संस्कृति के सांस्कृतिक अग्रदूत..!
भारत वर्ष के पूर्व से पश्चिम -उत्तर से दक्षिण चारों दिशाओं में निवासरत जनजातीय समाज अपनी बहुरंगी-अनूठी सांस्कृतिक विरासत से
भारत एवं भारतीयता के बोध को बिखेरता हुआ ‘जनजातीय स्वत्व’ की ध्वजा लहरा रहा है। हमारा जनजातीय समाज कभी प्रकृति की लय ताल से लयबध्द होकर नृत्य एवं संगीत की थाप पर तन- मन को प्रमुदित कर देता है तो कभी अपनी विशिष्ट कलाकृतियों -शिल्प एवं चित्रकारी से ‘लोकसंस्कृति’ के आख्यान रच देता है। भारत के विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों में जनजातीय- वनवासी समाज उत्तर तथा पूर्वोत्तर क्षेत्र, मध्य क्षेत्र, दक्षिण क्षेत्र और द्वीपीय क्षेत्र में प्रमुख रूप से अपनी विशिष्ट प्रकृति एवं संस्कृति के साथ निवासरत है। देश के उत्तरी एवं पूर्वोत्तर क्षेत्र के अंतर्गत हिमालय के तराई क्षेत्र, व उत्तरी-पूर्वी क्षेत्र जिनमें- काश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश का दक्षिणी हिस्सा, बिहार, उत्तराखंड तथा पूर्वोत्तर के सभी राज्य इस क्षेत्र में आते हैं। यहां- गुर्जर, बकरवाल, थारू, बुक्सा, राजी, जौनसारी, शौका, गद्दी, किन्नौरी, भोटिया गारो,खासी एवं जयंतिया समाज से आने वाला जनजातीय समाज निवास करता है। इसी प्रकार से भौगोलिक विभाजन के मध्यक्षेत्र के अन्तर्गत- म.प्र., दक्षिण राजस्थान, आंध्रप्रदेश, दक्षिणी उत्तर प्रदेश, गुजरात, बिहार, झारखण्ड, छत्तीसगढ़, उड़ीसा इत्यादि राज्यों में जनजातीय समाज के- भील, गोंड, रेड्डी, संथाल, हो, मुंडा, कोरवा, उरांव, कोल, बंजारा, कोली, मीणा, जैसे जनजातीय समुदायों की निवासस्थली हैं। साथ ही भारत के दक्षिणी क्षेत्र के कर्नाटक, तमिलनाडु व केरल आदि राज्यों में- गोंड, टोडा, कोरमा, भील, कडार, इरुला समुदाय के अन्तर्गत आने वाला जनजातीय समाज रहता है। सेंटिनलीज, ओंगे, जारवा, शोम्पेन इत्यादि अतिविशिष्ट जनजातियाँ भारत के द्वीपीय क्षेत्रों ( अंडमान एवं निकोबार द्वीपसमूह) में रहती हैं। इन्हें बाह्य दुनिया से विशेष सम्पर्क न होने के कारण ‘ अति संवेदनशील ‘ जनजातियों का दर्जा दिया गया है। वनांचलो में निवासरत हमारा यह जनजातीय समाज हमारी संस्कृति का ‘मूल’ हैं। याकि यह कहें कि – भारत की मुख्य संस्कृति के विकास का केन्द्र ही हमारी ‘अरण्य संस्कृति ‘ रही है। जिसके सांस्कृतिक दूत या रक्षक के रुप में जनजातीय समाज ने अपनी महती भूमिका निभाई है। ‘अनेकता में एकता एवं विविधता में अभिन्नता’ जैसे प्रतीक प्राय; हमारी जनजातीय वनवासी संस्कृति को प्रकट करते हैं।
लोकसंस्कृति के मनीषी, उद्भट विद्वान पद्मश्री से अलंकृत डॉ. कपिल तिवारी के जनजातीय समाज एवं संस्कृति के प्रति शोध पूर्ण विचार इस दिशा में सुस्पष्ट प्रकाश डालते हैं। डॉ. कपिल तिवारी जनजातीय समाज की कला एवं संस्कृति के विषय में कहते हैं कि- “संस्कृति एक बहुत बड़ा तत्व है और ‘कला’ – संस्कृति का एक छोटा सा हिस्सा है। लौकिक साहित्य भी उसका एक हिस्सा है। रुपंकर एवं प्रदर्शनकारी कलाएँ भी उसका एक हिस्सा हैं। संस्कृति अपने मूल में अमूर्त होती है। उसका एक भाग हमारे धार्मिक एवं आध्यात्मिक विश्वासों में रहता है। देवी देवताओं एवं पुरखों में रहता है । अनुष्ठानों एवं पर्व – त्यौहारों में रहता है। संस्कृति में उनके ( जनजातियों) नृत्य हैं , संगीत हैं ,चित्र हैं, शिल्प हैं। उनकी यह संस्कृति दो स्वरुपों में अभिव्यक्त होती है- पहला उनके धार्मिक एवं आध्यात्मिक विश्वासों एवं उसके जगत के रुप में। और दूसरा उनके कलात्मक आधार की – उनके भौतिक आधार की बातें हैं।”
