‘स्व’ से साक्षात्कार

'स्व' से साक्षात्कार

जे. नन्दकुमार

'स्व' से साक्षात्कार‘स्व’ से साक्षात्कार

राष्ट्र के लिए ‘स्व’ का क्या अर्थ है? यह क्या दर्शाता है? जैसा कि स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, “सामान्य मानवता से परे प्रत्येक राष्ट्र, चरित्र की एक निश्चित विशिष्टता विकसित करता है। वह धर्म, राजनीति, भौतिक शरीर, मानसिक प्रकृति, पुरुषों और महिलाओं में दृष्टिगोचर होता है। कोई राष्ट्र अपने चरित्र की एक विशेषता विकसित करता है, तो किसी दूसरे राष्ट्र की अन्य विशेषता होती है”।

‘स्व’ राष्ट्र की प्रामाणिक पहचान है। यद्यपि राष्ट्र शब्द का उपयोग प्रायः अंग्रेजी के नेशन के रूप में किया जाता है, जबकि ‘राष्ट्र’ शब्द का अनुवाद ‘नेशन’ के रूप में नहीं किया जा सकता। राष्ट्र राजनीतिक से अधिक एक सांस्कृतिक और आध्यात्मिक अवधारणा है। राष्ट्रत्व और राष्ट्रीयता की अवधारणाओं की जड़ें राष्ट्र में हैं। ‘राष्ट्रत्व’ अंग्रेजी का ‘नेशनहुड’ भी नहीं है। राष्ट्रत्व और नेशनहुड पूर्णतः भिन्न हैं। राष्ट्र, राष्ट्र-राज्य और राष्ट्रवाद की अवधारणाएं उन्नीसवीं सदी के यूरोप में औद्योगीकरण के निजी आर्थिक हितों और सामाजिक परिवर्तन से विकसित हुईं, इसलिए यूरोप में राष्ट्रवाद को लेकर यह मत है कि राजनीतिक सीमाएं सांस्कृतिक समुदायों के अनुरूप होनी चाहिए। इसलिए संस्कृति को मुख्य रूप से साझा भाषा द्वारा परिभाषित किया जाना चाहिए।

भारतीय और पश्चिमी अवधारणाओं का तुलनात्मक विश्लेषण करते हुए प्रख्यात विचारक और वरिष्ठ आरएसएस प्रचारक श्री रंगा हरि अपने लेख “हिन्दुत्व भारतीय राष्ट्रत्व” में लिखते हैं कि ‘जब वैज्ञानिक और व्युत्पत्तिशास्त्रीय रूप से विश्लेषण किया जाता है, तो राष्ट्रवाद को नेशनहुड के बराबर मानना उतना ही गलत है, जितना कि ‘उपनयन’ को सूत्र समारोह कहना।’ ‘सूत्र समारोह’ के रूप में अनुवाद करते ही ‘उपनयन’ की मूल संस्कृति और भावना विकृत हो जाती है। मृत्यु के बाद की क्रियाएं यथा श्राद्धकर्म के दौरान एक परंपरा है, जिसमें कुरचा (कुश की पत्तियों से बने दिवंगत आत्मा के प्रतीक) पर एक धागा (सूत्र) बांधा जाता है। यह भी सूत्र की एक रस्म है। लेकिन, यह पवित्र ‘उपनयन’ का विकल्प नहीं हो सकता। इसी तरह, क्या कोई यह कह सकता है कि जब दुल्हन के गले में दूल्हा मंगलसूत्र बांधता है तो उसने अपनी दुल्हन का ‘उपनयन संस्कार’ किया है? नहीं, क्योंकि ‘उपनयन’ से जुड़ा प्रतीक और भाव गहरे अर्थ लिए है। पश्चिमी सांस्कृतिक बोलचाल में ऐसी परिकल्पना ही नहीं है, इसलिए इस शब्द का अनुवाद किया ही नहीं जा सकता है।

