हल्दीघाटी का युद्ध : एक स्वतंत्रता संग्राम

हल्दीघाटी का युद्ध : एक स्वतंत्रता संग्राम

तृप्ति शर्मा

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भारत की भूमि पर अनेक महान व निर्णायक युद्ध हुए हैं- जैसे तराइन का युद्ध (1191 -92), खानवा का युद्ध (1727), पानीपत का दूसरा युद्ध (1556) और प्लासी का युद्ध (1757)। परंतु इन सब से महत्वपूर्ण युद्ध हल्दीघाटी का माना जाता है। यह युद्ध राजस्थान ही नहीं पूरे भारतवर्ष के लिए महत्वपूर्ण था, क्योंकि इससे तत्कालीन राजनीतिक परिस्थितियां प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित हुई थीं। राजस्थान की अनेक रियासतों ने अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली थी। उस समय महाराणा प्रताप एक ऐसे स्वाभिमानी, पराक्रमी और साहसी राजा थे, जिन्होंने कभी मेवाड़ का सिर और हिन्दुत्व का ध्वज झुकने नहीं दिया। यही कारण था कि महाराणा प्रताप हमेशा अकबर की आंखों में खटकते थे। 

हल्दीघाटी का युद्ध आज के दिन यानि आषाढ़ कृष्ण अमावस्या (18 जून 1576) को मेवाड़ के महाराणा प्रताप और मुगल सेना का नेतृत्व कर रहे आमेर के राजा मानसिंह के बीच हुआ था। यह एक स्वतंत्रता संग्राम था। वास्तव में इस युद्ध की पृष्ठभूमि तभी तैयार हो गई थी, जब 1572 ईस्वी में प्रताप सिंह को राजा का मुकुट पहनाया गया और अकबर ने अपने दूतों के साथ प्रताप सिंह को अन्य राजाओं की भांति जागीरदार के रूप में प्रस्तुत होने के लिए प्रस्ताव भेजा। अपनी आन बान और शान के धनी स्वाभिमानी प्रताप सिंह ने आत्मसमर्पण करने से मना कर दिया और अपने राज्य की स्वतंत्रता की रक्षा का विकल्प चुना। अकबर को महाराणा प्रताप की यह स्वतंत्रता सहन नहीं हो रही थी। इसलिए अब युद्ध अपरिहार्य हो गया था। हिन्दू योद्धाओं में राजपूत समुदाय अपने देश की स्वायत्तता की रक्षा करने की अपनी शक्तिशाली परंपरा के लिए प्रसिद्ध था। महाराणा प्रताप अपने क्षत्रियत्व का परिचय देते हुए इस परंपरा के प्रबल पोषक बने।

युद्ध का स्थल मेवाड़ में गोगुंदा के पास हल्दीघाटी का एक संकरा दर्रा था। लगभग चार घंटे चलने वाले इस भयंकर युद्ध में महाराणा प्रताप की सेना ने गुरिल्ला युद्ध पद्धति से अकबर की सेना में भगदड़ मचा दी। अपने से लगभग चार गुना अधिक मुगल सेना को पीछे हटने पर विवश कर दिया। महाराणा प्रताप के विश्व प्रसिद्ध घोड़े चेतक ने अपने दोनों पैर प्रतिपक्षी गजराज के मस्तक पर जा टिकाए। महाराणा ने अपने भाले के एक ही वार से महावत को मार डाला, परंतु उस पर बैठा मानसिंह बाल-बाल बच गया, अन्यथा युद्ध का निर्णय इसी समय हो जाता। इस युद्ध में महाराणा प्रताप भी बुरी तरह से घायल हुए। घायल होने के बाद भी महाराणा प्रचंड जोश के साथ युद्ध भूमि में मर मिटने को आतुर हो रहे थे, परंतु उनके विश्वासपात्र झाला मान ने उनको राष्ट्रहित में समयानुसार साम, दाम, दंड, भेद – किसी भी नीति को अपनाकर धर्म युद्ध की जीत आवश्यक बताते हुए उन्हें वहां से निकल जाने के लिए मनाया ताकि वे किसी और दिन शत्रु को धूल चटा सकें। मेवाड़ की शान और स्वतंत्रता के लिए महाराणा प्रताप का जीवित रहना आवश्यक था। इस युद्ध में भयंकर रक्तपात हुआ। राजपूतों ने ही नहीं बल्कि वनवासी भीलों, ब्राह्मणों, वैश्यों समेत पूरे हिन्दू समाज ने इस महान युद्ध में अपना बलिदान दिया। यह युद्ध किसी राज्य के लिए नहीं अपितु राष्ट्र की अस्मिता और गौरव के लिए था। आज जिस जनजाति समुदाय को बरगलाकर हिन्दू समाज के विरुद्ध खड़ा करने का प्रयास किया जा रहा है, उस जनजाति के भील समुदाय ने युद्ध में महाराणा प्रताप को अप्रतिम सहयोग दिया था।