जनजातीय समाज सदैव से ही प्रकृति पूजक रहा है । अतएव जनजातीय – वनवासी समाज को प्रकृति के पर्याय के रूप में सदैव से स्वीकारा गया है। डॉ. कपिल तिवारी इस सम्बन्ध में एक और महत्वपूर्ण बात को रेखांकित करते हुए कहते हैं कि- हमें यह आश्चर्य होगा कि ‘प्रकृति ‘ जैसा कोई शब्द आदिवासियों/ जनजातियों की भाषा में नहीं है। वे प्रकृति के साथ इतने अभिन्न एवं अद्वैत में हैं कि वे अपने होने की तरह ही – वो सारे वन को, सारी प्रकृति को मानते हैं। अर्थात् भिन्नता में- जो एकता देखने वाला है। और एक देखने वाले के लिए कोई भी चीज सुंदर होती है। उनके ( जनजातियों) बीच ऐसा ही है । प्रकृति के साथ इतने अभिन्न होना कि – वे और प्रकृति एक चीज हैं। उनकी धार्मिकता का रुप आधार भी प्रकृति ने ही बनाया है। और उनकी कला का आधार यानि ‘बौध्दिक संस्कृति’ का आधार भी प्रकृति ने ही बनाया है। और प्रकृति ही उनके सम्पूर्ण जीवन का आधार है। प्रकृति का अर्थ उनके लिए अपने आप में पूरा होना है – जिस जगत में वे वास करते हैं ; वह अभिन्न है।
आगे वे शिल्प एवं कला के सम्बन्ध में बतलाते हैं कि – “जनजातीय समाज की शिल्प परम्परा का आधार मूलतः मातृशक्तियां व देवमूर्तियाँ हैं। वह उनके विश्वासों की पवित्रता का प्रतीक हैं, जो वे अपने देवस्थानों एवं देवमूर्तियों के लिए समर्पित करते हैं। और उनकी शिल्प परम्परा का 80 प्रतिशत हिस्सा वहीं से आता है। 20 प्रतिशत हिस्सा ही भौतिक जगत से आता है – जो सौन्दर्य परक है। वे कहते हैं कि- हमारे आप के लिए जनजातीय समाज का शिल्प विधान एक कला के रूप में हैं। जबकि उनके लिए कला जीवन है। जहां तक उनकी धार्मिकता का विचार है – वे किसी धर्म में नहीं हैं, वे धार्मिकता में हैं। यानि एक सच्ची – नगद आध्यात्मिकता में हैं। उनकी धार्मिकता का रुप आधार भी प्रकृति ने ही बनाया है। और उनकी कला का आधार यानि बौध्दिक संस्कृति का आधार भी प्रकृति ने ही बनाया है। उनकी धार्मिकता का प्रवाह – परम्परा एवं विश्वास व सच्चा होना है। वे भूमि,वन, प्रकृति, देवता, पुरखों, आदिवासी देवताओं, देवमूर्तियों, मातृशक्तियों की वन्दना करते हैं। हमें जनजातियों की कला की समझ के लिए जीवन की सहजता को समझना है। जीवन की तरह ही सहज हैं – जनजातियों की कला । वे अपने पर्वों एवं त्यौहारों पर जीवन परम्परा को संयोजित करते हैं। वे अपने नाचने से उत्सव मनाते हैं। वे अपने गायन से पर्व समारोहित करते हैं। वे अपने शिल्प अर्पित करते हैं। वे अपने चित्र बनाते हैं – अर्पित करते हैं। उनकी कला परम्परा- जीवन से अलग नहीं है, बल्कि जीवन के साथ सहयात्रा करती हैं। ”
भारत के समूचे जनजातीय समाज का अपना गौरवपूर्ण इतिहास रहा है। जनजातीय समाज ने स्वतन्त्रता के लिए तो संघर्ष किया ही है । साथ ही साथ उन्होंने ईसाई मिशनरियों के ‘कन्वर्जन’ के विरुद्ध भी सदैव आर-पार की लड़ाई लड़ी है। भारत के सांस्कृतिक एवं राजनैतिक इतिहास में जनजातीय – वनवासी समाज का सदा से ही अपना एक विशिष्ट स्थान रहा है। भारत की अरण्य संस्कृति प्रकृति के साथ साहचर्य ज्ञान तथा जीवन मूल्यों को स्थापित करने वाली रही है। और इसके साथ कदमताल करने वाला कोई समाज अग्रगण्य रहा है- तो वह भारत का वनवासी जनजातीय समाज रहा है। जनजातीय समाज वेदों की ऋचाओं के लिखे जाने से लेकर ऋषि मुनियों के आश्रमों में सहयोगी रहे। और सांस्कृतिक उत्कर्ष के युग- रामायण एवं महाभारत काल खण्ड में आराध्य श्रीराम एवं कृष्ण के परम् स्नेही के रुप में समूचा वनवासी समाज उनका परिवार बनकर रहा है। आशय यह कि भारतीय संस्कृति सदा से ही विविधता में एकता की पोषक,सर्जक एवं संरक्षक रही आई है।
