मातृभूमि के लिए….(कविता)
मातृभूमि के लिए जिया है,
जिनने जीवन सारा।।
गांँव -गांँव हर शहर- शहर में,
उनका ही जयकारा ।।
हार जीत की चाह नहीं है ,
पथ पर चलते रहना।।
देह दीप में बनकर बाती,
हर पल जलते रहना।।
निज हित की सब छोड़ कामना,
परहित जीवन जीना।
देश धर्म की रक्षा के हित,
विष भी हंँसकर पीना।।
तीन -तीन प्रतिबंधों की भी,
तोड़ चुके हैं कारा।
मातृभूमि के लिए जिया है,
जिनने जीवन सारा।।1।।
रज भारत की चंदन जैसी
लगती जिनको प्यारी।
सवा लाख से लड़े अकेले,
पड़ते सब पर भारी।।
एक लक्ष्य है एक भावना,
जय- जय भारत माता।
नहीं डरेंगे नहीं झुकेंगे,
बच्चा- बच्चा गाता।।
स्वयं काल भी खड़ा सामने,
दिखता हारा -हारा।
मातृभूमि के लिए जिया है,
जिनने जीवन सारा।।2।।
सही गलत को जान चुकी है,
अब तो जनता सारी।
कौन चमन में पेड़ लगाता ,
कौन चलाता आरी।।
रोज धरा पर बैठ -बैठ कर,
सच का तिलक लगाया।
ढूंँढ- ढूंँढ कर निज दोषों को,
कोसों दूर भगाया।।
उनके ही संकल्पों से तो,
फिर दानव दल हारा।
मातृभूमि के लिए जिया है ,
जिनने जीवन सारा।।३।।
-विष्णु शर्मा, हरिहर