिक समस्याओं पर चर्चा होती थी। इससे वागड़ का यह जनजातीय क्षेत्र धीरे-धीरे ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध अपनी अस्मिता की रक्षा के प्रति के लिए सचेत होने लगा

अंग्रेजों ने मानगढ़ पहाड़ी पर निहत्थे जनजाति समाज पर बरसाई थीं गोलियां 

गोविंद गुरु को मानने वालों की संख्या बढ़ी, तो उन्होंने हर वर्ष बांसवाड़ा जिले के मानगढ़ में एक समागम शुरू कर दिया। वर्ष 1913 में समागम या मेले का समय आया तो हजारों की संख्या में भील, बंजारा और जनजाति समुदाय के लोग मानगढ़ की पहाड़ी पर जुट गए। वार्षिक मेले से ठीक पहले गोविंद गुरु ने अंग्रेजी शासन को चिट्ठी लिखकर अकाल पीड़ित जनजाति समाज से लिया जा रहा कर घटाने और बेगार के नाम पर उन्हें परेशान न करने को कहा था। अंग्रेजी प्रशासन ने जब मानगढ़ की पहाड़ी पर भारी संख्या में भील-जनजाति समाज को जुटते देखा तो घबरा गया। अंग्रेजों ने 17 नवंबर 1913 को मानगढ़ की पहाड़ी को चारों ओर से घेर लिया, मशीनगन और तोपें लगा दीं। इसके बाद उन्होंने गोविन्द गुरु को तुरन्त मानगढ़ पहाड़ी छोड़ने का आदेश दिया। उस समय तक वहां लाखों भक्त आ चुके थे। पुलिस ने कर्नल शटन के नेतृत्व में गोलियां चलाना शुरू कर दिया। देखते ही देखते 1500 से अधिक निर्दोष बलिदान हो गए। गोविंद गुरु के पैर में भी गोली लगी। अंग्रेजों ने उन्हें गिरफ्तार कर अहमदाबाद की जेल में बंद कर दिया और फांसी की सजा सुनाई। सम्प सभा को भी अवैध घोषित कर दिया। हालांकि कुछ समय बाद गोविंद गुरु की फांसी की सजा आजीवन कारावास में बदल दी गई। वर्ष 1923 में जेल में अच्छे व्यवहार के कारण उन्हें रिहा कर दिया गया, लेकिन उनके बांसवाड़ा और डूंगरपुर की सीमा में आने पर पाबंदी लगा दी गई। जेल से मुक्त होकर वे भील सेवा सदन, झालोद के माध्यम से लोक सेवा के विभिन्न कार्य करते रहे। 30 अक्टूबर, 1931 को ग्राम कम्बोई (गुजरात) में उनका निधन हो गया। प्रतिवर्ष मार्गशीर्ष पूर्णिमा को वहां बनी उनकी समाधि पर लाखों लोग उन्हें श्रद्धा-सुमन अर्पित करने आते हैं।

मानगढ़ की पहाड़ी पर हर वर्ष लगता है मेला 

मानगढ़ की पहाड़ी पर हुई घटना को राजस्थान के जलियांवाला बाग हत्याकांड के नाम से भी जाना जाता है। बाद में इस घटना ने देश में स्वतंत्रता आंदोलन की चिंगारी भड़काने में बड़ी भूमिका निभाई। अब भी हर वर्ष मानगढ़ की पहाड़ी पर मेले का आयोजन होता है, जिसमें राजस्थान, गुजरात, मध्य प्रदेश और देश के दूसरे कोनों से बड़ी संख्या में लोग जुटते हैं। मानगढ़ धाम में ही जनजातीय स्वतंत्रता संग्राम संग्रहालय भी बना है। गोविंद गुरु के जन्म स्थान बांसिया में निवासरत परिवार की छठी पीढ़ी उनकी विरासत को संभाले हुए है।

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