परतन्त्र भारत एवं स्वातंत्र्योत्तर कालखंड से लेकर वर्तमान तक – जनजातीय समाज को शेष अन्य हिन्दू समाज से अलग बतलाने के मिथ्या विमर्श स्थापित करने के प्रयास किए जाते रहे हैं। और जनजातियों में पृथकता की भावना जगाकर- ‘ईसाई मिशनरियों’ , भारत विभाजनकारी शक्तियों के द्वारा लोभ,लालच, छल- बल, धन , सेवा सहायता के माध्यम से ‘कन्वर्जन’ के षड्यंत्र रचे जाते हैं।
इस दिशा में राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग के अध्यक्ष हर्ष चौहान के- ‘जनजातीय समाज ‘ के स्वत्व एवं स्वाभिमान पर आधारित ये सार्थक विचार जनजातीय अस्मिता की मजबूत धुरी बनकर हमारे सामने उपस्थित हो जाते हैं। वे संसद टीवी के एक कार्यक्रम में कहते हैं कि- अंग्रेजों के आगमन के पूर्व भारत के जनजातीय समाज को किसी अलग ढंग से कभी भी नहीं देखा गया। यह हमारी संस्कृति- जनजातीय समाज की विविधतापूर्ण सांस्कृतिक विरासत की बहुलता से निकलकर आती है। जातियां समाज की शक्ति हैं जो अपनी विशिष्टताओं – गुणों के साथ समावेशित होकर- एकत्व के प्रतीक ‘राष्ट्रीयता’ को निर्मित करती हैं।
आगे वे अंग्रेजों के षड्यंत्र पर प्रकाश डालते हैं- “सन् 1857 के समय से ही अंग्रेजों ने जनजातीय समाज को अपराधी जनजाति घोषित कर दिया। और तभी से लेकर आज तक पाठ्यक्रमों में वही पढ़ाया जा रहा है। ”
चौहान के उपर्युक्त कथन को पुष्ट करता हुआ अंग्रेजों द्वारा सन् 1871 का ‘आपराधिक जनजाति अधिनियम (CTA)’ है जिसमें अंग्रेजों ने जनजातीय समाज के लगभग 200 से अधिक समुदायों को ‘वंशानुगत अपराधी’ घोषित कर दिया था। फिर हमारे जनजातीय समाज के ऊपर अंग्रेजों ने असहनीय जुल्म ढाये थे। – अंग्रेजों की इसके पीछे जनजातीय समाज की शक्ति को कम करने । उन्हें स्वतन्त्रता संग्राम से दूर रखने के साथ-साथ ही प्रताड़ित कर ईसाई मिशनरियों के हाथों ‘कन्वर्जन’ करने की सोची समझी योजना भी रही होगी।
आगे जनजातीय समाज की- भारतीय समाज में भूमिका एवं स्थान को लेकर चौहान बतलाते हैं कि- “हम पौराणिक काल से देख रहे हैं कि- जनजातीय समुदाय व शेष नगरीय एवं ग्रामीण समुदाय ; ये सब साथ ही चले हैं। और जनजातीय समुदाय को तो सदैव विशेष सम्मान के साथ देखा जाता था। क्योंकि समाज जनजातीय समाज को अपनी सीमा के रक्षक मानते थे। चाणक्य ने भी यही माना है।
इसी सम्बन्ध में एक अन्य महत्वपूर्ण पहलू
आदिवासी/ मूलनिवासी जैसे शब्द-जालों की कुत्सित मंशा एवं विभाजनकारी मानसिकता पर चौहान दृष्टि डालते हैं कि- “अंग्रेजों ने जनजातीय समाज के विरुद्ध षड्यंत्रकारी दृष्टि रखते हुए सन् 1857 से यह शुरुआत की थी कि– किस तरह से जनजातीय समाज को यह बताया जाए कि वे शेष समाज से किस तरह अलग हैं। इसके चलते उन्होंने नई नई कहानियां गढ़ी हैं। और वे आदिवासी, मूलनिवासी जैसे शब्द निकालकर लाए। और ये प्रयास उन्होंने बहुत पहले से शुरू कर दिया था। अंग्रेजी शासन