यद्यपि हल्दीघाटी के युद्ध के बाद अकबर को यह समझ आ गया था कि महाराणा प्रताप को हराना असंभव है। उन्हें पकड़ने का सपना भी कभी पूरा नहीं हो सकेगा। फिर भी वह यदा-कदा ऐसा प्रयास करता रहा।

इस युद्ध में महाराणा प्रताप के शौर्य और मातृभूमि की रक्षा के लिए उनकी प्रतिबद्धता के कारण जनसाधारण में साहस आया और उन्होंने महाराणा के दृढ़ संकल्प को और मजबूती से साकार करने में तन मन धन से साथ दिया।

परंतु दुख का विषय यह है कि हमारे हिन्दू योद्धा कभी शत्रुओं का षड्यंत्र समझ नहीं पाए और उनके चक्रव्यूह में ऐसे फंसे कि राष्ट्र की रक्षा हेतु शत्रु का मुकाबला संगठित होकर नहीं किया। हल्दीघाटी के युद्ध में जिन दो शेरों की भिड़ंत हो रही थी, दोनों की रगों में एक ही ओजस्वी राजपूती रक्त था, क्षत्राणियों के दूध का शौर्य था, दोनों में मर मिटने वाला अदम्य साहस था, परंतु दुर्भाग्य से उनके संकल्प भिन्न थे। एक धर्म युद्ध के लिए कृत संकल्पित था तो दूसरा धर्म का साथ न देकर भारत माता को पदाक्रांत करवाने को आतुर। इस तरह दोनों ओर से हिन्दुओं का रक्त बहता रहा और तीसरा दूर सिंहासन पर बैठा अपनी तथाकथित महानता को अर्जित करता रहा। भारतवर्ष में स्वतंत्रता के लिए युद्ध निरंतर चलते रहे। देश के अलग-अलग भागों में विदेशी आक्रांताओं के विरुद्ध संघर्ष अविराम हो रहे थे, परंतु सभी राजा अपने संघर्ष से अकेले ही जूझ रहे थे, जबकि यह संघर्ष किसी एक का नहीं, वरन् पूरे देश का था। यह बात हमने ना उस समय समझी, ना आज। यदि हल्दीघाटी में भाई-भाई का साथ देता, दोनों योद्धाओं का संकल्प एक हो जाता तो आज के भारत की तस्वीर कुछ अलग होती। महाराणा प्रताप का नाम भारतीय इतिहास के पृष्ठों पर दैदीप्यमान सूर्य की भांति अंकित है, जिसको बादल कभी ढंक नहीं सके। इतिहास के ऐसे महत्वपूर्ण युद्धों के परिणामों से हमें बहुत कुछ सीखने की आवश्यकता है। हल्दीघाटी का युद्ध हमारा स्वाभिमान है, और एक सबक भी।

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