ऐसा ही भारतीय सन्दर्भ में राष्ट्रत्व के सम्बन्ध में है। किसी समाज का राष्ट्र के रूप में विकास उस समाज को बनाने वाले लोगों की विशेष पहचान या ‘स्व’ के आधार पर होता है। उदार बनने की उनकी आकांक्षा, संगठित होने की उनकी ललक, भीतर की दिव्यता को पहचानने की उनकी क्षमता, ब्रह्मांड के समान मन को विकसित करने की उनकी निष्ठा, ये सभी राष्ट्र के ‘स्व’ से संबंधित हैं।

वास्तव में, ‘स्व’ किसी राष्ट्र के अस्तित्व के उद्देश्य या उसके लक्ष्य को आकार देता है।

नेपोलियन ने एक बार इंग्लैंड को ‘व्यापारियों का देश’ कहा था। स्वामी विवेकानन्द ने कहा था कि अर्थशास्त्र इंग्लैंड का राष्ट्रीय आदर्श है, जबकि फ्रांस के लिए यह राजनीति पर आधारित है। वहीं भारत के लिए यह आदर्श ‘धर्म’ है। स्वामी विवेकानन्द ने बताया था कि भारत के ‘स्वत्व’ से ही इसका अस्तित्व है। मानव जाति को आध्यात्मिक मार्ग पर प्रशस्त करना ही भारत का लक्ष्य, भारत के अस्तित्व की रीढ़ और आधार है, उसके अस्तित्व का कारण है। अपने जीवन-क्रम में भारत अपने पथ से कभी विचलित नहीं हुआ, चाहे तातार ने शासन किया हो या तुर्कों ने, मुगलों ने या फिर अंग्रेजों ने।

महर्षि अरविंद के अनुसार, ‘सनातन धर्म’ ही भारत का स्वभाव है। अपने प्रसिद्ध उत्तरापाड़ा भाषण में वे कहते हैं, “मैं अब यह नहीं कहता कि राष्ट्रवाद एक पंथ, एक धर्म, एक आस्था है, मैं कहता हूँ कि सनातन धर्म ही हमारे लिए राष्ट्रवाद है। इस हिंदू राष्ट्र का जन्म सनातन धर्म के साथ हुआ, उसी के साथ वह चलता है, उसी के साथ उसका विकास होता है। सनातन धर्म का पतन होता है तो राष्ट्र का पतन होता है और सनातन धर्म नष्ट होगा, तो वह भी नष्ट हो जाएगा। सनातन धर्म ही राष्ट्रवाद है।”

राष्ट्र के स्वत्व के बारे में अपने विचार को घर-घर तक पहुंचाने के लिए पूजनीय गुरुजी दो शब्दों अस्तित्व और अस्मिता का उल्लेख करते थे। श्री गुरुजी ने हिमालय को दर्शाने के लिए कालिदास के कुमार संभवम् से दो भावों का उपयोग किया। कालिदास हिमालय को ‘नगाधिराज’ अर्थात पर्वतों का राजा (अस्तित्व) और ‘देवतात्मा’ (अस्मिता) कहते हैं।

एकात्म मानव दर्शन में पं. दीनदयाल उपाध्याय ने इसकी पहचान ‘चिति’ के रूप में की। ‘चिति वह कसौटी है, जिस पर प्रत्येक कार्य, प्रत्येक दृष्टिकोण का परीक्षण किया जाता है और स्वीकार्य या अन्यथा निर्धारित किया जाता है। चिति राष्ट्र की आत्मा है। इस चिति के बल पर एक राष्ट्र समर्थ और शक्तिशाली बनता है। यह चिति ही है, जो किसी राष्ट्र के प्रत्येक महान व्यक्ति के कार्यों में प्रदर्शित होती है। प्रत्येक समाज की एक जन्मजात प्रकृति होती है, जो ऐतिहासिक परिस्थितियों का परिणाम नहीं होती।” इन महापुरुषों ने अलग-अलग शब्दावली के माध्यम से ‘स्व’ की अवधारणा को घर-घर तक पहुंचाया। हमारे वैश्विक दृष्टिकोण को हमारे मूल सभ्यतागत चरित्र ने आकार दिया है। यह हमारे सभी दृष्टिकोणों और मनोवृत्तियों में प्रतिबिंबित होता है। हमारे लिए पृथ्वी माता है, वायु पिता है, अग्नि मित्र है, अंतरिक्ष भाई है। भर्तृहरि के वैराग्य शतक के सौवें श्लोक में स्पष्ट उल्लेख किया गया है-