में दो जनगणना अधिकारियों की रिपोर्ट है जिसमें उन्हें कहा गया कि -जनजातियों को अलग अलग लिखा जाए। ; इसके जवाब में ब्रिटिश जनगणना अधिकारी लिखते हैं कि- “जनजातियों को अलग लिखना थोड़ा कठिन है, क्योंकि इनका जो पूरा रहन सहन है। वो जिसे हम शेष हिन्दू समाज कहते हैं– उनसे मिलता जुलता है। पूजा पध्दतियां सब मिलती जुलती हैं। तो जनगणना अधिकारियों ने जनजातियों को शेष हिन्दू समाज से अलग लिखने में उस समय असमर्थता व्यक्त की थी। किन्तु अंग्रेजों ने आखिरकार अपने षड्यंत्र को स्थापित किया। ”
आगे हर्ष चौहान की इस पीड़ा से हम सबको रुबरु होना चाहिए। क्योंकि वे अपनी यानि जनजातीय समाज की जिस वेदना को उद्धाटित करते हैं। वह गहरे मर्म को भेदती है- “अंग्रेजों ने यह स्थापित किया, जो आज के पढ़े-लिखे लोगों में भी है वह यह कि- कई बार हम जनजाति होने के नाते या सामान्यतया जनजाति के व्यक्ति को- एक तो ‘मुख्यधारा’ शब्द पर क्रोध आता है । और दूसरा यह कि आज तक भी यह पढ़ाया जा रहा है कि- “ यहां-यहां ये जनजातियां पाई जाती हैं, या पाई जाती थी। जिसे ब्रिटिशों ने अध्ययन की किताबों में लिखा है। इस प्रजाति के लोग यहां रहते थे। ; यह कहा और बोला जाता है। ब्रिटिशों ने ये एन्थ्रोपोलाॅजी सेट की थी। जो चलता आ रहा है। यह सब उस अंग्रेजी शिक्षा व डिजाइन का परिणाम है , जिसके कारण यह बोला जा रहा है।
उपर्युक्त कथन के आलोक में हर्ष चौहान की पीड़ा यह है कि – जब भारत में निवासरत अन्य नगरीय या ग्रामीण समाज को ‘पाया जाता है/ पाई जाती हैं’, के द्वारा इंगित नहीं किया जाता है। तो जनजातीय समाज के लिए ऐसे शब्दों का प्रयोग क्यों? अतएव हमें भी यह प्रवृत्ति बदलनी पड़ेगी। क्योंकि क्या जनजातीय समाज कोई वस्तु हैं,जो उनके लिए ऐसे शब्द प्रयुक्त किए जाएं? और दूसरे – ‘मुख्यधारा’ शब्द को लेकर यह कि – ‘ जनजातीय समाज वनांचलों में रहता है ,इसका मतलब यह नहीं है कि – वह मुख्यधारा में नहीं है। बल्कि वास्तविकता तो यह है कि – जनजातीय समाज ने अपनी अरण्य संस्कृति से जीवन के सूत्र सौंपकर मुख्यधारा का निर्माण किया है।
स्वातंत्र्योत्तर समय से ही सत्ताओं ने जनजातीय समाज की उन्नति के लिए कोई विशेष ठोस कदम नहीं उठाए। और न ही उनके विकास के लिए दृढ़ इच्छाशक्ति दिखलाई, जिसके परिणामस्वरूप आज भी वनांचलों में निवासरत जनजातीय समाज- सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, शैक्षणिक समृद्धि एवं विकास की बाट जोह रहा है। हालांकि नरेंद्र मोदी सरकार में ‘जनजातीय गौरव दिवस’ के साथ ही जनजातियों के विकास के लिए अनेकानेक कदम उठाए जा रहे हैं। भारत के प्रथम नागरिक की आसंदी पर जनजातीय समाज की बेटी द्रौपदी मुर्मु जी का आसीन होना एक सुखद संकेत है। किन्तु जनजातीय समाज के के बीच पृथकता,विभाजन एवं कन्वर्जन का षड्यंत्र रचने वाली ईसाई मिशनरियाँ गम्भीर खतरा बनकर उपस्थित हैं। अतएव इन सब समस्याओं का निदान करते हुए समाज एवं सरकारों का यह प्रथम दायित्व बनता है कि – समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर के ध्वजवाहक जनजातीय समाज के पुनरुत्थान एवं कल्याण के लिए सार्थक प्रयास किए जाएँ। ताकि जीवन के समस्त क्षेत्रों में जनजातीय समाज अपनी विशिष्ट संस्कृति एवं गौरवपूर्ण विरासत की धरोहर लिए हुए भारत को गढ़ने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सके..!