मातदिनि तात मारूत सखे तेजः सुबन्यो जल भ्रातरव्योम निबद्ध एव भवताम् अन्त्यः प्रणामाञ्जलिः ।

हम प्रकृति को कभी अपनी व्यवस्था से बाहर की चीज नहीं मानते। हालांकि, प्रकृति स्वयं हमारी पालक है, वह हमारी देखभाल और संरक्षण की अधिकारी है। यह हमारी जिम्मेदारी है। हमें ऐसे सोचना और उस पर अमल करना होगा कि पर्यावरण हमारे अस्तित्व का एक हिस्सा है, हम इसे प्रकृति कहते हैं। इसीलिए वेद कहते हैं-

जनं बिभ्रती बहुधा विवाचसं नानाधर्माणं पृथिवी यथौकसम्।
सहस्रम् धारा द्रविणस्य मे दुहां ध्रुवेव धेनुरनपस्फुरन्ती।।(अथर्ववेद)

(यचौकसम्) जैसे एक घर में रहने वालों का समान रूप से भरण पोषण होता है, वैसे पृथ्वी पर (बहुधा) बहुत प्रकार के (विवाचसम्) विभिन्न भाषाएं बोलने वाले, (नाना धर्माणम्) भिन्न भिन्न मतों वाले जनसमुदाय का (द्रविणस्य सहस्रम्) हजारों प्रकार के धन धान्य से (विभ्रती) भरण पोषण होता है। ठीक उसी प्रकार जैसे एक गी स्थिर खड़ी हुई बिना किसी भेदभाव से सबको हजारों धाराओं से दूध देती है।

भारतीय दर्शन में लिंगभेद कभी मुद्दा नहीं रहा। हमारी संस्कृति में हम स्त्री-पुरुष में भेदभाव नहीं करते। हम सृष्टि में विद्यमान विविधता का सम्मान करते हैं। फिर भी, हम मानते हैं कि सभी एक माँ की संतान हैं। विश्व बन्धुत्व की अवधारणा हमारे रक्त में है। स्वीकृति भी हमारे स्वभाव का एक और महत्वपूर्ण गुण है। यह ‘सर्वत्र’ हमारे ‘स्व’ से प्रेरित दर्शन के सार्वभौमिक पहलू को दर्शाता है। इसी आलोक में, हमें अपनी ‘वसुधैव कुटुंबकम’ की अवधारणा को समझना होगा। हमारे लिए विश्व न तो गांव है और न ही बाजार, यह हमारा घर, हमारा परिवार है।

इस भूमि की प्रबुद्ध आत्माओं ने इस विचार को न केवल उद्घाटित किया, बल्कि इसके उद्भव और विकासक्रम से बढ़ते हुए यह विचार विकसित होकर प्रकट हुआ है, जिन्हें बाद में, हम पर कब्जा करने के लिए यहां आए आक्रामणकारियों, लुटेरों, से अलग पहचान देने के लिए हिन्दू कहा गया। तभी से हिन्दुत्व शब्द प्रचलन में आया। आधुनिक विश्व में भारत के स्वत्व को भारतीयत्व ही माना जा रहा है। यह एक भौगोलिक शब्द है और कुछ हद तक राजनीतिक भी। अगर हमें इसे सांस्कृतिक शब्दावली में संबोचित करना है, या फिर सभ्यतागत तरीके से इसका सही चित्रण करना है, तो इसके लिए ‘हिन्दुत्व’ सही शब्द होगा। कोई अन्य नामकरण ‘स्व’ या सहज आत्म-चेतना को विशेष रूप से ‘हिन्दुत्व’ के रूप में समझा नहीं सकता है। इन पहलुओं को समझे बिना वास्तविक भारत को नहीं समझा जा सकता।

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